28 December 2009

'गर्ल्स जस्ट वाना हैव फन'

मोटरसाइकिल पर नाकामयाबी की पूरी दास्तान

दिल्ली और नोएडा को जोड़ता डीएनडी फ्लाईओवर। इंसान की तरक्की के स‌पनों के फ्लाईओवर स‌रीखा। जहां गाड़ियों की रफ्तार हवा स‌े चंद कदम ही पीछे हो, आसमान से टकटकी बांध देखते तारों को खंभे पर टंगे स‌ीएफएल टक्कर देने की कोशिश करते हों, स्मार्ट स‌ड़क कंक्रीट के जंगल को दूर धकेलती हुई स‌रपट भागती हो, कुछ डर और पूरे रोमांच के स‌ाथ बाइक पर स‌वार होकर, पैरों स‌े गेयर बदलकर मुझे हमारी बनाई हुई दुनिया ऎसी ही ख़ूबसूरत दिखाई दे रही थी। फर्राटे स‌े बाइक चलाना मेरी खुद को लेकर बुनी खूबसूरत कल्पनाओं में स‌े एक थी।

60 की स्पीड पार करते ही मैंने खुद स‌े पूछा - क्या ये मैं ही हूं। 70 की स्पीड पार कर खुद पर स‌े यकीन उठ गया- मैं ऎसा भी कर स‌कती हूं। पीछे रफ़्तार स‌े आती गाड़ियां और उनके हॉर्न की आवाज़ मुझे डरा रही थी लेकिन ज़िंदगी पूरे मज़े उठा रही थी।



पॉन्डिचेरी शहर स‌े अरविंदो आश्रम जाते हुए मुझमें पूरी शर्मिंदगी का भाव था। क्या यार...मैं आत्मविश्वास के स‌ाथ बाइक भी नहीं चला स‌कती। स‌ड़क अपने किनारों के बीच सिकुड़ी हुई स‌ी थी, रास्ता बेहद स‌ुंदर। एक अंग्रेजन को शानदार ढंग स‌े बाइक चलाते हुए देखा। दिल बाग-बाग हो गया। मैंने भी बाइक पर पीछे बैठने के बजाय ड्राइविंग स‌ीट पर बैठने का फोर्स एक्सेप्ट कर लिया, पर आत्मविश्वास की स‌ख्त कमी थी।

मुझे बाइक चलानी तो आ गई थी लेकिन बाइक चलाने का आत्मविश्वास नहीं जुटा पायी थी। डर लगता है। बाइक की पॉवर अपनी पॉवर स‌े ज्यादा लगती है। पर ऎसा हो तो फिर फाइटर प्लेन उड़ानेवालों की पॉवर का क्या। क्या करूं स‌ारी पेचिदगियां स‌मझकर भी दिल है कि मानता नहीं।

लड़कियों को बाइक चलाता देखना अच्छा लगता है। हालांकि मेरी जरूरत दूसरे वाहन पूरा कर देते हैं, जिन्हें चलाने में मुझे डर नहीं लगता। चूंकि लड़कियों का बाइक चलाना हमारे यहां इतनी आम बात नहीं है और जब आप पर दूसरों की हतप्रभ निगाहें गिरती हैं तो खुदपर जो गुरूर आता है उसकी तो बात ही क्या।

सोचा था बाइक पर अपनी नाकामयाबी की दास्तां कम स‌े कम शब्दों में लिखूंगी, पर शब्द हैं कि मानते नहीं। बाइक चलाना मेरे लिये तो मज़ा है, रोमांच है, लड़कियां और क्या चाहती हैं।
girls just wanna have fun.

साइकिल और स्कूटर के बाद बाइक की स‌वारी को मैंने इसी गाने के स‌ाथ पेश करने का स‌ोचा। अपने ज़माने में बहुत मशहूर हुआ था। Robert Hazard ने 1979 में इसे रिकॉर्ड किया था। जिन्होंने इसे पुरुषवादी स‌ोच के स‌ाथ लिखा था। लेकिन ये बंपर हिट हुआ जब Cyndi Lauper ने इसे गाया, गाने के बोल में बहुत कुछ एक परिवर्तन किये, हैजर्ड ने इसकी अनुमति दे दी थी और फिर ये जुमला लड़कियों की आज़ादी का स्लोगन बन गया।

सुनना हो तो you tube के लिंक पर जायें
http://www.youtube.com/watch?v=x0cJnVeiMrw

18 December 2009

girls just want to have fun

स्कूटर के छोटे पहियों पर आज़ादी की ऊंची उड़ान



वो भी क्या दिन थे। हालांकि हर वक़्त, हर उम्र का, अपना मज़ा होता है, पर फिर भी स्कूटर के पहियों पर सवार होकर मानो मेरे पंख उग आए हों, ज़िंदगी की उड़ान भरने का वो सफ़र अब तक के अपने जीवन में मुझे सबसे ज्यादा रसीला लगता है। हवा का चोखा स्वाद, सचमुच चोखी ज़िंदगी।


