यहां गूंजते हैं स्त्रियों की मुक्ति के स्वर, बे-परदा, बे-शरम,जो बनाती है अपनी राह, कंकड़-पत्थर जोड़ जोड़,जो टूटती है तो फिर खुद को समेटती है, जो दिन में भी सपने देखती हैं और रातों को भी बेधड़क सड़कों पर निकल घूमना चाहती हैं, अपना अधिकार मांगती हैं। जो पुकारती है, सब लड़कियों को, कि दोस्तों जियो अपनी तरह, जियो ज़िंदगी की तरह
25 December 2008
बात पैसों की नहीं है
स्कूल के वक़्त में एक बार ऐसी ही एक औरत को मैंने बीस रुपये दिए थे, जो उस वक़्त मेरी पॉकेटमनी के हिसाब से बहुत थे, वो औरत अपने पति के एक्सीडेंट के बाद इलाज़ के लिए पैसे मांग रही थी। चंद हफ्तों बाद मैंने उसे दूसरी जगह पर उसी बहाने से पैसे मांगते देखा। तब मैंने तय किया था कि भीख नहीं दूंगी।
कुछ महीने पहले की बात है। एक औरत और उसका सोलह सत्रह साल का बेटा मेरे ऑफिस के बाहर खड़े थे। कह रहे थे महाराष्ट्र से आए हैं,पति को ढूंढ रहे हैं, वो मिला नहीं, घर जाने को पैसे नहीं। मैंने चाय की दुकान पर ऑफिस के कुछ लोगों को उससे मिलवाया। हमने तय किया कि इन्हें पैसे दे देते हैं फिर चाय भी पिलवाई। महिला के हुलिये से समझने की कोशिश कर रहे थे ये महाराष्ट्रियन है या नहीं। चायवाला कह रहा था पैसे मत देना ये झूठ बोल रहे हैं, फिर भी पैसे दिए कि अगर ये झूठ भी रहे हों तो हमारे कितने पैसे ज़ाया होंगे, क्या पता सच कह रहे हों तो ऐसे में हम अपने शक़ की बिनाह पर उनकी मदद भी न कर पाएंगे।
थोड़े ही दिनों पहले एक और घटना है। दरवाजे पर दो नौजवान आए। दिल्ली में किसी आशा नशा मुक्ति केंद्र का सर्टिफिकेट दिखा रहे थे। पहले मैंने उन्हें जाने को कह दिया और दरवाजा बंद कर लिया। पर फिर बेचैनी हो गई। मैंने उन्हें आवाज़ देकर बुलाया। उनके सर्टिफिकेट्स देखे, एक कैलेंडर भी था उनके पास, मैंने चंद रुपयों की मदद दे दी और सोचा पता करुंगी इस नशा मुक्ति केंद्र के बारे में।
अभी थोड़ी देर पहले दो कश्मीरी लड़कियां आईं। बताया कि दिल्ली के आईएसबीटी शास्त्री पार्क में इनका कैंप है। जम्मू-कश्मीर में बर्फ़बारी के वक़्त ये लोग यहां आ जाते हैं। इनके मिट्टी के मकान हैं जहां ठंड में रहना बहुत मुश्किल होता है। कैंप में कुछ लोग काम भी करते हैं, कपड़े प्रेस करते हैं, लड़कियां डीएवी की किसी ब्रांच में पढ़ती भी हैं, कोई कश्मीरी टीचर है जो इन्हें पढ़ाती है, इम्तिहान ये कश्मीर में ही देते हैं। समझ नहीं आया क्या करूं, फिर असहज महसूस करने लगी।
यहां भी मैंने कुछ पैसे दे दिए, फिर इनसे बातें भी की। दोनों ने कुछ खाने को मांगा तो फल दिए और उन्हें घर में आकर खाने का ऑफर भी दिया। पर उन्होंने मना कर दिया। दोनों लड़कियां बहुत ही प्यारी लग रही थी। मैंने दरवाजा बंद कर लिया।
उन्होंने मेरे पड़ोस में घंटी बजाई, पड़ोस की औरत ने उन्हें डपट दिया- "सिक्योरिटी गार्ड तुम्हें अंदर कैसे आने देते हैं, हमारे पास कोई और काम नहीं, तुम्हारी बातें सुनें.." इतनी ही आवाज़ कान में पड़ी।
पर अब भी मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा। सड़क पर बैठे भिखारियों को न कहने पर कभी बुरा नहीं लगता। बहुत सारे लोग ग़रीब या विकलांग का सर्टिफिकेट बनवाकर घर पर भी पैसे मांगने आ जाते हैं, उन्हें भी पैसे देने की इच्छा नहीं होती। बात दरअसल पैसों की नहीं है। पर अगर कोई सचमुच मदद मांगने आया हो तो उसे लौटाना ठीक नहीं लगता। जाने कौन सचमुच मुश्किल में फंसा है, कौन ठगी कर रहा है।
20 December 2008
लाइफ को तो प्री-पेड कराओ

ये लाइफ टाइम प्री-पेड कार्ड है, वैलिडिटी खत्म होने की चिंता खत्म, बस पैसे डालो और टॉकिंग-शॉकिंग शुरु। जनाब इरफ़ान ख़ान साब भी टीवी पर ऐसा ही कुछ बांचते नज़र आते हैं। लेकिन लाइफ-टाइम प्री-पेड कार्ड बेचनेवाले की कॉल ने मेरी कज़न के लाइफ का बहुत सारा टाइम खा लिया। वो झल्ला जाती। जब लाइफ का टाइम नहीं फिक्स्ड है तो लाइफ टाइम प्री-पेड कार्ड का क्या मतलब। पहले लाइफ को प्री-पेड कराओ तब तो लेंगे लाइफ टाइम प्री-पेड कार्ड। ख़ैर मैं और मेरी कज़न इस बात पर बहुत देर तक हंसते रहे। फिर हमने गर्व से कहा हम तो पोस्ट-पेड वाले हैं। लाइफ-टाइम टॉकिंग-सॉकिंग से एक महीने के बिल की छुट्टी।
09 December 2008
क्या हम खरे हैं ?

