30 April 2009

वह तोड़ती पत्थर


इस कविता को पोस्ट करने के लिए जो भूमिका पहले मैंने सोची थी वो ये कि मज़दूर दिवस है आज, धोती पहने, अंगोछा डाले, महिलाएं फटी पुरानी साड़ी पहने, मैले-कुचैले से दिखते लोग जिन्हें हम मज़दूर कहते हैं, उनकी नुमाइंदगी करता ये दिन। नहीं, मज़दूर तो हम भी हैं, प्राइवेट कंपनियों में दिन-रात मेहनत करते, अच्छे से धुली, प्रेस की हुई कमीज़ पहनकर, सजे-धजे पुरुष-महिलाएं मानसिक श्रम करनेवाले, मज़दूर तो ये भी हैं। एक अपना शारीरिक श्रम बेचता है, मैला-कुचैला दिखता है, दूसरा अपना मानसिक श्रम बेचता है, दिमाग़ उसका मैला-कुचैला हो जाता है।
लेकिन इस भूमिका को मेरे दिमाग़ ने ये कहकर ख़ारिज कर दिया कि दोनों की तुलना का मतलब ग़रीब मज़दूरों के साथ नाइंसाफ़ी होगी।
तो अब कोई और भूमिका नहीं सोच रही। निराला जी की ये मुझे लगता है हम सबने पढ़ी होगी। हमारे तो स्कूल की किताब में भी थी और ये बार-बार पढ़ी जानेवाली कविता है।


वह तोड़ती पत्थर,
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-

वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत तन,
गुरू हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार-
सामने तरु-मलिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्राय:हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा तो मुझे एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-

"मैं तोड़ती पत्थर।"

16 April 2009

तेरे वादे पे जिए हम, ये तू जान भूल जाना

तेरे वादे पे जिए हम, ये तू जान भूल जाना

शेर तो जनाब मिर्जा ग़ालिब का है। सभी जानते हैं और जो लिखने जा रही हूं वो परसाई साहब की पोटली में से है। चुनाव की बहार है, हरिशंकर परसाई की "आवारा भीड़ के खतरे" किताब के एक चैप्टर पर नज़र चली गई। उससे कुछ लाइनें उधार ले पोस्ट कर रही हूं। पढ़नेवाले को पैसा वसूल की गारंटी। परसाई साहब हैं भई।

शेर फिर से नोश फरमाएं...

तेरे वादे पे जिए हम, ये तू जान भूल जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर एतबार होता


मेरी जान, तू ये समझती है कि तेरे वादे की आशा पर हम जीते रहे तो ये गलत है। अगर तेरे वादे पर हमें भरोसा होता तो ख़ुशी से मर जाते।
आम भारतीय जो ग़रीबी में, ग़रीबी की रेखा पर, ग़रीबी की रेखा के नीचे है, वह इसलिए जी रहा है कि उसे विभिन्न रंगों की सरकारों के वादों पर भरोसा नहीं है। भरोसा हो जाय तो वह ख़ुशी से मर जाए। ये आदमी अविश्वास, निराशा और साथ ही जिजीविषा खाकर जीता है। आधी सदी का अभ्यास हो गया है इसलिए- "दर्द का हद से गुजर जाना है दवा हो जाना।"
उसके भले की हर घोषणा पर, कार्यक्रम पर वह खिन्न होकर कहता है- ऐसा तो ये कहते ही रहते हैं। होता-वोता कुछ नहीं। इतने सालों से देख रहे हैं। और फिर जीने लगता है।

इसी लेख में कुछ पैरा आगे का एक अंश

ये आदमी संसद भवन देखता है। विधानसभा भवन देखता है। आलीशान बंगले देखता है। बढ़िया कारें देखता है। इसमें उसकी इतनी ही हिस्सेदारी है कि उसने मत दे दिया। इसके बाद उसकी कोई हिस्सेदारी नहीं रही। वह सिर्फ देखता है। जब प्रिंस ऑफ वेल्स दिल्ली आए थे, तब दरबार भरा था। बढ़िया कपड़े पहने राजा, नवाब। हीरे जवाहर से दमकते हुए। बड़े-बड़े अफसर। बड़े-बड़े सेनापति तमगे लगाए। राजभक्त लोग रायबहादुर, राय साहब, खान बहादुर। फानूस रोशनी बिखेरते। अकबर इलाहाबादी ने लंबी नज्म में ये सब लिखा है। अंत में लिखा है-

सागर उनका साकी उनका
आंखें अपनी बाकी उनका

05 April 2009

एक कतरा ज़िंदगी
कभी आंसू
कभी हंसी
*

कोशिश
उठे, चले, बढ़े
खोया, खोया, पाया
रुकते-रुकते पहुंचे
वो रही
मंज़िल
*

कल तुम हंसते थे
मैं हंसती थी
तुम रोते थे
मैं रोती थी
हम थे साथ-साथ
अब भी हम हंसते-रोते हैं
अब हम अलग-अलग
*

दो में दो जोड़ कर चार बना लिया
कभी-कभी पांच भी
दो में से दो घटाकर शून्य बना लिया
कभी-कभी एक भी
वो हिसाब हमारा था
मम्मी-पापा के दिये पैसों में हेरफेर कर लेने का
अब हमारा अपना-अपना बटुआ है
अब हिसाब पक्का है
दो और दो सिर्फ चार होते हैं, पांच नहीं
*

तुम सिर्फ ख़ुश होना चाहती हो
तुम दुखी रहती हो
तुम सिर्फ हंसाना चाहती हो
तुम रोती रहती हो
तुम सब अच्छा-अच्छा चाहती हो
तुम्हें सब बुरा-बुरा लगता है
तुम बदलो
चीजें बदलेंगी