मुझसे पहले मेरी छोटी बहन को वाहन मिल गया था। उसके पास स्कूटी थी। मैं मम्मी-पापा से अपने लिये इतना बड़ा गिफ्ट मांगने में संकोच करती रह गयी। मेरी बहन मुझ जैसी नहीं थी। पहले उसकी गाड़ी पर सवारी की (यार हम स्कूटर, स्कूटी को भी गाड़ी ही कहते थे, गाड़ी का मतलब सिर्फ चार पहिया वाहन हमारे मुताबिक नहीं होता था, लखनऊ की बात कर रहे हैं)।



उससे भी पहले गाड़ी का स्वाद लगा था सहेलियों के साथ। ग्रेजुएशन के थर्ड इयर के साथ ही कम्प्यूटर सीखना चालू किया था। कम्प्यूटर तो कम सीखा, दोस्ती-यारी-घुमक्कड़ी ज्यादा सीखी और वो ज़िंदगी की कमाई थी, कम्प्यूटर से ज्यादा काम आई।



दो दोस्तें थी हमारी। एक का नाम नहीं लिख रही, उसके पास मोपेड थी। पहले उसी की सवारी की। वो ड्राइव करती, उसके पीछे मैं और मेरे पीछे तूलिका। हमारी ड्राइवर तो हट्टी-कट्टी थी लेकिन उसकी सुकड़ी मोपेड पर हम दो सुकड़ी लकड़ियां (तब, अब नहीं) एडजस्ट कर लेतीं और जहां से हमारी सवारी गुजरती, हमारे कहकहे गूंजते, लोगों की निगाहें घूमती।



आज़ादी का स्वाद ज़ुबान पर लग चुका था। अब खुद की गाड़ी की जरूरत महसूस होने लगी थी। पहले तूलिका ने स्कूटी खरीदी। रॉयल ब्लू कलर। मेरे पास दो विकल्प हो गये, पर पीछे बैठने के। उसकी सनी पर भी हमने सड़कों की खूब खाक छानी। बेवजह टहले, पेट्रोल फूंका, ज़िंदगी जी।



उसके बाद मेरी छोटी बहन जी को स्कूटी मिली, जिसे मैंने भी खूब चलाया। लेकिन कसर तब पूरी हुई जब मेरे पास मेरा मिनी स्कूटर आ गया। गेयर वाला (बड़ी बात लगी थी तब)। एलएमएल पल्स। उसे चलाने में पहले तो बड़ी मुश्किल आई। एक बार को लगा नहीं चला पाउंगी और आंसू बहाए। फिर हिम्मत जुटाई, भाई और पापा ने सिखाने में मदद की और जब गेयर्स के साथ हथेलियों की सेटिंग हो गई, ब्रेक ने मेरे पांवों के दबाव को चुपचाप स्वीकार कर लेना सीख लिया, तो अब लगाम मेरे हाथ में थी।



मैं और तूलिका तो शहर के एक छोर पर रहते थे, हमारी दूसरी सहेली दूसरे छोर पर। और हम बस ड्राइव करने के लिये अपने यहां से उसके घर निकल पड़ते थे। ज़िंदगी जैसे पिकनिक का दूसरा नाम हो गई थी। जाड़ों की ठंडी शाम जब ढल जाती, हम घर के लिये निकलते और घर के रास्ते में पड़नेवाली एक कोल्ड ड्रिंक शॉप पर रुकते। वहां फ्रूट बियर पीते। थी तो वो कोल्ड ड्रिंक ही लेकिन उसके साथ जुड़ा बियर शब्द उसके स्वाद को लज़ीज़ और नशीला बना देता। तब अपन के लिये यही बहुत था। फिर दांत किटकिटाते और ठंडी भाप उगलते हुए हम एक दूसरे से विदा लेते और अपने घर की ओर बढ़ लेते।
(बहुत से लोगों को हमारी ये आज़ादी पसंद न आई थी, न आई है, न आएगी)


सिर्फ बाहर की सहेलियां ही नहीं मोहल्ले की लड़कियां और अपनी कज़िन सिस्टर को भी हमने ज़िंदगी का ये स्वाद चखाया था, जो रुढ़िवादी परिवारों में पल रही लड़कियों के लिये सचमुच मायने रखता था। हर बात पर रोकटोक झेलनेवाले, हर काम के लिये पापा-भाई का मुंह देखनेवाले, हर जरूरत के लिये दूसरों की बाट जोहनेवाली लड़कियों के लिये ये आज़ादी मायने रखती थी।

मैं कहूंगी, मानो चिड़िया के अंडों से निकले चूजे अब उड़ना सीख रहे थे, उनके छोटे-छोटे पर उगते दीख रहे थे, पहले डाली-डाली और फिर पेड़ों पर फुदकते-फुदकते एक दिन वो आसमान में गोता लगाना सीख लेते हैं। हम भी उसी दौर से गुजर रहे थे।



अब कॉलेज का कोई फॉर्म भरना हो, किसी कॉम्पटीशन के लिये अप्लाई करना हो तो भाई की गुजारिश नहीं करनी पड़ती। हम खुद जाते। ये हमारे लिये तो बड़ा परिवर्तन था। फिर दिमाग़ में भविष्य की कुलबुलाहट भी जन्म लेने लगी थी। आगे क्या करेंगे। करियर। नौकरी। मैं तो घर की चारदीवारी के अंदर क़ैद ज़िंदगी जीने के लिये बिलकुल भी तैयार नहीं थी। आनेवाली ज़िंदगी की मेरी सारी सुबहें-शामें रसोई में पकता देखना मेरे लिये मौत के दंड जैसा लगता। तो ये तय था कुछ करना है। ये वही वक़्त था जब मेरे घरवालों ने मेरी शादी की बातें छेड़नी शुरू कर दी थीं, हालांकि उनके लिये भी अभी ये बाते हीं थी।



