19 April 2008

डायरी की धूल झाड़कर बीते दिनों की एक और कविता.....
हर रोज शाम ढलती
दिन से पूछती
तू कल आएगा न
हर रोज दिन ढलता
शाम से कहता
मैं कल आऊंगा फिर
हर रोज गगन देख
मन कहता
चल उड़ चलें कहीं
और दिमाग़ बोलता
थोड़ी देर ठहर
ये अंजानी डगर
जी ले
और मन घुमड़ता
ये दिमाग़ क्यों है?

बचाओ-"तितली"


धरती की कल्पना कीजिए जब तितलियां नहीं रहेंगी। शायद ये अकल्पनीय हैं। क्योंकि कल्पना करना तो हम तितलियों से ही सीखते हैं। हम धरती से रंग भी चुरा रहे हैं। जो तितलियों के रूप में हमारे सामने हैं। अपने ख़ूबसूरत चटकीले पंखों के साथ फूलों के ईर्द-गिर्द मंडराती तितली कभी-कभार दिखती है तो उस क्षण में हमारा मन भी ख़ूबसूरत हो जाता है। मैंने ऐसा महसूस किया है। लेकिन अब तितली इतनी कम दिखती है कि इसे तितली का न दिखना ही कहेंगे। शहरों में तितलियों के लिए कोई जगह नहीं बची। धरती से अपने पंखों को, रंगों को, सुंदर कल्पनाओं को, समेट कर तितलियां चुपचाप विदाई ले रही हैं। तितलियां भी लुप्त हो रही हैं। केरल के अंदरूनी, दूरदराज इलाकों और पूर्वोत्तर राज्यों के कई क्षेत्रों में एक समय तितलियों की करीब 2,000 प्रजातियां थी और आज इनमें लगभग 400 प्रजातियां साज-सज्जा के अंतर्राष्ट्रीय कारोबार में खत्म हो चुकी हैं। कीटनाशकों का बढ़ता इस्तेमाल भी तितलियों के लुप्त होने की एक वजह है। साज-सज्जा के लिए तितलियों का शिकार किया जाता है। इन्हें मार कर सुखा दिया जाता है। जबकि हमारे देश में इस पर प्रतिबंध भी है। थाईलैंड इस कारोबार का केंद्र है। एक तितली के लिए पांच-पांच सौ रूपये तक में बिक जाती है। तितलियों के शिकार पर एक फिल्म भी बनी है, ‘वन्स देअर वाज़ अ पर्पल बटरफ्लाई’ । धरती के जंगल-बुक से तितलियों का पन्ना भी खाली हो जाए। इससे पहले इन्हें 'बचाओ'।









10 April 2008

एक मौत


एक मौत
क्या-क्या बदल सकती है
कुछ भी नहीं, सिवाय
उस ज़िंदगी के जो खत्म हो गई
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एक मौत
क्या-क्या बदल देती है
कुछ भी नहीं, सिवाय
उस परिवार के जो अधूरा हो गया
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एक मौत
क्या-क्या बदल गई
कुछ भी नहीं, सिवाय
उस दोस्तीचक्र के जो अब पूरा न हो पाएगा
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एक मौत
जो कुछ भी नहीं
जिसका होना ही उसके न होने में हो
वो आज बता गई मुझे
कि जो चला गया वो मेरा ही एक अंश था
आज बता गई मुझे कि
हम बातों के सिवाय कुछ नहीं कर सकते
यानि 'मैं', 'तुम' और 'हम'
कुछ नहीं, कुछ है तो बस
उस मोड़ पर खड़ी,
किसी का इंतज़ार करती हुई
एक मौत
(मौत पर लिखी गई ये कविता मेरे पति के छोटे भाई धर्मवीर डोबरियाल की है, जिसकी आज से ठीक एक महीना पहले गाड़ी खाई में गिरने से मौत हो गई, उसकी एक प्रिय किताब चंद्रकांता संतति के पन्ने पलटते वक़्त ये कविता मिली, ये कविता 10 अगस्त 2004 को देर रात 12.35 पर लिखी गई थी, तब वो 27 साल का था)