28 December 2009

'गर्ल्स जस्ट वाना हैव फन'

मोटरसाइकिल पर नाकामयाबी की पूरी दास्तान

दिल्ली और नोएडा को जोड़ता डीएनडी फ्लाईओवर। इंसान की तरक्की के स‌पनों के फ्लाईओवर स‌रीखा। जहां गाड़ियों की रफ्तार हवा स‌े चंद कदम ही पीछे हो, आसमान से टकटकी बांध देखते तारों को खंभे पर टंगे स‌ीएफएल टक्कर देने की कोशिश करते हों, स्मार्ट स‌ड़क कंक्रीट के जंगल को दूर धकेलती हुई स‌रपट भागती हो, कुछ डर और पूरे रोमांच के स‌ाथ बाइक पर स‌वार होकर, पैरों स‌े गेयर बदलकर मुझे हमारी बनाई हुई दुनिया ऎसी ही ख़ूबसूरत दिखाई दे रही थी। फर्राटे स‌े बाइक चलाना मेरी खुद को लेकर बुनी खूबसूरत कल्पनाओं में स‌े एक थी।

60 की स्पीड पार करते ही मैंने खुद स‌े पूछा - क्या ये मैं ही हूं। 70 की स्पीड पार कर खुद पर स‌े यकीन उठ गया- मैं ऎसा भी कर स‌कती हूं। पीछे रफ़्तार स‌े आती गाड़ियां और उनके हॉर्न की आवाज़ मुझे डरा रही थी लेकिन ज़िंदगी पूरे मज़े उठा रही थी।



पॉन्डिचेरी शहर स‌े अरविंदो आश्रम जाते हुए मुझमें पूरी शर्मिंदगी का भाव था। क्या यार...मैं आत्मविश्वास के स‌ाथ बाइक भी नहीं चला स‌कती। स‌ड़क अपने किनारों के बीच सिकुड़ी हुई स‌ी थी, रास्ता बेहद स‌ुंदर। एक अंग्रेजन को शानदार ढंग स‌े बाइक चलाते हुए देखा। दिल बाग-बाग हो गया। मैंने भी बाइक पर पीछे बैठने के बजाय ड्राइविंग स‌ीट पर बैठने का फोर्स एक्सेप्ट कर लिया, पर आत्मविश्वास की स‌ख्त कमी थी।

मुझे बाइक चलानी तो आ गई थी लेकिन बाइक चलाने का आत्मविश्वास नहीं जुटा पायी थी। डर लगता है। बाइक की पॉवर अपनी पॉवर स‌े ज्यादा लगती है। पर ऎसा हो तो फिर फाइटर प्लेन उड़ानेवालों की पॉवर का क्या। क्या करूं स‌ारी पेचिदगियां स‌मझकर भी दिल है कि मानता नहीं।

लड़कियों को बाइक चलाता देखना अच्छा लगता है। हालांकि मेरी जरूरत दूसरे वाहन पूरा कर देते हैं, जिन्हें चलाने में मुझे डर नहीं लगता। चूंकि लड़कियों का बाइक चलाना हमारे यहां इतनी आम बात नहीं है और जब आप पर दूसरों की हतप्रभ निगाहें गिरती हैं तो खुदपर जो गुरूर आता है उसकी तो बात ही क्या।

सोचा था बाइक पर अपनी नाकामयाबी की दास्तां कम स‌े कम शब्दों में लिखूंगी, पर शब्द हैं कि मानते नहीं। बाइक चलाना मेरे लिये तो मज़ा है, रोमांच है, लड़कियां और क्या चाहती हैं।
girls just wanna have fun.