तभी मैंने अपने लिये पत्रकारिता की पढ़ाई चुनी, जो उस वक़्त, मेरे आसपास के लोगों के लिये नई बात थी।
घरवालों का नज़रिया भी हम दोनों बहनों के प्रति बदलने लगा था। पहले लड़कियों को चाय बनाने का ऑर्डर ही दिया जाता था अब प्लंबर बुलाने, हार्डवेयर की दुकान पर जाकर सामान लाने सरीखे और भी काम कहे जाने लगे थे। अच्छा लगता था। हमारे अंदर आये परिवर्तन ने, घरवालों के माइंडसेट को भी बदला था।

मम्मी अब डॉक्टर के पास जाने के लिये भाई को नहीं बोलती, हमारे पीछे पड़तीं। पापा अपनी दवाइयां लाने के लिये भाई को नहीं बोलते, हमें बोलते। इन सबका श्रेय जाता है उस एक किक को, जो अपने स्कूटर पर मार हम फर्र उड़ जाते। स्कूटर-स्कूटी से हमें सचमुच आज़ादी मिली।



ज़िंदगी की पिकनिक खत्म होने लगी थी। नौकरी हासिल करने की मुश्किल भरी चुनौती सामने थी। मैं पहले यूनिवर्सिटी जाती फिर एक टुच्ची सी जगह पर दो-तीन घंटे की नौकरी पर। पैसे तो नहीं मिलते, अनुभव जरूर हासिल होता। नौकरी के लिये भी अपने स्कूटर पर सवार होकर इधर-उधर के खूब धक्के खाये। इंटरव्यू दिये।

दरअसल मेरे हिसाब से ड्राइविंग से आपके पास विकल्प तो बढ़ते ही हैं, मानसिक दृढ़ता भी बढ़ती है, सड़क पर दौड़ती गाड़ियों को ओवरटेक करने के साथ आप ज़िंदगी को ओवरटेक करना भी सीखते हैं। आगे बढ़ना सीखते हैं। मुश्किलों से जूझना सीखते हैं।

मैं अपने मां-बाप को छोड़कर शायद ही कभी-कहीं हफ्ते-दो-हफ्ते रही होऊं। अब मैंने तय किया था कि दिल्ली जाऊंगी, मैंने एक टीवी चैनल में इंटर्नशिप करने का मौका जुगाड़ा था। तब तक लखनऊ से बाहर की दुनिया देखी भी नहीं थी। जब ट्रेन की खिड़की से दिखते रात के अंधेरे को सूरज की किरणें धो रही थीं और उजली सुबह में मुझे दिल्ली की चौड़ी सड़कें और लंबे फ्लाइओवर दिख रहे थे, मैं डर गई। जो दिल्ली मेरे सपनों में बसती थी उसने पहले-पहल मुझे डरा दिया। लगा ये तो कोई भव्य शहर है, न्यूयॉर्क,पेरिस जैसा। मेरी उम्मीद से ठीक उलट, मेरे ज़ेहन में तो दिल्ली लखनऊ का ही एक बड़ा संस्करण होना था। बड़ा किलोमीटर के स्केल पर। दिल्ली में अपनी शुरुआत भी भयावह हुई। अपने डर पर काबू पाने की कोशिश करते-करते मेरे हालात बदले। करियर बनने लगा था, ज़िंदगी भी।

इस निर्माण की शुरुआत मेरे स्कूटर के साथ ही हुई थी। स्कूटर चलाते हुए मेरी पीठ पर उगे अदृश्य पंखों ने उड़ना सिखाया था।
राह में आनेवाली मुश्किलों से निपटने के लिये ब्रेक,क्लच,गेयर का इस्तेमाल करना सिखाया था।

14 December 2009

लाल परी और खुली हवा का पहला एहसास

उसका नाम मैंने यही रखा था। आज़ादी का शायद पहला एहसास इस लाल परी के साथ ही हुआ था और खुद के बड़े होने का भी। आठवीं में थी मैं, जब मेरे पास मेरी अपनी साइकिल आयी। लाल रंग की। पसंद था उसका ये रंग मुझे। मेरी एक फ्रेंड के पास खाकी रंग की साइकिल थी और दूसरी के पास नीले रंग की पुरानी साइकिल। मेरी नई चमचमाती साइकिल मुझे उन दोनों की साइकिल से ज्यादा पसंद थी, हालांकि पहले उनकी साइकिल देख मैं सोचती थी काश मेरे पास भी एक होती।