क्या हम चेकिंग के लिए लगी लंबी कतार देखकर झल्लाते नहीं। इससे बचने के उपाय नहीं ढूंढ़ते?
क्या मॉल-सिनेमाहॉल जैसी भीड़भाड़वाली जगहों पर सिक्योरिटी वाले महज दिखावे की चेकिंग नहीं करते। क्या हम उसकी शिकायत करते हैं?
क्या हम अपने ईर्द-गिर्द घट रही संदिग्ध चीजों को बड़ी आसानी से नज़रअंदाज़ कर आगे नहीं बढ़ जाते?
क्या हम ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट और ऐसे तमाम काम करवाने के लिए उपर से पैसा नहीं देते?
क्या हम सड़क पर कूड़ना नहीं फैलाते?
क्या हम रेड लाइट क्रॉस नहीं करते?
क्या हम कार की सीट बेल्ट लगाकर चलते हैं?
क्या हम बाइक पर हेलमेट लगाकर चलते हैं?
क्या हम अपनी सड़कों को गंदा नहीं करते?
क्या हम जो बोलते हैं, लिखते हैं, भाषणबाज़ी करते हैं, असल ज़िंदगी में हम उतने ही खरे हैं?
ऐसे बहुत से सवाल हैं जो हमें खुद से भी पूछने चाहिए। आतंकी हमलों से लेकर सड़कें गंदी करने तक में हम शामिल हैं।
हमारी कमज़ोरियां ही दुश्मन की ताक़त हैं। जब तक हम नहीं सुधरेंगे, देश कैसे सुधरेगा?
05 December 2008
चलो कुछ उम्मीद ले आएं

जो सर्जक हैं
रचते हैं जीवन की
बुनियादी शर्तें
और गाते हैं
चलो, उनसे
उम्मीदों की उम्र
सपनों की गहराई
और उड़ान की
ऊंचाई मांग लाएं
अनाज की पूलियों
की तरह
लाद कर घर लाएं
(ये कविता मैंने अपने कमरे की दीवार पर छपे पोस्टर से ली है। किसकी है ये पता नहीं। पर कविता बहुत सुंदर है, उम्मीद देती है जीने के लिए। पिछली पोस्ट को मैं जल्द से जल्द नीचे लाना चाहती थी,शायद हटा भी देती, लेकिन टिप्पणियां पोस्ट से ज्यादा सार्थक थीं इसलिए नहीं हटाई, कुछ नया डालने की जद्दोजहद में कुछ मिला नहीं, फिर इस कविता पर नज़र गई, तो सोचा यही क्यों नहीं)
26 November 2008
हम कहां जा रहे हैं?
18 November 2008
"बचाओ- विलुप्त हो सकते हैं गिद्ध"

अगले दस साल में विलुप्त हो सकते हैं एशियाई गिद्ध। इससे पहले भी मैं बचाओ सीरीज़ के तहत खतरे में आए प्राणियों पर जानकारी दे चुकी हूं। पृथ्वी के बहुत सारे जीव-जंतु बदले पारिस्थितक तंत्र में अपने अस्तित्व को खोते जा रहे हैं। एशियाई गिद्ध भी इन्हीं में से एक है। गिद्धों की संख्या में आ रही कमी के लिए ज़िम्मेदार है जानवरों को जी जानेवाली एक दवा, जिसका नाम है डाइक्लोफेनाक। ये दवा जानवरों को दर्द के लिए दी जाती है। हालांकि इस दवा पर प्रतिबंध हैं फिर भी ये बाज़ार में उपलब्ध रहती है और इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल होता है।
एक सर्वे के मुताबिक सफ़ेद पूँछ वाले एशियाई गिद्धों की संख्या 1992 की तुलना में 99.9 प्रतिशत तक कम हो गई है। लंबे चोंच वाले और पतले चोंच वाले गिद्धों की संख्या में भी इसी अवधि में 97 प्रतिशत की कमी आई है। ज़ूलॉजिकल सोसायटी ऑफ़ लंदन के एंड्र्यू कनिंघम इस रिपोर्ट के सहलेखक भी हैं. वे कहते हैं, "इन दो प्रजातियों के गिद्ध तो 16 प्रतिशत, प्रतिवर्ष की दर से कम होते जा रहे हैं."
गिद्ध को धरती के सफाई सहायक के तौर पर जाना जाता है। इसलिए गिद्धों को न केवल एक प्रजाति के तौर पर बचाया जाना ज़रुरी है बल्कि यह पर्यावरणीय संतुलन के लिए भी ज़रुरी है। गिद्ध नहीं रहे तो आवारा कुत्तों से लेकर कई जानवरों तक मरने के बाद सड़ते पड़े रहेंगे और उनकी सफ़ाई करने वाला कोई नहीं होगा और इससे संक्रामक रोगों का ख़तरा बढ़ेगा.
