27 February 2010

कहां गये तारे वो

स्स्स्सालालाला
ये तो बड़ा गजब होइगा
मैं कहती हूं
आसमान में अब नहीं दिखते
उतने तारे, उतने चमकीले
तोड़कर टांग दिये गये हों जैसे
गगनचुंबी इमारतों की खिड़कियों में
रात ढले
और सड़क पर चुपचाप खड़े खंभों पर भी
मुंह चिढ़ाते निहत्थे आसमान को
लेकिन बड़ा बेशर्म है फिर भी
चांद तो
हमें मुंह चिढ़ाता दिख ही जाता है
और बड़ा सा कुछ
देखो तो बदतमीज को
मैं गैलरी में पेट पिचकाने के प्रयास में
टहल रही थी
ताकि सोसाइटी से निष्कासित न कर दी जाऊं
फिगर फैक्टर का बड़ा प्रेशर है
उधर, मुंह बिचकाता चांद भी
जैसे टहल रहा हो साथ मेरे
12वीं मंज़िल पर

26 February 2010

ग़ालिब छुटी शराब अभी पढ़कर छोड़ी है। रवींद्र कालिया साहब ने संस्मरण लिखा है। किताब के आखिर में उनकी पत्नी ममता कालिया के एक पत्र का ज़िक्र है, जो ममता कालिया जी को लिखा गया था, उपेंद्रनाथ अश्क साहब ने लिखा, जब ममता जी ने शादी की सालगिरह भूल जाने पर तूफान बरपाया था। पत्र मज़ेदार है, डर भी लगा, खुद के गिरेबां में भी लगे हाथ झांक लिया। उन्होंने लिखा था:


प्रिय ममता,

....
...पत्नियों की ये आम आदत होती है कि वे कभी भला नहीं सोचतीं। मैं कभी घर से बाहर नहीं जाता, पर यदि कभी चला जाऊं और मुझे कहीं दे र हो जाए तो मेरी पत्नी सदा यही सोचेगी, कि मैं किसी ट्रक या मोटर के नीचे आ गया हूं। वो कभी कोई अच्छी बात नहीं सोचेगी, इस मामले में तुम भिन्न नहीं हो, हालांकि तुम बहुत पढ़ी-लिखी हो और कहानीकार हो और तुम्हें केवल अपनी तकलीफ की बात सोचने के बदले अपने पति की तकलीफ की बात भी सोचनी चाहिए। जो आदमी दिन-रात खट रहा हो, उसकी पत्नी यदि कोई ऐसी वाहियात बात लिख दे तो उसे कितनी तकलीफ पहुंचेगी, ये भी सोचना चाहिए।


मै स्वयं जालंधर का रहनेवाला हूं और वहां के लोग प्राय व्यर्थ का औपचारिक पत्र-व्यहवार नहीं करते। पत्र न आये तो समझो सब ठीक है। औपचारिक पत्र आने लगें तो संदेह करना चाहिए कि कहीं कुछ गड़बड़ है।

दूसरी बात ये है कि शादी के दिन की याद पत्नियां रखती हैं, पति नहीं रखा करते। उन्हें उस दिन की याद दिलाते रहना चाहिए, पर बदले में वे भी याद दिलायें, ऐसी आशा नहीं रखनी चाहिए। यदि वे भी याद दिलाने लगें तो समझना चाहिए कि कहीं घपला है। नॉर्मल स्थिति नहीं है।

ज़रा-ज़रा सी बात पर अपने अहं को स्टेक पर नहीं लगाना चाहिए। हम दो-तीन दिन में तुम्हें फोन करने की सोच रहे थे। नंबर होता तो अब तक तुम्हें यहां की सारी गतिविधि का पता मिल चुका होता।
....
मेरी किसी बात का बुरा न मानना। अपनी बच्ची समझकर मैंने ये चंद पंक्तियां लिख दी हैं.

सस्नेह
उपेंद्रनाथ अश्क


(पत्र के कुछ अंश काट दिये, जो मैं पढ़वाना चाहती थी, उसका उन अंश से कोई ताल्लुक नहीं था, पत्र का जवाब महिलाएं अपनी स्थितिनुसार दे सकती हैं)

21 February 2010

काहे को पकड़ना वहशत का रंग

कई बार किसी गाने का कोई ट्रैक दिमाग में अटक जाता है और ज़ुबान पर चढ़ जाता है। वो "मेरी भैंस को डंडा क्यों मारा भी हो सकता है" "पिया तू अब तो आ जा" टाइप्स भी। पता चलता है दो-दो दिन तक दिमाग़ उसी ट्रैक को बजाता रहता है,बार-बार फटकारते हुए भी आप उसे गुनगुनाने को विवश हो जाते हैं। कोई नई धुन पकड़ने की कोशिश भी नाकामयाब हो जाती है। दिमाग को साफ करनेवाला हेड-क्लीनर अभी ईजाद नहीं किया गया शायद। स्प्रे किया, अंदर से एक मैसेज आये अपनी नाक पकड़कर पहले बायें कान की ओर घुमायें फिर दायें कान की ओर, लीजिये आपका दिमाग हो गया साफ।
बॉलीवुड का कोई धांसू गीत(चाहे कितना सड़ेला ही क्यों न हो) तो नहीं, जनाब ग़ालिब साहब का ये शेर भेजे में अटका हुआ है.....