साइकिल और स्कूटर के बाद बाइक की स‌वारी को मैंने इसी गाने के स‌ाथ पेश करने का स‌ोचा। अपने ज़माने में बहुत मशहूर हुआ था। Robert Hazard ने 1979 में इसे रिकॉर्ड किया था। जिन्होंने इसे पुरुषवादी स‌ोच के स‌ाथ लिखा था। लेकिन ये बंपर हिट हुआ जब Cyndi Lauper ने इसे गाया, गाने के बोल में बहुत कुछ एक परिवर्तन किये, हैजर्ड ने इसकी अनुमति दे दी थी और फिर ये जुमला लड़कियों की आज़ादी का स्लोगन बन गया।

सुनना हो तो you tube के लिंक पर जायें
http://www.youtube.com/watch?v=x0cJnVeiMrw

18 December 2009

girls just want to have fun

स्कूटर के छोटे पहियों पर आज़ादी की ऊंची उड़ान



वो भी क्या दिन थे। हालांकि हर वक़्त, हर उम्र का, अपना मज़ा होता है, पर फिर भी स्कूटर के पहियों पर सवार होकर मानो मेरे पंख उग आए हों, ज़िंदगी की उड़ान भरने का वो सफ़र अब तक के अपने जीवन में मुझे सबसे ज्यादा रसीला लगता है। हवा का चोखा स्वाद, सचमुच चोखी ज़िंदगी।


मुझसे पहले मेरी छोटी बहन को वाहन मिल गया था। उसके पास स्कूटी थी। मैं मम्मी-पापा से अपने लिये इतना बड़ा गिफ्ट मांगने में संकोच करती रह गयी। मेरी बहन मुझ जैसी नहीं थी। पहले उसकी गाड़ी पर सवारी की (यार हम स्कूटर, स्कूटी को भी गाड़ी ही कहते थे, गाड़ी का मतलब सिर्फ चार पहिया वाहन हमारे मुताबिक नहीं होता था, लखनऊ की बात कर रहे हैं)।



उससे भी पहले गाड़ी का स्वाद लगा था सहेलियों के साथ। ग्रेजुएशन के थर्ड इयर के साथ ही कम्प्यूटर सीखना चालू किया था। कम्प्यूटर तो कम सीखा, दोस्ती-यारी-घुमक्कड़ी ज्यादा सीखी और वो ज़िंदगी की कमाई थी, कम्प्यूटर से ज्यादा काम आई।



दो दोस्तें थी हमारी। एक का नाम नहीं लिख रही, उसके पास मोपेड थी। पहले उसी की सवारी की। वो ड्राइव करती, उसके पीछे मैं और मेरे पीछे तूलिका। हमारी ड्राइवर तो हट्टी-कट्टी थी लेकिन उसकी सुकड़ी मोपेड पर हम दो सुकड़ी लकड़ियां (तब, अब नहीं) एडजस्ट कर लेतीं और जहां से हमारी सवारी गुजरती, हमारे कहकहे गूंजते, लोगों की निगाहें घूमती।



आज़ादी का स्वाद ज़ुबान पर लग चुका था। अब खुद की गाड़ी की जरूरत महसूस होने लगी थी। पहले तूलिका ने स्कूटी खरीदी। रॉयल ब्लू कलर। मेरे पास दो विकल्प हो गये, पर पीछे बैठने के। उसकी सनी पर भी हमने सड़कों की खूब खाक छानी। बेवजह टहले, पेट्रोल फूंका, ज़िंदगी जी।



उसके बाद मेरी छोटी बहन जी को स्कूटी मिली, जिसे मैंने भी खूब चलाया। लेकिन कसर तब पूरी हुई जब मेरे पास मेरा मिनी स्कूटर आ गया। गेयर वाला (बड़ी बात लगी थी तब)। एलएमएल पल्स। उसे चलाने में पहले तो बड़ी मुश्किल आई। एक बार को लगा नहीं चला पाउंगी और आंसू बहाए। फिर हिम्मत जुटाई, भाई और पापा ने सिखाने में मदद की और जब गेयर्स के साथ हथेलियों की सेटिंग हो गई, ब्रेक ने मेरे पांवों के दबाव को चुपचाप स्वीकार कर लेना सीख लिया, तो अब लगाम मेरे हाथ में थी।