(फोटो गूगल से)
14 November 2008
05 November 2008
हमें क्यों पसंद हैं ओबामा?

राष्ट्रपति पद पर ओबामा की जीत अमेरिका के लिए नये युग की शुरुआत है और हम सब की निगाहें भी ओबामा पर टिकी हैं। हालांकि आउट सोर्सिंग और न्यूक्लियर डील जैसे मसलों पर ओबामा की राय भारत के लिए सकारात्मक नहीं रही पर फिर भी ओबामा में अपनापन झलक रहा है। वजह, उनका अश्वेत होना? दुनिया के सबसे शक्तिशाली पद पर उस समूह का एक शख्स काबिज़ हो रहा है जो नस्लभेद का शिकार रहा, सदियों तक ग़ुलामी झेली, अपेक्षाकृत कमज़ोर वर्ग का प्रतिनिधि। क्या इसीलिए हम ओबामा से ज्यादा निकटता महसूस कर रहे हैं? ओबामा के रुप में अहंकारी अमेरिका की छवि भी टूटती है इसलिए भी शायद उनके खाते में ज्यादा समर्थन आया।
ओबामा के साथ-साथ हिलेरी क्लिंटन की दावेदारी ने भी अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव को इस बार ख़ास बना दिया था। मान लीजिए ओबामा सीन में नहीं होते, हिलेरी और मैक्केन आमने-सामने होते तब शायद हिलेरी के पक्ष में जनता जाती? फिर बुश की नीतियां भी रिपब्लकिन पार्टी के लिए हार की वजह बनी। ओबामा में अमेरिकी जनता को भी नई संभावनाएं दिख रही होंगी और दुनिया के दूसरे देशों को भी।
ओबामा नए हीरो की तरह लग रहे हैं। अमेरिका का बाज़ार पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है। अमेरिका के राष्ट्रपति के फैसले पूरी दुनिया पर असर डालते हैं। इराक-अफगानिस्तान जैसे तमाम उदाहरण हमारे पास हैं। तो अमेरिका के नए राष्ट्रपति पर पूरी दुनिया की निगाहें तो होंगी ही। दुनियाभर में उनकी जीत का जश्न भी मनाया जा रहा है। जरूरी नहीं कि ओबामा की नीतियां भी भविष्य में लोगों को पसंद आएं पर फिलहाल ओबामा तो पसंद आ रहे हैं।
हो सकता है आनेवाले वक़्त में हमारे यहां भी ओबामा सरीखा परिवर्तन हो। यूपी की मुख्यमंत्री मायावती जैसे नेताओं की दावेदारी इस उम्मीद को जरूर आगे बढ़ाती है। हां लेकिन धर्म-जाति-क्षेत्र-भाषा जैसे मुद्दों पर हमारी तू-तू-मैं-मैं खत्म होगी? लगता नहीं है।
(चित्र बीबीसी से साभार)
30 October 2008
"खाली वक़्त हो तभी पढ़ें"
अब चेतावनी- खाली वक़्त हो तभी पढ़ें।
मेरे लिए
कोई सोम-मंगल-बुध नहीं होता
मेरे लिए
महीने की पहली तारीख हो
या आखिरी
क्यों फर्क नहीं पड़ता
मेरी रात कई टुकड़ों में होती है
दोपहर-शाम
नींद जब भी आ जाती है
मेरे लिए
सपने, दुख देते हैं
ख्वाहिशें, मुश्किलें
घर, काटता है
सड़कें,भटकाती हैं
दोस्त,सवाल पूछते हैं
मां, मायूस होती है
मैं शांत रहता हूं भरसक
कम से कम
कोशिश तो करता हूं पूरी
21 October 2008
17 October 2008
लो मैं आ गई

एक और ख्याल मुझे आया। अस्पताल के एक कमरे में छे दिन बिताना इतना मुश्किल लग रहा था, जिन्हें उम्र क़ैद जैसी सज़ा मिली होती है वो कैसे रहते होंगे जेल में। मुझे तो मालूम था मैं यहां कुछ दिनों की मेहमान हूं पर जिन्हें पता है कि सारी ज़िंदगी जेल की बंद चारदीवारी के बीच गुजरनी है, उनका अपराध, उनकी सज़ा। मुझे डॉमनिक लॉपियर की एक हज़ार सूरज किताब के कैराइल चैसमैन की याद हो आई। जिसे मृत्युदंड मिला होता है और जेल में वो ज़िंदगीभर मृत्युदंड की सज़ा को माफ करने के लिए लड़ता है, कई बार उसकी सज़ा टलती है, आखिरी बार भी, लेकिन तब कुछ सेकेंड के अंतराल का फासला बड़ा हो जाता है, उसे इलेक्ट्रिक चेयर पर मौत की नींद सुला दिया जाता है।
अस्पताल से जुड़ा एक मज़ेदार अनुभव भी है। आगंतुकों का मेरे कमरे तक आना। दरअसल अस्पताल में मिलने के लिए समय की पाबंदी थी। पर मिलने आनेवालों को समय का पता नहीं था और था भी तो तोड़ने का जुगाड़ तो निकाला ही जा सकता था। विजिटर टाइम के अलावा कमरे में सिर्फ एक अटेंडेंट ही रह सकता था। विजिटर कभी भी विजिटर टाइम पर नहीं आए। जुगाड़ भिड़ाने के लिए सिक्योरिटी गार्ड से काफी जोड़तोड़ करनी पड़ती। कुछ फैमिली टाइप लोगों को तो सिक्योरिटी ने अंदर आने भी दिया, लेकिन जिनकी शक्ल उन्हें फैमिली टाइप नहीं बता रही थी, या जो अकेले आए, उन्हें बिना मेरा हालचाल जाने बगैर लौटने का महान सुख हासिल हुआ। सिक्योरिटी गार्ड को पटा कर अंदर घुस आने में मेरी बहन जी ने महारत हासिल कर ली थी और उसी की कृपा से कुछ आगंतुक मेरा हालचाल पा लेने में और मुझे जल्दी से अच्छा हो जाने का आशीर्वाद देने में क़ामयाब भी हुए।