उस साइकिल को खरीदने में मैंने भी सौ रुपये का योगदान दिया था अपनी पॉकेटमनी से पैसे बचाकर और रिश्तेदारों से विदाई के वक़्त मिले पैसे सहेजकर। उन दिनों मम्मी स्कूल जाते वक़्त रोज़ एक रुपये देती थी, उन दिनों ये पॉकेटमनी कम बिलकुल नहीं थी। उस एक रुपये में हम आलू टिक्की खा सकते थे और बर्फ वाली औरेंज आइसक्रीम भी। शायद पचास पैसे में आलू टिक्की मिलती थी, आइसक्रीम भी इतने की ही। महंगाई के दौर में उन सस्ती आइसक्रीमों-आलू टिक्कियों की कीमत भी ठीक से याद नहीं रही। लिखते हुए लग रहा है जैसे मैं 1935 में पैदा हुई हूं, लेकिन ये बात 1989-90 के दौरान की है। लो मेरी उम्र का भी अंदाज़ा लग गया होगा। उस साइकिल के साथ चंद पर अनमोल यादें जुड़ी हुई हैं और एक दुर्घटना भी।

पहले अच्छी बातें।

किसी और की साइकिल से सीखने के दौरान ही मैंने सैर कर रही एक मोटी महिला को पीछे से ठोक दिया था। बचाते-बचाते भी मेरी साइकिल की हैंडल उसकी कमर पर जा लगी। वो साड़ी पहने थी और पीछे से उसकी थुलथुली पीठ दिख रही थी, बस मेरी हैंडल वहीं जा टकरायी। उस छोटी दुर्घटना के साथ उस महिला की थुलथुली पीठ भी मेरी यादों में बस गई। अह। मैं पूरी तरह नहीं गिरी, लड़खड़ाते हुए खुद को और अपनी साइकिल को संभाल लिया था।

अपने भाई की साइकिल पर भी मैंने कैंची चलाना सीखने की कोशिश की लेकिन वो एक असफल प्रयास था और मुझे किसी को कैंची चलाते देख मज़ा भी नहीं आता था। जब साइकिल है, उस पर सीट है, तो बैठने के बजाय टेढ़े होकर पैडल मारने का क्या मतलब भला।

खैर मेरी साइकिल में दिलचस्पी की बात मेरे प्यारे पिताजी को पता चल गई थी और उन्होंने मेरा दिल नहीं तोड़ा। आठवीं क्लास में रहते हुए मेरे पास मेरी दो निजी संपत्ति थी। एक तो घड़ी और दूसरी मेरी नई साइकिल। स्कूल से निकलते हुए बच्चों की कतार के बाद साइकिलवालों की जो कतार लगती थी, उसमें खड़ी होने पर मुझे गर्व का एहसास होता, फिर स्कूल की कुछ ही लड़कियां साइकिल से आतीं, तो छोटी कतार में शामिल होकर मेरा गर्व भी महान हो जाता था। वाह।

स्कूल से लौटते समय हम आपस में होड़ लगाते, कई बार पीछे से आ रहे किसी पेट्रोलवाले वाहन को रास्ता भी नहीं देते, हमारी साइकिलें हमसे ज्यादा इठलाती हुई सड़क पर फिरतीं और ये एहसास सबसे ज्यादा सुखद था। शायद इसी को मैं कहना चाहती हूं ये खुली हवा को महसूस करने और जीने का एहसास था, उसकी महक अब भी दिमाग की कोशिकाओं से निकलकर ज़ेहन में ताज़ा हो उठती है क्योंकि शायद खुली हवा को महसूस कर पाने का, वही पहला एहसास था।

साइकिल के नौसिखियेपन के दिन की एक और मज़ेदार घटना याद है। मज़ेदार अब, तब नहीं। मैं एक छोटे से चौराहे से निकल रही थी कि ये स्कूटर वाला पीछे से आया, मेरी साइकिल का स्टैंड उसके स्कूटर में फंस गया, करीब साठ-सत्तर डिग्री के कोण पर और मेरी साइकिल उसके स्कूटर के साथ घिसट पड़ी, बस कुछ ही कदम मान लो, पर मैं बुरी तरह डर गई थी। सचमुच।