इश्क ने पकड़ा न था ग़ालिब वहशत का अभी रंग
दिल में रह गई जो ज़ौक-ए-ख्वारी हाय-हाय

14 February 2010


वेलेन्टाइन डे के सुअवसर पर टाइम्स ऑफ इंडिया में एक आर्टिकल है 'सकर्स फॉर रोमांस?' (अंग्रेजी में लिखने में कुछ दिक्कत आ रही है) औरतों के लिये। उसे पढ़कर मैंने भी मन ही मन एनलाइज किया। स्स्स्सालालाला...प्यार-रोमांस-इश्क-मुश्क ऐसी चीजें हैं जो सचमुच अच्छे-खासे इंसान को बीमार बना देते हैं।
औरतों के कमज़ोर होने की बड़ी वजहों में से एक ये रोमांटिसिज्म भी है। प्यार का एक लम्हा जो शायद दिनों, हफ्तों, महीनों, साल में एक-आध बार आता होगा उसके लिये औरतें(लड़कियां इसमें शामिल हैं) कितने दिन, हफ्ते,महीने कुर्बान कर देती हैं। क्योंकि वो एहसास उन्हें सबसे ज्यादा प्यारा है और उस "सबसे ज्यादा को हासिल करने के लिये" वो अपने कितने ही "कल-ज्यादा" एहसास, वक़्त, सेल्फ रिसपेक्ट और तमाम किस्म के मानसिक तनाव को सहती हैं। जो औरत उस रोमांटिसिजम को जितना ज्यादा जीती है वो उतनी ही ज्यादा कमज़ोर होती है।

मेरे हिसाब से ज्यादातर औरतें निगोड़े मोहब्बत के बिना जी ही नहीं पातीं (हालांकि प्यार करना बहुत मुश्किल काम होता है)। अब पता नहीं वो जो करती हैं वो प्यार ही होता है(इन सब बातों में मैं भी शामिल हूं)।

जो इसके चक्कर में कम पड़ती है वो ज्यादा सुखी रहती है। पर औरतों के कुछ स्पेशल हार्मोन्स कमबख्त प्यार-व्यार के लिये उन्हें उकसाते ही रहते हैं। कभी-कभी उन हार्मोन्स पर बहुत गुस्सा आता है( इंजेक्शन से खींच कर उन्हें बाहर निकाल फेंको)।

इसका दूसरा पहलू ये भी है कि जिन औरतों के पास उनका अपना पक्का फिक्स्ड डिपॉजिट जैसा ब्वायफ्रेंड या पति होता है वो बहुत संतुष्ट रहती हैं।
लिखते-लिखते ये भी ख्याल आ रहा ह कि लड़कियों के पास फिसलने के विकल्प लड़कों की तुलना में कम होते हैं, दूसरे सूरते-हालात भी लड़कियों की अपेक्षा लड़कों के पक्ष में ज्यादा होते हैं, इसलिये इनसिक्योरिटी का लेवल लड़कियों में ज्यादा हावी रहता है, यही उनकी व्यक्तित्व की सबसे बड़ी कमज़ोरी भी बन जाती है।
वो जिस ऊर्जा को दूसरे कई अपेक्षाकृत बेहतर कार्यों में खर्च कर सकती थीं, वो रोमांस के बॉन्ड में भर देती हैं। एलआईसी की जीवन बीमा पॉलिसी की तरह। हर महीने पैसे देते रहो, कुछ सालों के अंतराल पर थोड़ा राहत भरा एक छोटा सा अमाउंट मिल जाता है और पूरे पैसे वसूलने के लिये आपको ढेर होना पड़ेगा।
हां बॉलीवुडी फिल्मों ने भी लड़कियों को बर्बाद करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा। नब्बे फीसदी फिल्में तो इश्क-मुश्क पर ही बनती हैं क्योंकि मोहब्बत सबसे ज्यादा बिकता है। तो इसका एक मतलब ये भी कि देवानंद, राजेश खन्ना से लेकर सलमान,शाहरूख़ तक भी लड़कियों को बिगाड़ने के लिये ज़िम्मेदार हैं।
पर ये प्रेम कहानियां हमें इतनी पसंद क्यों आती हैं?

मैंने पिछले वेलेंटाइन डे पर प्यार के कुछ बेहतरीन उद्धरणों को एकत्र किया था। इस बार गुलाब नहीं मिला न इसलिये इतना भेजा सड़ा डाला।

11 February 2010


कैमरे का एंगल बदल इस चित्र को और खूबसूरत बनाया जा सकता था, पर बात तो यही कहनी थी, हाथ तो यूं ही थामना था, प्यार तो यही रहना था।

04 February 2010

घर
काटने को दौड़ता है
जब हम रहते हैं
सिर्फ घर में






*
घर
बहुत याद आता है
जब हम थक जाते हैं
दुनियावी भागदौड़ में
*
घर
छोड़ने का जी चाहता है
जब छिड़ी रहती है जंग
आपस में
*
घर
भूल जाता है कभी
यार-दोस्तों की गप्पों में

बीवी फोन कर बुलाती है
पति को
आ जाओ अब
घर में

बीवी रोज जिद करती है
पति से
दूर चलते हैं कहीं
घर से
*
घर
दीवारें काटने को दौड़ती हैं
जब मुंह छिपाकर
दुबकते हैं घर में
*
घर
जब हम जीत कर आते हैं
रोज़ाना के जंग
मीठा सा लगता है घर
*
घर
इंतज़ार करता है कभी हमारा
कभी हम इंतज़ार करते हैं
घर का