अब मुझे लग रहा है कि मैं कीबोर्ड पर और ज्यादा खिटखिट करती रही तो मुझे अस्पताल वापस न जाना पड़ जाए। वैसे भी बहुत लंबा टीप लिया है। तो बाय-बाय।
13 October 2008
औरतों की कवितायें (1)
औरतें
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औरतें मिट्टी के खिलौने बनाती हैं
मिट्टी के चूल्हे
और झाँपी बनाती हैं
औरतें मिट्टी से घर लीपती हैं
मिट्टी के रंग के कपडे पहनती हैं
और मिट्टी की तरह गहन होती हैं
औरतें इच्छाएं पैदा करती हैं और
ज़मीन में गाड़ देती हैं
औरतों की इच्छाएं
बहुत दिनों में फलती हैं
10 October 2008
एक निवेदन
-धीरेश
01 October 2008
बम-शम तो अब फटते रहते हैं
अमां यार जबसे हम तुम्हारे फोन का इंतज़ार कर रिये हैं। चलना है तो बताइये।
अरे वो हम टीवी देखने बैठे थे, तभी ख़बर आ गई की दिल्ली में फिर बम फूट रहे हैं, बस वही देखने लग गए।
अजी छोड़िये। ये बम-वम फूटे तो फूटे। लड़के के एडमिशन के लिए यूनिवर्सिटी के एक बाबू जी से बात करनी है। आप तो जानते ही हैं बातचीत में हम उतने चपल हैं नहीं। इसीलिए आपको बार-बार पूछ रहे हैं। तो क्या कहते हैं आप चलेंगे क्या।
हां चलते हैं, दरअसल वही ख़बरिया कि कोई तो कह रहा है कि 14-15 लोग मर गए, कोई चैनल कह रहा है कि 24-25।
अरे अब आप इन चैनलों के चक्कर में न पड़ें और न इन धमाकों के। जितना इनसे जुड़ेंगे उतना ही ये सतावेंगे। अभी 14 कह रहे हैं दस मिनट बाद 34 भी कह सकते हैं और फिर खुद ही उसमें से दस घटा के 24 पर ले आएंगे, ये सब गोलमोल करते रहते हैं और धमाकों का क्या है, आज यहां बम फूटा है कल वहां फूटेगा। आप बस तैयार हो जाइये हम आ रहे हैं।
हां बस थोड़ी देर में चलते हैं ये ख़बर देख लें ज़रा।
अरे अब आप भी। पहले साल दो साल में धमाके होते थे तो ज़रा हम भी देख लेते थे, अब तो रोज़-रोज़ बम फोड़े जा रहे हैं, अब किसके पास टाइम है सारा वक़्त टीवी से चिपके रहने का। या फिर ये सोचने का कि कहीं हम मारे जाते तो। जब मरेंगे तब मरेंगे।
हां अब देखिये बम एक जगह फूट रहा है अफवाहें सौ जगह आ रही हैं।
तभी तो कह रिये हैं, बम-शम फटना तो अब रोज की बात हो गई है।
हां चलिए हम निकलते हैं, आप बस हमारी वाली चाय तैयार रखिएगा।
ये हुई न बात।
25 September 2008
धिक्कार है
" दिल्ली पुलिस का एक जाबांज़ इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा आतंकवादियों से लड़ते हुए चार गोलियां सीने पर खाकर शहीद हुए। मिला क्या ? पांच लाख रुपये।
युवराज ने छे छक्के मारे तो एक करोड़ मिला
बीजिंग में जीते खिलाड़ियों ने भी लाखों नहीं बल्कि करोड़ से ज्यादा कमाए
(बिंद्रा-4 करोड़ से ज्यादा, सुशील दो करोड़ से ज्यादा, विजेंद्र को लाखों रुपये इनाम मिले, साइना को क्वालीफाई करने पर ही 25 लाख रूपये इनाम मिले)
डेंगू से बीमार बेटे को छोड़ कर ड्यूटी पर शहीद हो जाए तो सिर्फ 5 लाख
(सुधार: 5लाख रुपये उत्तराखंड सरकार ने और दिल्ली सरकार ने 11लाख रुपये दिए(इसमें उनकी ग्रेच्युटी वगैरा शामिल है))
धिक्कार है "
20 September 2008
थोड़ा सा प्लास्टर ऑफ पेरिस और वो मुस्कान

तब जेब में पॉकेटमनी के पैसे ही हुआ करते थे। डेढ़ या दौ सौ रूपये का लैंपशेड रहा होगा। मैंने उसे बहुत ग़ौर से देखा और न खरीदने का फैसलाकर घर वापस आ गई। पर बहुत देर तक वो लैंपशेड मेरे अंदर खलबली मचाता रहा। उसे खरीदने के बारे में नहीं सोच रही थी पर बहुत बेचैनी हो रही थी। घर से पैसे मांगने का सवाल ही नहीं उठता था। खरीदने का ख्याल बार-बार दिमाग़ से झटक दे रही थी, पॉकेटमनी का एक बड़ा हिस्सा खर्च करना पड़ता, तब पॉकेटमनी बहुत कीमती हुआ करती थी।