पर ये तो कुछ भी नहीं था। आगे जो होनेवाला था वो इससे भी डरावना था।

अच्छी बातों के बाद
अब मुझे साइकिल चलानी अच्छी तरह से आ गई थी इसलिये मैं थोड़ी स्मार्टनेस भी दिखाने लगी थी। स्कूल से लौटकर मोहल्ले में दाखिल होते समय ढलान थी। मेरे आगे एक ट्रैक्टर जा रहा था, ईंट से लदा हुआ। उसकी धीमी रफ्तार ने मुझे ओवरटेक करने पर मजबूर कर दिया। ट्रैक्टर को पीछे छोड़ निकलते समय सिर्फ इतना पता चला कि एक लड़का बहुत तेज़ रफ्तार में साइकिल चलाता हुआ आया, शायद मेरी साइकिल से टकराया और ढलान की वजह से मैं आगे की ओर गिरी, ठीक-ठीक कुछ भी याद नहीं और खुद को ट्रैक्टर के यमराज इंजन के नीचे पाया। दरअसल क्या हुआ होगा, नहीं पता। सड़क के एक ओर ऊंची दीवार थी, ट्रैक्टरवाले ने मुझे बचाने के लिये सूझबूझ दिखाते हुए स्टेयरिंग दीवार की ओर मोड़ दी थी। होश संभलने और दिमाग़ के पटरी पर लौटने पर देखा वहां दीवार का एक हिस्सा ढह गया था। वो लड़का अपनी साइकिल समेत भाग गया था। ट्रैक्टर का इंजन ख़ासा ऊंचा होता है, मेरी जैसी मरियल छोकरी दोनों के गैप के बीच आसानी से समा गयी थी। सामाजिक प्राणी होने का परिचय देते हुए कुछ लोग मुझे ट्रैक्टर के इंजन के नीचे से घसीट कर बाहर निकाल रहे थे, मेरी साइकिल कई जगह से टेढ़ी-मेढ़ी हो चुकी थी, बैग से मेरा स्टील का खूबसूरत डबल डेकर टिफिन बाहर निकल आया था और बुरी तरह पिचक गया था। मौका-ए-वारदात के दूसरी तरफ डॉक्टरों की एक कॉलोनी थी। कुछ लोग आवाज़ देकर अपनी बॉलकनी पर टंगे एक डॉक्टर को नीचे बुला रहे थे, लेकिन उसने आने से मना कर दिया, इतने ख़ौफ़, दर्द, दहशत, आंसू के बाद भी मैं ये समझ पा रही थी कि वो एक्सीडेंट-वेक्सीडेंट के झमेले में नहीं पड़ना चाहा था। मुझ पर से मिट्टी-सिट्टी झाड़कर, ज़ख्म पर डिटॉल का डोज़ देकर, लोगों ने मेरा पता पूछा, मैंने घर का रास्ता बता दिया और रिक्शे पर लादकर मुझे घर पहुंचाया गया, मेरे साथ मेरी साइकिल को भी। घर पहुंचते ही मेरे इमोशन फूट पड़े और मैंने रोना चालू किया, उससे पहले मैं सिर्फ कराह रही थी। मैं अस्पताल ले जायी गई। यहां की एक अच्छी अनुभूति ये थी कि मेरे भाई ने मुझे अपने हाथों में उठाया और वॉर्ड के अंदर ले गया। हालांकि तब मैं बहुत दुबली थी, फिर भी मुझे लग रहा था कि उसने मुझे कैसे उठाया होगा।

इसके बाद लाल परी के साथ स्कूल जाना नसीब नहीं हुआ। मैंने अपनी साइकिल पर पैडल तो मारे लेकिन उल्लेखनीय कुछ भी नहीं।

इस पूरी घटना का सबसे खराब पहलू ये था कि इतनी बड़ी और भीषण दुर्घटना से गुजरने के बाद भी मुझे कुछ नहीं हुआ। न पैर में कोई फ्रैक्चर आया, न हाथों में लंबी पट्टी बंधी, न सर पर बैंडेज सजा। सिर्फ सड़क पर गिरने की वजह से छिलने के थोड़े घाव थे। सोचिये कि लोगबाग मेरे एक्सीडेंट की ख़बर सुन मुझसे मिलने आते और मुझे चलता-फिरता देख कितने मायूस होते, बेचारे अपनी सहानुभूति जताने के लिये बटोरे गये शब्दों का भी सही इस्तेमाल नहीं कर पाते।

उनसे ज्यादा मायूस तो मैं थी। एक्सीडेंट भी हुआ, ठीक से घायल भी न हुई, देखने आनेवालों को भी निराश किया और तो और शर्म का एक कारण ये भी था कि एक्सीडेंट भी हुआ तो ट्रैक्टर से, कोई वड्डी गाड़ी होती, कार होती, ट्रक होता, मगर ट्रैक्टर.....। हाय-हाय।

हां लेकिन एक बात तो शानदार हुई थी। मैं अपने मोहल्ले में मशहूर हो गई थी। वो लड़की जिसे ट्रैक्टर के नीचे आने के बाद भी कुछ न हुआ, बस चंद खरोंचे आयीं।

10 May 2009













सुबह की धुन
सुबह की आस
सुबह की ठंडक
सुबह की ताजगी
सुबह की चहचहाहट
सुबह की ख़ुश्बू
अभी सूरज निकला नहीं
कल की बारिश के बाद
धुली हुई रात से
अंधेरे का पर्दा हटा
सुबह आयी मुस्कुराती
नाइट शिफ्ट का यही
सबसे बड़ा फायदा है
सुबह देखने को मिल जाती है
सुबह-सुबह ही

30 April 2009

वह तोड़ती पत्थर


इस कविता को पोस्ट करने के लिए जो भूमिका पहले मैंने सोची थी वो ये कि मज़दूर दिवस है आज, धोती पहने, अंगोछा डाले, महिलाएं फटी पुरानी साड़ी पहने, मैले-कुचैले से दिखते लोग जिन्हें हम मज़दूर कहते हैं, उनकी नुमाइंदगी करता ये दिन। नहीं, मज़दूर तो हम भी हैं, प्राइवेट कंपनियों में दिन-रात मेहनत करते, अच्छे से धुली, प्रेस की हुई कमीज़ पहनकर, सजे-धजे पुरुष-महिलाएं मानसिक श्रम करनेवाले, मज़दूर तो ये भी हैं। एक अपना शारीरिक श्रम बेचता है, मैला-कुचैला दिखता है, दूसरा अपना मानसिक श्रम बेचता है, दिमाग़ उसका मैला-कुचैला हो जाता है।
लेकिन इस भूमिका को मेरे दिमाग़ ने ये कहकर ख़ारिज कर दिया कि दोनों की तुलना का मतलब ग़रीब मज़दूरों के साथ नाइंसाफ़ी होगी।
तो अब कोई और भूमिका नहीं सोच रही। निराला जी की ये मुझे लगता है हम सबने पढ़ी होगी। हमारे तो स्कूल की किताब में भी थी और ये बार-बार पढ़ी जानेवाली कविता है।


