
दीदी को लंबा करो। दीदी को मोटा करो। दीदी को गोरा करो। अरे कोई है जो दीदी की बात सुन रहा है। एक कंपनी है। जो दीदी की बात सुन रही है। छे-सात साल का बच्चा पूरी रेलयात्रा के दौरान मेरे पीछे वाली सीट पर ऐसे ही उधम मचाता रहा। अपनी दीदी के बारे में ऐसे ही मज़ेदार फिकरे कसते हुए फिक्र करता रहा। उससे साल-दो साल बड़ी दीदी किसी तरह गुस्से को पीती रही। वो उसका पीछा छोड़ने को तैयार नहीं था और दीदी किसी भी तरह उसे दूर धकेल देना चाहती थी। पूरे सफ़र के दौरान दोनों के बीच विश्वयुद्ध होता रहा। ज्यादातर बाज़ियां दीदी के ही नाम रहीं। बड़ी भी थी और छुटके को मां-बाप की डांट ज्यादा पड़ती होगी। हालांकि मां-बाप बच्चों के इस विश्वयुद्ध पर ध्यान नहीं दे रहे थे। लेकिन मेरे बगल में बैठी महिला कोफ्त खा रही थी। उफ्फफ, ओहहहहो, कैसे बच्चे हैं....। मैं तो बीच-बीच में नींद के टुकड़े बटोर ले रही थी। लेकिन बच्चों के नटखट शोर में उसे नींद नहीं आ पा रही थी। तभी बच्चों की टीम की ओर से अखबार का एक बंडल खटाक हमारी तरफ आकर गिरा और मेरी गर्दन पर कराटे चॉप की तरह पड़ा। उस वक़्त मुझे गुस्सा आया। मैंने पलटकर देखा तो सब शांत हो गए। फिर हंगामा चालू। वैसे मुझे उनकी बातें और झगड़े दोनों अच्छे लग रहे थे। गुस्सा चला गया। लेकिन बगल की सीटवाली महिला को ट्रेन से उतरने के बाद ही तसल्ली मिली। इस बीच दोनों बच्चों के बीच का विश्वयुद्ध इतना बढ़ गया कि माता जी को हस्तक्षेप करना ही पड़ा। छोटे मियां ज़ोर-ज़ोर से रो रहे थे, मम्मी पूछ रही थी झगड़े की शुरूआत किसने की। थोड़ी देर के लिए ख़ामोशी आई और फिर हंगामा चालू। दीदी के गाल में कुछ काला है। दीदी को लंबा करो, दीदी को.....
{चित्र गूगल से साभार}
12 comments:
आप काफी गैप बीच में दे दे कर भेजतीं हैं . वैसे अच्छा ध्यनाकर्षण किया आपने . धन्यवाद .
अच्छा लगा पढ़कर।
बहुत सटीक लिखा आपने ! धन्यवाद
बहुत रोचक।
रोचक एवं दिलचस्प लेखन!!
आख़िर में दीदी ही जीती. :)
रोचक एवं दिलचस्प लेखन!!
आप काफी गैप बीच में दे दे कर भेजतीं हैं, gandi baat :)
धन्यवाद.
पहली बार आपके ब्लाग पर आया। अच्छा चित्रण किया आपने बाल हठ का।
तश्तरी ने परोसा-रोचक और दिलचस्प, अगले ने दोहराया। ताऊ ने कहा-बहुत सटीक। मैं संगीता पुरी को दोहराता हूं
वर्षा जी, आपने वर्ड वेरिफिकेशन हटाने का जो सुझाव दिया है, उसके संबंध में अगर जानकारी दे सकें कि यह कैसे हटेगा तो आभारी रहूंगा।
-सुधीर राघव
पुरुष की प्रभुत्ववादी मानसिकता की बुनियाद निश्चित तौर पर बचपन में ही पड़ जाती है। बहुत हद तक मां-बाप भी इसे गंभीरता से न लेकर अनजाने में इसे बढ़ावा ही देते हैं।
वर्षा जी, आपने बहुत अच्छा लिखा है।
इसी तरह अभी मेरे बच्चे आपस में हर बात पर हंगामा मचाते हैं. किसी भी बात पर एक नेगेटिव बोलेगा तो दूसरे को पॉजीटिव दिखेगा. मस्ती दिन भर चलती है. यही तो बचपन की यादें हैं जो याद रहती हैं...
बहुत अच्छा लिखा है आपने.
आपको पढ़ना अच्छा लगता है,वर्षा जी.
Post a Comment