पर आखिरकार मन के आगे झुक ही गई। थोड़ी देर बाद स्कूटर उठाया, बहन को साथ लेकर उसी दुकान पर पहुंच गई। लैंपशेड लिया और ड्राइंग रूम के एक कोने में उसके लिए जगह बना दी। कुछ दिनों तक बार-बार जाकर उसे झांक भी आती। धूल का कतरा भी होता तो झट साफ करती। फिर धीरे-धीरे उससे ध्यान हटता गया। औरत की उस सुंदर मूर्ति पर धूल का कतरा क्या एक पूरी मोटी परत चढ़ गई थी। मन शायद उससे भर गया था। कई बार कुछ सेकेंड्स के लिए दिमाग कुलबुलाता भी था, इसे लेने के लिए मैं कितनी उतावली थी और अब कभी ध्यान ही नहीं जाता। उसे लेने का उतावलापन-बेचैनी और छोड़ देने की बेरुख़ी दोनों मुझे हमेशा अजीब लगते रहे, कई बार।
इस बार लखनऊ गई थी तो उस लैंपशेड का शेड उखड़ चुका था। पर प्रसन्न मुस्कान के साथ औरत की मूर्ति सलामत थी। उसकी पुरानी जगह भी छिन चुकी थी। उसे बाहर वेस्टेज वाले कोने में डाल दिया गया था। एक बार को मन किया कि उसे अपने साथ ले आऊं पर लाई नहीं। वो पुराना ख्याल फिर आया। औरत की मूर्ति वाले लैंपशेड को लाने की बेचैनी और फिर बेखयाली। अब भी प्लास्टर ऑफ पेरिस पर गढ़ा गया वो चेहरा, उस पर उकेरी गई मुस्कान मेरे ज़ेहन में समायी हुई है, अजीब भाव के साथ।
15 September 2008
लेटर फ्रॉम दि प्रिसाइडिंग एंजेल
स्वर्ग से प्रध्रान फरिश्ता एक कोयला व्यापारी को पत्र लिखता है- हम सार्वजनिक प्रार्थना, जैसे चर्च की, को कम नंबर देते हैं। अधिक नंबर देते हैं मन की गुप्त प्रार्थना को। तुमने चर्च में प्रार्थना की प्रभु, सब लोग सुखी हों पर घर पर तुमने मन से प्रार्थना की, कि प्रभु मेरे प्रतिद्वंदी कोयला व्यापारी का जहाज़ आ रहा है। तू तूफान उठा दे जिससे वो डूब जाए। तुम्हें सूचित किया जाता है कि तूफान अभी स्टॉक में नहीं है। फिर भी हम किसी तरह उसका कुछ नुकसान करेंगे।
तुमने चर्च की प्रार्थना में तो कहा कि प्रभु सब मनुष्य सुखी हों। पर घर में मन में कहा- मेरा यह पड़ोसी दुष्ट है। मुझे तंग करता है, इसे मौत दे दें। तुम्हें सूचित किया जाता है कि मौत सबसे बड़ी सज़ा है। वो उसे नहीं दी जा सकती। तुम्हारे संतोष के लिए हम उसे निमोनिया देते हैं।
(हरिशंकर परसाई की किताब आवारा भीड़ के खतरे से ये टुकड़ा उठाया है। अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन के इस व्यंग का उन्होंने ज़िक्र किया। ऑफिस की एक घटना में इस टुकड़े की याद हो आई थी।)
चले जा रहे हैं...चले जा रहे हैं


हम (यानी भारतीय) संख्या में इतने ज्यादा है, हर चीज बांट-बांटकर खानी ही पड़ती है। रोटी भी, दुख भी, दर्द भी, ख़ुशी भी और वक़्त भी। अगर किसी सरकारी दफ्तर या बैंक जैसी जगह जाते हैं तो हम एक लंबी कतार में घंटों खड़े रहते हैं, इंतज़ार करते हैं, करना पड़ता है (इसमें बिना कतार के घुस जानेवाले और कोई चक्कर चलाकर अंदर ही अंदर काम करा लेनेवालों की बड़ी संख्या को घटाना भी है)। च्च्च...च्च्चचचचचच। हर कोई बेचारा महसूस करता है, पर एक अरब से ज्यादा आबादी वाले देश में ये कोई समस्या नहीं, आम बात है, हमारी आदत है। बस स्टैंड पर भीड़, सड़क पर भीड़, peack hour में तो भीड़ ही भीड़। सड़क पर रेंगती चलती गाड़ियां, एक दूसरे को हॉर्न बजाकर परेशान करते ड्राइवर, भीड़ को कोसते, जबकि वो खुद भीड़ का हिस्सा ही तो हैं। हमें डॉक्टर के पास जाना हो तो बीमारों की लंबी कतार, घंटों इंतज़ार, घर में ही डिसप्रिन-विसप्रिन खाकर हर बीमारी को टाले जाने की हद तक टालते हैं। शनिवार-रविवार हमसब मॉल में जाते हैं, शॉपिंग करें न करें मस्ती खूब होती है और मॉल ठसाठस भरा हुआ। वहां भी कतार में लगकर एंट्री होती है। खरीदारी करने से ज्यादा वक़्त बिल चुकाने के लिए कतार में लगकर जाया होता है। अगर कहीं ऑफर-सॉफर मिल रहा तो बैंड बज गया बीड़ू। फिर तो लोग टूट पड़ेंगे, जाने कहां छिपे