वह तोड़ती पत्थर,
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-

वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत तन,
गुरू हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार-
सामने तरु-मलिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्राय:हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा तो मुझे एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-

"मैं तोड़ती पत्थर।"

16 April 2009

तेरे वादे पे जिए हम, ये तू जान भूल जाना

तेरे वादे पे जिए हम, ये तू जान भूल जाना

शेर तो जनाब मिर्जा ग़ालिब का है। सभी जानते हैं और जो लिखने जा रही हूं वो परसाई साहब की पोटली में से है। चुनाव की बहार है, हरिशंकर परसाई की "आवारा भीड़ के खतरे" किताब के एक चैप्टर पर नज़र चली गई। उससे कुछ लाइनें उधार ले पोस्ट कर रही हूं। पढ़नेवाले को पैसा वसूल की गारंटी। परसाई साहब हैं भई।

शेर फिर से नोश फरमाएं...

तेरे वादे पे जिए हम, ये तू जान भूल जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर एतबार होता


मेरी जान, तू ये समझती है कि तेरे वादे की आशा पर हम जीते रहे तो ये गलत है। अगर तेरे वादे पर हमें भरोसा होता तो ख़ुशी से मर जाते।
आम भारतीय जो ग़रीबी में, ग़रीबी की रेखा पर, ग़रीबी की रेखा के नीचे है, वह इसलिए जी रहा है कि उसे विभिन्न रंगों की सरकारों के वादों पर भरोसा नहीं है। भरोसा हो जाय तो वह ख़ुशी से मर जाए। ये आदमी अविश्वास, निराशा और साथ ही जिजीविषा खाकर जीता है। आधी सदी का अभ्यास हो गया है इसलिए- "दर्द का हद से गुजर जाना है दवा हो जाना।"
उसके भले की हर घोषणा पर, कार्यक्रम पर वह खिन्न होकर कहता है- ऐसा तो ये कहते ही रहते हैं। होता-वोता कुछ नहीं। इतने सालों से देख रहे हैं। और फिर जीने लगता है।

इसी लेख में कुछ पैरा आगे का एक अंश

ये आदमी संसद भवन देखता है। विधानसभा भवन देखता है। आलीशान बंगले देखता है। बढ़िया कारें देखता है। इसमें उसकी इतनी ही हिस्सेदारी है कि उसने मत दे दिया। इसके बाद उसकी कोई हिस्सेदारी नहीं रही। वह सिर्फ देखता है। जब प्रिंस ऑफ वेल्स दिल्ली आए थे, तब दरबार भरा था। बढ़िया कपड़े पहने राजा, नवाब। हीरे जवाहर से दमकते हुए। बड़े-बड़े अफसर। बड़े-बड़े सेनापति तमगे लगाए। राजभक्त लोग रायबहादुर, राय साहब, खान बहादुर। फानूस रोशनी बिखेरते। अकबर इलाहाबादी ने लंबी नज्म में ये सब लिखा है। अंत में लिखा है-

सागर उनका साकी उनका
आंखें अपनी बाकी उनका

05 April 2009

एक कतरा ज़िंदगी
कभी आंसू
कभी हंसी
*

कोशिश
उठे, चले, बढ़े
खोया, खोया, पाया
रुकते-रुकते पहुंचे
वो रही
मंज़िल
*

कल तुम हंसते थे
मैं हंसती थी
तुम रोते थे
मैं रोती थी
हम थे साथ-साथ
अब भी हम हंसते-रोते हैं
अब हम अलग-अलग
*

दो में दो जोड़ कर चार बना लिया
कभी-कभी पांच भी
दो में से दो घटाकर शून्य बना लिया
कभी-कभी एक भी
वो हिसाब हमारा था
मम्मी-पापा के दिये पैसों में हेरफेर कर लेने का
अब हमारा अपना-अपना बटुआ है
अब हिसाब पक्का है
दो और दो सिर्फ चार होते हैं, पांच नहीं
*

तुम सिर्फ ख़ुश होना चाहती हो
तुम दुखी रहती हो
तुम सिर्फ हंसाना चाहती हो
तुम रोती रहती हो
तुम सब अच्छा-अच्छा चाहती हो
तुम्हें सब बुरा-बुरा लगता है
तुम बदलो
चीजें बदलेंगी

28 March 2009

कल आंधी आयी थी

आंधी की ध्वनि कितनी गहरी होती है। सिर्फ सुनकर मन डर जाता है, जैसे प्रकृति नाराज़ हो रही हो या फिर रोमांच भरा कोई खेल चल रहा हो हवाओं का, हवा की तीव्रता, जिसमें सब कुछ उड़ा देने का आवेग हो, वृक्ष जैसे अपने पत्तों की सरसराहट से हवा को संदेश देते हों, कहीं कुछ टूटने-फूटने की आवाज़, जम चुकी धूल को उड़ाकर आंधी जितनी तेज़ी से आती है, उसी तेज़ी से लौट जाती है, अगले दिन धूल साफ करते वक़्त फिर याद आता है कल आंधी आयी थी न।

आह!, मीठा सा स्वाद, आम का, इस मौसम की इस आंधी में आम भी तो टूटते हैं, ये स्वाद, ये रोमांच, हवा की ये बेलगाम दौड़ इतना सबकुछ महसूस करने का वक़्त कहां चला गया?