मैं और तूलिका तो शहर के एक छोर पर रहते थे, हमारी दूसरी सहेली दूसरे छोर पर। और हम बस ड्राइव करने के लिये अपने यहां से उसके घर निकल पड़ते थे। ज़िंदगी जैसे पिकनिक का दूसरा नाम हो गई थी। जाड़ों की ठंडी शाम जब ढल जाती, हम घर के लिये निकलते और घर के रास्ते में पड़नेवाली एक कोल्ड ड्रिंक शॉप पर रुकते। वहां फ्रूट बियर पीते। थी तो वो कोल्ड ड्रिंक ही लेकिन उसके साथ जुड़ा बियर शब्द उसके स्वाद को लज़ीज़ और नशीला बना देता। तब अपन के लिये यही बहुत था। फिर दांत किटकिटाते और ठंडी भाप उगलते हुए हम एक दूसरे से विदा लेते और अपने घर की ओर बढ़ लेते।
(बहुत से लोगों को हमारी ये आज़ादी पसंद न आई थी, न आई है, न आएगी)


सिर्फ बाहर की सहेलियां ही नहीं मोहल्ले की लड़कियां और अपनी कज़िन सिस्टर को भी हमने ज़िंदगी का ये स्वाद चखाया था, जो रुढ़िवादी परिवारों में पल रही लड़कियों के लिये सचमुच मायने रखता था। हर बात पर रोकटोक झेलनेवाले, हर काम के लिये पापा-भाई का मुंह देखनेवाले, हर जरूरत के लिये दूसरों की बाट जोहनेवाली लड़कियों के लिये ये आज़ादी मायने रखती थी।

मैं कहूंगी, मानो चिड़िया के अंडों से निकले चूजे अब उड़ना सीख रहे थे, उनके छोटे-छोटे पर उगते दीख रहे थे, पहले डाली-डाली और फिर पेड़ों पर फुदकते-फुदकते एक दिन वो आसमान में गोता लगाना सीख लेते हैं। हम भी उसी दौर से गुजर रहे थे।



अब कॉलेज का कोई फॉर्म भरना हो, किसी कॉम्पटीशन के लिये अप्लाई करना हो तो भाई की गुजारिश नहीं करनी पड़ती। हम खुद जाते। ये हमारे लिये तो बड़ा परिवर्तन था। फिर दिमाग़ में भविष्य की कुलबुलाहट भी जन्म लेने लगी थी। आगे क्या करेंगे। करियर। नौकरी। मैं तो घर की चारदीवारी के अंदर क़ैद ज़िंदगी जीने के लिये बिलकुल भी तैयार नहीं थी। आनेवाली ज़िंदगी की मेरी सारी सुबहें-शामें रसोई में पकता देखना मेरे लिये मौत के दंड जैसा लगता। तो ये तय था कुछ करना है। ये वही वक़्त था जब मेरे घरवालों ने मेरी शादी की बातें छेड़नी शुरू कर दी थीं, हालांकि उनके लिये भी अभी ये बाते हीं थी।



तभी मैंने अपने लिये पत्रकारिता की पढ़ाई चुनी, जो उस वक़्त, मेरे आसपास के लोगों के लिये नई बात थी।
घरवालों का नज़रिया भी हम दोनों बहनों के प्रति बदलने लगा था। पहले लड़कियों को चाय बनाने का ऑर्डर ही दिया जाता था अब प्लंबर बुलाने, हार्डवेयर की दुकान पर जाकर सामान लाने सरीखे और भी काम कहे जाने लगे थे। अच्छा लगता था। हमारे अंदर आये परिवर्तन ने, घरवालों के माइंडसेट को भी बदला था।

मम्मी अब डॉक्टर के पास जाने के लिये भाई को नहीं बोलती, हमारे पीछे पड़तीं। पापा अपनी दवाइयां लाने के लिये भाई को नहीं बोलते, हमें बोलते। इन सबका श्रेय जाता है उस एक किक को, जो अपने स्कूटर पर मार हम फर्र उड़ जाते। स्कूटर-स्कूटी से हमें सचमुच आज़ादी मिली।



ज़िंदगी की पिकनिक खत्म होने लगी थी। नौकरी हासिल करने की मुश्किल भरी चुनौती सामने थी। मैं पहले यूनिवर्सिटी जाती फिर एक टुच्ची सी जगह पर दो-तीन घंटे की नौकरी पर। पैसे तो नहीं मिलते, अनुभव जरूर हासिल होता। नौकरी के लिये भी अपने स्कूटर पर सवार होकर इधर-उधर के खूब धक्के खाये। इंटरव्यू दिये।