रहते थे, अचानक इतने ज्यादा लोग दिखने लगते हैं। इसका मतलब ये नहीं कि हम सिर्फ मॉल में ही जाते हैं, हम सोम-मंगल बाज़ार में भी ऐसे ही टहलते हैं, धक्कमधुक्की करते हुए। अब गलती से कहीं जाना पड़ गया तो दो-तीन घंटे तो हम बस के इंतज़ार में भीड़ को बनाते हैं, कई बसों को छोड़ना होता है किसी बस में बड़ी मुश्किल से दो सीट मिल पाती है, और एक ठंडी आह!!!! ट्रेन में तो दो-तीन महीने पहले रिजर्वेशन करा लो तभी ठीक है बाकि प्लेटफॉर्म पर तो भिड़ना-भिड़ाना होगा ही। प्लेन में उड़ने वालों की संख्या भी कम नहीं। हम किसी बड़े रेस्तरां में जाते हैं और वेटर को आवाज़ लगाते रह जाते हैं, गुस्साते हैं, सौंफ चबाते हैं। हमारे चलने के लिए ज़मीन कम पड़ गई है, रहने के लिए घर। बहुमंज़िला इमारतें खड़ी होती जा रही हैं, एक-एक कमरे का फ्लैट लाखों में बिक रहा है, तीन कमरे वाले फ्लैट तो

07 September 2008

30 August 2008
दो दोस्त भी न मिले ज़फ़र हैप्पी बड्डे कहने के लिए

काश किसी ने उन्हें हैप्पी बड्डे कह दिया होता, भई जनम वाले दिन में कुछ तो ख़ास बात होती है। ये जानते हुए की उम्र का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है ज़ेहन में हफ्तेभर पहले से ही सुरसुरी सी चालू हो जाती है। पुराने जन्मदिन, पुरानी पार्टियां, पुराने दोस्त, पुराने तोहफ़े, पुराने किस्से सब याद आने लगते हैं और जन्मदिन से उम्मीदें भी बढ़ जाती हैं। लेकिन अब वो पहलेवाली बात कहां रही। फोन टनटनाता है तो लगता है जरूर किसी ने बधाई देने के लिए फोन किया है। अब दुनिया में आए हैं तो बधाइयां तो लेनी पड़ेगी। धत् तेरे की। कॉल तो जाने कौन सी क्रेडिट कार्ड कंपनी की ओर से थी।। हलो, हमने आपका नाम सलेक्ट किया है, हमारा क्रेडिट कार्ड लीजिए, बदले में ये मिलेगा-वो मिलेगा....। बड़ी भारी आवाज़ में न कहते हुए फोन कट किया और भारी हो चले मन को समझ का टॉनिक पिलाकर हलका करने की कोशिश की। फिर मोबाइल का मैसेज बॉक्स चेक किया। क्या पता किसी का एसएमएस आया हो और पता न चला हो, एक भी विश नहीं। मोबाइल फेंक दिया। अब इस उमर में जन्मदिन की बधाई भला कौन देता और फिर बधाइयों की उम्मीद ही क्यूं। खुद को न समझाएं तो करें क्या। थोड़ी देर बाद फिर मोबाइल घनघनाया। उम्मीदों को किनारे सरकाते हुए फिर हाथ बढ़े फोन की ओर, होगा किसी ऐरे-गैरे का फोन। हलो! मां, हां, थैंक्यू, अब इस उमर में क्या जन्मदिन मनाना, हां-हां केक खरीदकर खा लूंगा, अच्छा-अच्छा सेलीब्रेट भी कर लूंगा, हां चला जाऊंगा अकेले ही कहीं घूमने, तुम भी मेरी तरफ से लड्डू खा लेना, हां मां ठीक है, चलो रखता हूं फोन। एक मां ही तो थी जो दुख-सुख का ख्याल रखती थी। फ्रिज खोलकर कल के रखे स्वीटकॉर्न का डोंगा उठाया और खाली पेट को भरने की कवायद शुरू, टीवी भी ऑन ही था, पर देखा कुछ नहीं जा रहा था। इतनी मायूसी छाई थी। दो-चार फोन ऑफिस से आए। मगर किसी ने जन्मदिन की बधाई न दी। किसी को मालूम ही न था। मन कर रहा था चीख-चीख कर बता दूं आज जन्मदिन है मेरा, मुझे बधाई दो, happy b'day तो कहो। मन उलटपुलट कर रह गया, पुराने तोहफो को याद करने लगा, दो साल पहलेवाले जन्मदिन पर बारिश में की गई लॉन्ग ड्राइव की याद आई। वो भी क्या दिन थे। उस एक दिन ही तो पूरी आज़ादी मिलती थी घर में। चाहे कुछ करो, कोई रोकने-टोकनेवाला नहीं, यार-दोस्तों के ठहाके और....। पुरानी यादों को खींच कर दिमाग़ से फेंकने की कोशिश और तकिये में सिर घुसा कर नींद का आह्वान। पर नींद भी कैसे आती। फिर घंटी बजी। फोन की नहीं दरवाजे की। फूलों का गुलदस्ता आया था। हैप्पी बर्थडे लिखा हुआ था। मेरे लिए था। रो पड़नेवाली मुस्कान आई। ये तो वाकई मेरे लिए ही आया है। किसने भेजा है। कार्ड पर नाम नहीं लिखा। किसका होगा। दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगे, कौन-कौन-कौन। फिर बुके में लगे व्हाइट ग्लैडोलियस को रेशमी नज़रों से देखा। आह!