कल आंधी आयी थी, छुट्टी का दिन था, इसीलिए ये सब देखने-सुनने-अनुभव करने का मौका मिला। सोचने का मौका मिला। किचन के एग्ज़ाज्ट फैन के पंख तेज़ी से घूमने लगे थे और तभी आंधी की आवाज़ कहूं या ध्वनि सुनायी दी। अच्छा लगा था।

मैंने अपने कमरे की छत पर आर्टिफिशियल चांद-सितारे चिपका रखे हैं। रात में उनकी चमक देखकर लगता है सचमुच के तारे दिखते तो कितना अच्छा होता। यहां न छत है, न वक़्त।

हालांकि वक़्त का इतना रोना अच्छा नहीं, नींद के घंटे कम कर पाती, तो वक़्त आ जाता। पर क्या करुं, ये भी नहीं होता।

कल डिस्कवरी पर एक प्रोग्राम भी आ रहा था, जब आंधी आ रही थी उसी वक़्त।
इंसान की बनायी गई मशीनें, इंसान से ज्यादा ताकतवर हो जाएंगी। मशीनों से लड़ने के लिए इंसान के दिमाग़ में मशीनों को फिट कर, उसे ज्यादा ताकतवर बनाए जाने पर प्रोग्राम था। साइबर्ग...यानी आधा इंसान, आधी मशीन। सोचा, अच्छा है हम इस वक़्त में जी रहे हैं आनेवाला वक़्त तो और खतरनाक होगा। यहां आंधी, चांद-तारों की बात तो की जा रही है, आनेवाले कल में सिर्फ मशीनें ही होंगी। यहां “आई रोबोट” फिल्म देखने का सुझाव भी देती हूं।

यहां स्कूल के कोर्स में पढ़ी गई एक अंग्रेजी कविता भी याद आ रही है, लूसी ग्रे की। जिसमें वो प्रकृति की बेटी होती है शायद। कविता पूरी याद नहीं, अगर मिल जाती तो यहां जरूर चिपका देती।

14 March 2009











हाईवे ऑन माई व्हील्स कर के एक पोस्ट डाली थी। टिप्पणियों ने विश्वास डिगाने की पूरी कोशिश की। इस बार फोटुआ डाल रही हूं, अपनी भी, हाईईईईवे के साथियों की भी।

07 March 2009

औरत की ज़िन्दगी : रघुवीर सहाय


कई कोठरियाँ थीं कतार में
उनमें किसी में एक औरत ले जाई गई
थोड़ी देर बाद उसका रोना सुनाई दिया


उसी रोने से हमें जाननी थी एक पूरी कथा
उसके बचपन से जवानी तक की कथा

05 March 2009

बचपन के मास्टर




कभी-कभी मुझे बचपन के स्कूल टीचर्स का ख्याल आता है। उनसे जुड़ी तमाम यादें दिमाग की कोशिकाओं में छिपी हुई हैं। उनका पढ़ाना, उनके पढ़ाने का तरीका सबकुछ। टीचर अच्छा हो तो पढ़ाई भी अच्छी होती है, टीचर पर बहुत कुछ निर्भर करता है।

छठी क्लास में हमारे एक 'सर' हुआ करते थे। नाम था प्रमोद कुमार सिंह, हम उन्हें पीके सर कहकर बुलाते थे, पीके पर ज़रा ज़ोर डालकर। वो अच्छा पढ़ाते थे। इसीलिए तब मेरी साइंस बहुत अच्छी थी। सारी क्लास को हथेली पर स्केल खानी पड़ती थी, पर मुझे मिलाकर कुछ और लोगों को ये आशीर्वाद नहीं मिल पाता था।

एक थे मिश्रा सर। दांत बड़े-बड़े, मूंछें दांतों को छूती हुई। संस्कृत पढ़ाते थे। एक चैप्टर से एक-एक वाक्य सभी को बोलना होता था। बच्चे रटंत विद्या पर लग जाते थे, सर के खर्राटे पर संस्कृत के शब्द कंपकंपाने लग जाते थे।

और एक तो बहुत ही दुष्ट किसम के सर थे। त्रिपाठी सर। बस गुस्साना जानते थे। जब तक उन्होंने मैथ्स पढ़ाई, किताब खोलने का जी नहीं चाहता था। अगली क्लास में मास्टर बदल गया और गणित के सूत्रों की हमारी समझ में जान आ गई।