दरअसल मेरे हिसाब से ड्राइविंग से आपके पास विकल्प तो बढ़ते ही हैं, मानसिक दृढ़ता भी बढ़ती है, सड़क पर दौड़ती गाड़ियों को ओवरटेक करने के साथ आप ज़िंदगी को ओवरटेक करना भी सीखते हैं। आगे बढ़ना सीखते हैं। मुश्किलों से जूझना सीखते हैं।

मैं अपने मां-बाप को छोड़कर शायद ही कभी-कहीं हफ्ते-दो-हफ्ते रही होऊं। अब मैंने तय किया था कि दिल्ली जाऊंगी, मैंने एक टीवी चैनल में इंटर्नशिप करने का मौका जुगाड़ा था। तब तक लखनऊ से बाहर की दुनिया देखी भी नहीं थी। जब ट्रेन की खिड़की से दिखते रात के अंधेरे को सूरज की किरणें धो रही थीं और उजली सुबह में मुझे दिल्ली की चौड़ी सड़कें और लंबे फ्लाइओवर दिख रहे थे, मैं डर गई। जो दिल्ली मेरे सपनों में बसती थी उसने पहले-पहल मुझे डरा दिया। लगा ये तो कोई भव्य शहर है, न्यूयॉर्क,पेरिस जैसा। मेरी उम्मीद से ठीक उलट, मेरे ज़ेहन में तो दिल्ली लखनऊ का ही एक बड़ा संस्करण होना था। बड़ा किलोमीटर के स्केल पर। दिल्ली में अपनी शुरुआत भी भयावह हुई। अपने डर पर काबू पाने की कोशिश करते-करते मेरे हालात बदले। करियर बनने लगा था, ज़िंदगी भी।

इस निर्माण की शुरुआत मेरे स्कूटर के साथ ही हुई थी। स्कूटर चलाते हुए मेरी पीठ पर उगे अदृश्य पंखों ने उड़ना सिखाया था।
राह में आनेवाली मुश्किलों से निपटने के लिये ब्रेक,क्लच,गेयर का इस्तेमाल करना सिखाया था।

14 December 2009

लाल परी और खुली हवा का पहला एहसास

उसका नाम मैंने यही रखा था। आज़ादी का शायद पहला एहसास इस लाल परी के साथ ही हुआ था और खुद के बड़े होने का भी। आठवीं में थी मैं, जब मेरे पास मेरी अपनी साइकिल आयी। लाल रंग की। पसंद था उसका ये रंग मुझे। मेरी एक फ्रेंड के पास खाकी रंग की साइकिल थी और दूसरी के पास नीले रंग की पुरानी साइकिल। मेरी नई चमचमाती साइकिल मुझे उन दोनों की साइकिल से ज्यादा पसंद थी, हालांकि पहले उनकी साइकिल देख मैं सोचती थी काश मेरे पास भी एक होती।

उस साइकिल को खरीदने में मैंने भी सौ रुपये का योगदान दिया था अपनी पॉकेटमनी से पैसे बचाकर और रिश्तेदारों से विदाई के वक़्त मिले पैसे सहेजकर। उन दिनों मम्मी स्कूल जाते वक़्त रोज़ एक रुपये देती थी, उन दिनों ये पॉकेटमनी कम बिलकुल नहीं थी। उस एक रुपये में हम आलू टिक्की खा सकते थे और बर्फ वाली औरेंज आइसक्रीम भी। शायद पचास पैसे में आलू टिक्की मिलती थी, आइसक्रीम भी इतने की ही। महंगाई के दौर में उन सस्ती आइसक्रीमों-आलू टिक्कियों की कीमत भी ठीक से याद नहीं रही। लिखते हुए लग रहा है जैसे मैं 1935 में पैदा हुई हूं, लेकिन ये बात 1989-90 के दौरान की है। लो मेरी उम्र का भी अंदाज़ा लग गया होगा। उस साइकिल के साथ चंद पर अनमोल यादें जुड़ी हुई हैं और एक दुर्घटना भी।