06 August 2008
28 July 2008
अगर कहीं मैं तोता होता
तोता होता तो क्या होता ?
तोता होता।
होता तो फिर ?
होता 'फिर' क्या?
होता क्या?
मैं तोता होता।
तोता तोता तोता तोता
तो तो तो तो ता ता ता ता
बोल पट्ठे सीता राम
(रघुवीर सहाय की एक कविता...एक पहेली)
27 July 2008
तस्वीरें कहती हैं, शब्दों से कुछ ज़्यादा

26 July 2008
गृहणी, अन्नपूर्णा,घरवाली...
सब्ज़ी में नमक कम पड़ जाने पर जो खुद को माफ नहीं कर पाती, जब तक कि एक स्वादिष्ट सब्ज़ी नमक की उस याद को भुला दे, जो दिन भर अपने पति का इंतज़ार करती है, जो तय समय पर कभी नहीं आता, जिनका दिन अपने बच्चे को स्कूल भेजने और उसका होमवर्क पूरा कराने में गुज़रता है, जो देशहित के बड़े मुद्दों पर बात नहीं करती, घर की छोटी-छोटी समस्याओं की टेंशन में जीती हैं, हमारे समाज में, हमारे देश के विकास चक्र में, हमारी अर्थव्यवस्था में, उनका उतना ही योगदान है, जितना उनका जो इस दिशा में बहस, बातें और काम करते हैं, या महसूस करते हैं कि वो ऐसा कुछ कर रहे हैं, या फिर वाकई ऐसा कुछ कर रहे हों। उन तमाम लोगों, ख़ासतौर पर उन तमाम महिलाओं को उनके हिस्से का सम्मान नहीं मिल पाता। जबकि उनका काम बहुत मुशिक्ल होता है। जिसमें उनकी पूरी ज़िंदगी खर्च हो जाती है।
24 July 2008
तो ये क्या कुछ कम है
ऊंचाई तो बहुत दूर है
अगर कोशिश कर
समतल को ही पा लें
तो ये क्या कुछ कम है
सागर मंथन में विष-अमृत
क्या कुछ नहीं निकला
हम भी आत्ममंथन कर लें
मन के सागर के
अमृत को पा लें
अपने ज़हर को पी लें
तो ये क्या कुछ कम है
बहती नदियां,बहती हवा
पर्वत डटा हुआ
न बहें हम, न सही
न डटें हम न सही
औंधे लेटे हुए हैं
सीधा खड़ा होकर
गीत मधुर कोई गा लें
तो ये क्या कुछ कम है
19 July 2008
...54 साल बाद
18 July 2008
17 July 2008
प्रजातंत्र
(रवींद्रनाथ त्यागी की रचना)
14 July 2008
13 July 2008
हमारी आज़ादी, तुम्हारी ज़ंजीरें
हां शुरु-शुरू में वो फड़फड़ाती जरूर है। मदद के लिए कोई नहीं आता। जो आता है वो दुनियारी का रट्टू पाठ पढ़ाता है। ऐसा ही होता है, वैसा ही होता है, फिर फड़फड़ाहट भी कम होने लगती है। ज़िंदगी मशीन सरीखी होने लगती है। हर सुबह एक जैसी, हर दोपहर उनींदी, हर शाम उम्मीदें जगाती, हर रात उन उम्मीदों को दफ्न करती, वो मर चुकी होती है, ज़िंदा होने की सोई तमन्ना के साथ। हां वक़्त के साथ ये स्थिति बदली है। ज़ंजीर कुछ बड़ी हुई है, लेकिन टूटी नहीं। लड़की की ज़िंदगी एक जुआ होती है, दांव लग गया तो लग गया, नहीं तो गए काम से।
05 July 2008
03 July 2008
दो कविताएं, डायरी से
वो चोट मेरी अपनी होगी
उंगलियां पकड़-पकड़ चलने से
मेरा वज़ूद टूटता है
कदम गिर-गिरकर
फिर उठेंगे, फिर चलेंगे
और
मेरी वो राह अपनी होगी
मुझे ले लेने दो
मेरे हिस्से का दर्द
साथ निभाओ तो
साथी बनकर
जीवन मेरा
मैं जियूं जी भरकर
वो ज़िंदगी
मेरी अपनी होगी
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बहेलिया
रात की कराह पर बांवरा बहेलिया
ले चला सूर्य को हांकता बहेलिया
सरिता की धार पर प्यासा बहेलिया
ग़ुम गए किनारों को ढूंढ़ता बहेलिया
मंदिरों की बाड़ी पर घूमता बहेलिया
देख रहा भूख को नाचता बहेलिया
बंगलों की दहलीज़ पर फिरकता बहेलिया
रोटियों के दर्द को पुचकारता बहेलिया
धुंध के छलावों पर लौटता बहेलिया
ले चला नींद को दुलारता बहेलिया
26 June 2008
एक बिहारी, एक राजस्थानी में कुछ और...