पहले अच्छी बातें।

किसी और की साइकिल से सीखने के दौरान ही मैंने सैर कर रही एक मोटी महिला को पीछे से ठोक दिया था। बचाते-बचाते भी मेरी साइकिल की हैंडल उसकी कमर पर जा लगी। वो साड़ी पहने थी और पीछे से उसकी थुलथुली पीठ दिख रही थी, बस मेरी हैंडल वहीं जा टकरायी। उस छोटी दुर्घटना के साथ उस महिला की थुलथुली पीठ भी मेरी यादों में बस गई। अह। मैं पूरी तरह नहीं गिरी, लड़खड़ाते हुए खुद को और अपनी साइकिल को संभाल लिया था।

अपने भाई की साइकिल पर भी मैंने कैंची चलाना सीखने की कोशिश की लेकिन वो एक असफल प्रयास था और मुझे किसी को कैंची चलाते देख मज़ा भी नहीं आता था। जब साइकिल है, उस पर सीट है, तो बैठने के बजाय टेढ़े होकर पैडल मारने का क्या मतलब भला।

खैर मेरी साइकिल में दिलचस्पी की बात मेरे प्यारे पिताजी को पता चल गई थी और उन्होंने मेरा दिल नहीं तोड़ा। आठवीं क्लास में रहते हुए मेरे पास मेरी दो निजी संपत्ति थी। एक तो घड़ी और दूसरी मेरी नई साइकिल। स्कूल से निकलते हुए बच्चों की कतार के बाद साइकिलवालों की जो कतार लगती थी, उसमें खड़ी होने पर मुझे गर्व का एहसास होता, फिर स्कूल की कुछ ही लड़कियां साइकिल से आतीं, तो छोटी कतार में शामिल होकर मेरा गर्व भी महान हो जाता था। वाह।

स्कूल से लौटते समय हम आपस में होड़ लगाते, कई बार पीछे से आ रहे किसी पेट्रोलवाले वाहन को रास्ता भी नहीं देते, हमारी साइकिलें हमसे ज्यादा इठलाती हुई सड़क पर फिरतीं और ये एहसास सबसे ज्यादा सुखद था। शायद इसी को मैं कहना चाहती हूं ये खुली हवा को महसूस करने और जीने का एहसास था, उसकी महक अब भी दिमाग की कोशिकाओं से निकलकर ज़ेहन में ताज़ा हो उठती है क्योंकि शायद खुली हवा को महसूस कर पाने का, वही पहला एहसास था।

साइकिल के नौसिखियेपन के दिन की एक और मज़ेदार घटना याद है। मज़ेदार अब, तब नहीं। मैं एक छोटे से चौराहे से निकल रही थी कि ये स्कूटर वाला पीछे से आया, मेरी साइकिल का स्टैंड उसके स्कूटर में फंस गया, करीब साठ-सत्तर डिग्री के कोण पर और मेरी साइकिल उसके स्कूटर के साथ घिसट पड़ी, बस कुछ ही कदम मान लो, पर मैं बुरी तरह डर गई थी। सचमुच।