कुछ और... इसलिए क्योंकि कुछ टिप्पणियों में बिहारवाद पर नाराजगी ज़ाहिर की गई थी। इसे मेरी सफाई और क़िस्सागोई की क्षमता की कमी भी मान सकते हैं। वो लेख मेरे एक राजस्थानी मित्र का अनुभव था। जिसे ब्लॉग में बताने का मक़सद बिहार और बिहारियों के साथ भेदभाव को बताना था। यूपी का होते हुए बिहार मेरे ज्यादा नज़दीक है। राजस्थानी से ज्यादा बिहारी मित्र हैं मेरे। जब किसी को बिहारी कहकर संबोधित किया जाता है तो वो मुझे ज्यादा अप्रिय लगता है। बिहार के आईएएस को दिल्ली का एक बस कंडक्टर भी बिहारी बोलकर ख़ारिज कर देता है। ऐसे मुद्दों पर कई बार मेरी बहस हो जाती है। पर मेरे लेखन से किसी को ठेस पहुंची हो तो सॉरी है भाई।
आपके घर में कोई जेंट्स है?
उसने सेल्समैन से पूछा तुम्हारे घर में फैसले कौन लेता है- पापा या मम्मी। वो थोड़ा शरमा गया। बोला- वैसे तो घर में चलती मम्मी की ही है लेकिन आखिर में तो पापा ही फैसला करते हैं। फिर उसने इस छोटी-गंभीर-मजेदार वार्ता को खत्म कर दिया और मशीन के डेमो के लिए वक़्त मांगने लगा। लड़की ने भी उसे अपने ज़रा से खाली समय में से सबसे ज्यादा खाली रहनेवाला समय दे दिया और पूछा- इस वाटरप्यूरी फायर की कीमत कितनी है। वो बोला छत्तीस सौ रुपये। लड़की बोली- वैसे मैं ये खरीदूंगी नहीं। वो हंसा और बोला-आप कुछ अजीब हैं।
25 June 2008
एक राजस्थानी, एक बिहारी
24 June 2008
महात्मा गांधी हाज़िर हों
23 June 2008
कितना पानी- इतना पानी
डेरा जमा लिया है तो उन्हें रूठने न दें। कई बार लगता है कि ऐसी बातों को लिखने से क्या फर्क़ पड़ता है। पर क्या पता कहीं कुछ फर्क़ पड़ता हो।
22 June 2008
01 June 2008
बचाओ-'सारस'
29 May 2008
सबसे बड़ा बोर्ड,पिछड़ा बोर्ड, यूपी बोर्ड
12 May 2008
बातें
19 April 2008
बचाओ-"तितली"

10 April 2008
एक मौत
25 March 2008
बचाओ...बाघ...
24 March 2008
'बचाओ-घड़ियाल'
घड़ियाल
धरती पर बचे-खुचे घड़ियालों का सबसे बड़ा बसेरा है चंबल नदी। नवंबर 2007 के आखिरी हफ़्ते में घड़ियालों के शव मिलने शुरू हुए, जिन्हें पहले वन विभाग ने चोरी-छिपे दफ़्न कर दिया था, यानी इनकी मौत का सिलसिला कुछ महीने पहले ही शुरू हो चुका था। हम कारणों की पड़ताल करते रहे, घड़ियाल एक-एक कर मरते रहे। धरती पर इस दुर्लभ प्राणी की संख्या इतनी कम है कि एक-एक घड़ियाल कीमती है। घड़ियाल का होना साफ पानी का सूचक है, घड़ियाल साफ पानी में ही पाया जाता है। लेकिन चंबल का पानी यमुना से मिलकर घड़ियालों के लिए ज़हर बन रहा है, अब तक का निष्कर्ष यही है। रिपोर्ट्स कहती हैं कि पिछले दस साल में 58 फीसदी घड़ियाल घट गए हैं। ये बड़ी चिंता का विषय है। घड़ियाल को उस रेड लिस्ट में शुमार किया गया है जो खतरे में आ चुकी स्पीशीज़ की जानकारी देता है। अब तक सौ से ज्यादा घड़ियालों की मौत की पुष्टि हो चुकी है और प्रजनन योग्य घड़ियालों की संख्या (भारत, नेपाल में मिलाकर) महज 182 आंकी गई है। तो क्या हम धरती से स्वच्छ पानी में विचरण करने वाले इस दुर्लभ जीव की विदाई के लिए तैयार हैं।
10 March 2008
06 March 2008
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मधुमक्खी जो बनाती है शहद
प्यार करती है फूलों को
मछली है जो तैरती है
प्यार करती है पानी को
पंछी जो गाता है
प्यार करता है आकाश को
इंसान जो जीना चाहता है
हे मेरे बच्चे
उसे जरूर करना चाहिए
अपने साथी लोगों
और अपने भाइयों से प्यार
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एक तारा आकाश को
जगमग नहीं कर सकता
एक ढेरी पके चावल
पूरी फसल नहीं बना सकते
एक आदमी हर हाल में
दुनिया नहीं है
एक बुझते अंगार से
ज्यादा नहीं है
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पहाड़ पृथ्वी पर बना है
अगर ये धरती की दीनता को ठुकरा दे
कहां बैठेगा ये
गहरा समुद्र पी जाता है
हर नदी-सोता
अगर ये ठुकरा दे
छोटे नदी-सोतों को
वहां पानी नहीं बचेगा
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बूढ़ा बांस प्यार करता है
कोपल को
कोमलता से दिनोंदिन
जब तुम सयाने हो बड़े ज्यादा पिता से
तुम लोगे गोल धरती अपनी बाहों में