पर ये तो कुछ भी नहीं था। आगे जो होनेवाला था वो इससे भी डरावना था।

अच्छी बातों के बाद
अब मुझे साइकिल चलानी अच्छी तरह से आ गई थी इसलिये मैं थोड़ी स्मार्टनेस भी दिखाने लगी थी। स्कूल से लौटकर मोहल्ले में दाखिल होते समय ढलान थी। मेरे आगे एक ट्रैक्टर जा रहा था, ईंट से लदा हुआ। उसकी धीमी रफ्तार ने मुझे ओवरटेक करने पर मजबूर कर दिया। ट्रैक्टर को पीछे छोड़ निकलते समय सिर्फ इतना पता चला कि एक लड़का बहुत तेज़ रफ्तार में साइकिल चलाता हुआ आया, शायद मेरी साइकिल से टकराया और ढलान की वजह से मैं आगे की ओर गिरी, ठीक-ठीक कुछ भी याद नहीं और खुद को ट्रैक्टर के यमराज इंजन के नीचे पाया। दरअसल क्या हुआ होगा, नहीं पता। सड़क के एक ओर ऊंची दीवार थी, ट्रैक्टरवाले ने मुझे बचाने के लिये सूझबूझ दिखाते हुए स्टेयरिंग दीवार की ओर मोड़ दी थी। होश संभलने और दिमाग़ के पटरी पर लौटने पर देखा वहां दीवार का एक हिस्सा ढह गया था। वो लड़का अपनी साइकिल समेत भाग गया था। ट्रैक्टर का इंजन ख़ासा ऊंचा होता है, मेरी जैसी मरियल छोकरी दोनों के गैप के बीच आसानी से समा गयी थी। सामाजिक प्राणी होने का परिचय देते हुए कुछ लोग मुझे ट्रैक्टर के इंजन के नीचे से घसीट कर बाहर निकाल रहे थे, मेरी साइकिल कई जगह से टेढ़ी-मेढ़ी हो चुकी थी, बैग से मेरा स्टील का खूबसूरत डबल डेकर टिफिन बाहर निकल आया था और बुरी तरह पिचक गया था। मौका-ए-वारदात के दूसरी तरफ डॉक्टरों की एक कॉलोनी थी। कुछ लोग आवाज़ देकर अपनी बॉलकनी पर टंगे एक डॉक्टर को नीचे बुला रहे थे, लेकिन उसने आने से मना कर दिया, इतने ख़ौफ़, दर्द, दहशत, आंसू के बाद भी मैं ये समझ पा रही थी कि वो एक्सीडेंट-वेक्सीडेंट के झमेले में नहीं पड़ना चाहा था। मुझ पर से मिट्टी-सिट्टी झाड़कर, ज़ख्म पर डिटॉल का डोज़ देकर, लोगों ने मेरा पता पूछा, मैंने घर का रास्ता बता दिया और रिक्शे पर लादकर मुझे घर पहुंचाया गया, मेरे साथ मेरी साइकिल को भी। घर पहुंचते ही मेरे इमोशन फूट पड़े और मैंने रोना चालू किया, उससे पहले मैं सिर्फ कराह रही थी। मैं अस्पताल ले जायी गई। यहां की एक अच्छी अनुभूति ये थी कि मेरे भाई ने मुझे अपने हाथों में उठाया और वॉर्ड के अंदर ले गया। हालांकि तब मैं बहुत दुबली थी, फिर भी मुझे लग रहा था कि उसने मुझे कैसे उठाया होगा।

इसके बाद लाल परी के साथ स्कूल जाना नसीब नहीं हुआ। मैंने अपनी साइकिल पर पैडल तो मारे लेकिन उल्लेखनीय कुछ भी नहीं।

इस पूरी घटना का सबसे खराब पहलू ये था कि इतनी बड़ी और भीषण दुर्घटना से गुजरने के बाद भी मुझे कुछ नहीं हुआ। न पैर में कोई फ्रैक्चर आया, न हाथों में लंबी पट्टी बंधी, न सर पर बैंडेज सजा। सिर्फ सड़क पर गिरने की वजह से छिलने के थोड़े घाव थे। सोचिये कि लोगबाग मेरे एक्सीडेंट की ख़बर सुन मुझसे मिलने आते और मुझे चलता-फिरता देख कितने मायूस होते, बेचारे अपनी सहानुभूति जताने के लिये बटोरे गये शब्दों का भी सही इस्तेमाल नहीं कर पाते।

उनसे ज्यादा मायूस तो मैं थी। एक्सीडेंट भी हुआ, ठीक से घायल भी न हुई, देखने आनेवालों को भी निराश किया और तो और शर्म का एक कारण ये भी था कि एक्सीडेंट भी हुआ तो ट्रैक्टर से, कोई वड्डी गाड़ी होती, कार होती, ट्रक होता, मगर ट्रैक्टर.....। हाय-हाय।

हां लेकिन एक बात तो शानदार हुई थी। मैं अपने मोहल्ले में मशहूर हो गई थी। वो लड़की जिसे ट्रैक्टर के नीचे आने के बाद भी कुछ न हुआ, बस चंद खरोंचे आयीं।