ऐसा नहीं कि गुस्सैल मास्टर बुरा होता हो। सुधा मैडम। इंटर में वो हमें फिजिक्स पढ़ाती थीं। हमने उनकी ट्यूशन ली थी। क्लास का तो पता नहीं पर ट्यूशन का असर हुआ। फिजिक्स मुझे पसंद आ गई।

लेकिन मैथ्स के अच्छे टीचर्स नहीं मिले मुझे। सब रटंत विद्या घटंत बुद्धि वाले थे। मेरी बदकिस्मती, मेरा दोष।

आखिर में अपनी डांस की दो टीचर्स के बारे में भी। आरती और मीना मैम। दोनों की बेटियां बाद में मेरी पक्की सहेली बन गई थीं। बेटियों की सहेली बनते ही मुझे डांस में आगे की जगह मिलने लगी। नहीं तो पीछे धकेल दी जाती थी। ये बात मुझे बाद में समझ आई।

और भी बहुत सारे टीचर हैं, जिनसे जुड़ी कई बातें याद हैं। यादों को ठीक-ठीक लिख पाना मुश्किल होता है। वो यादों में ज्यादा सुंदर लगती हैं, शब्दों में वो बात नहीं आ पाती।

12 February 2009

प्रेम के पक्ष में..





प्रेम पर लिखी कोई कविता मैंने पहली बार पढ़ी है तो वो यही है। कुछ मायने तो मैंने समझे होंगे इसके, क्योंकि इसकी पहली लाइन में कभी नहीं भूली। मैं इसे प्रेम कविता मान रही हूं, वैसे इसका अर्थ ज्यादा बड़ा है।


कबीर यहु घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं
सीस उतारै हाथि करि, सो पैठे घर माहिं



******
ये कविता मैंने अपनी कज़िन की डायरी से नोट की थी। उसी ने पढ़ाई थी। तब बहुत पसंद आई थी मुझे। बचपने की बात है।

फिर नदी अचानक सिहर उठी
ये कौन छू गया सांझ ढले
संयम में बैठे रहना ही
जिसके स्वभाव में शामिल था
दिन रात कटावों के घेरे में
ढहना जिसका शामिल था
वो नदी अचानक लहर उठी
ये कौन छू गया सांझ ढले

*******

ये कविता भी मैंने अपनी डायरी से उठायी है। ओशो टाइम्स से डायरी में नोट की थी।


तारकों को रात चाहे भूल जाए
रात को लेकिन न तारे भूलते हैं
दे भुला सरिता किनारों को भले ही
पर न सरिता को किनारे भूलते हैं
आंसुओं से तर बिछुड़ने की घड़ी में
एक ही अनुरोध तुमसे कर रहा हूं
हास पर कर लेना मेरे संदेह भले ही
आंसुओं की धार पर विश्वास करना
प्राण मेरे प्यार पर विश्वास करना


********

सबसे आखिर में
कोई अनुवादित किताब थी। नाम भूल गई हूं। कजाकिस्तान या इस किस्म की जगह का कोई उपन्यास(मूर्खता के लिए क्षमा करें)। उस किताब का एक अंश मेरे ज़ेहन में हमेशा ताज़ा रहता है। लड़का, लड़की को छोड़ कहीं दूर किसी दूसरी जगह जा रहा होता है। वो परेशान होती है, कहीं वो उसे भूल न जाए, किसी और के साथ न चला जाए। वहीं पर इस फिलॉस्फी का ज़िक्र है।

"अपने प्रेम को परिंदे की तरह आज़ाद छोड़ दो। अगर वो तुम्हारा है तो तुम्हारे पास लौटेगा। अगर वो नहीं लौटा तो वो तुम्हारा था ही नहीं।"

प्रेम के पक्ष में.




अंग्रेजी गायिका हैं रॉग्जेट(roxette)। ये जरूर प्यार ही था, पर अब ये खत्म हो चुका है, ये जरूर अच्छा था, पर मैंने इसे खो दिया है। (It must have been love, but it's over now, It must have been good, but I lost it somehow)। प्रेम के पक्ष में इस गाने के बोल। गाना सुनने की इच्छा हो तो आप नेट पर इसे ढूंढ़ सकते हैं। मुझे तो बोल ही बहुत पसंद हैं।



Lay a whisper on my pillow
Leave the winter on the ground
I wake up lonely, is there a silence
In the bedroom and all around

Touch me now, I close my eyes
And dream away...

It must have been love, but it's over now
It must have been good, but I lost it somehow
It must have been love, but it's over now
From the moment we touched till the time had run out

Make believing we're together
That I'm sheltered by your heart
But in and outside I turn to water
Like a teardrop in your palm

And it's a hard winter's day
I dream away...

It must have been love, but it's over now
It was all that I wanted, now I'm living without
It must have been love, but it's over now
It's where the water flows, it's where the wind blows

It must have been love, but it's over now
It must have been good, but I lost it somehow
It must have been love, but it's over now
From the moment we touched till the time had run out

10 February 2009

प्रेम के पक्ष में



ये फ्रांसीसी कथाकार मोपासां की कहानी प्रेम का अंश है। कहानी शुरू होती है दो शिकारियों से,जिन्हें बहता हुआ नहीं बल्कि ठहरा हुआ पानी पसंद है। क्योंकि वहां पक्षी और दूसरे जीव रहते हैं, शिकार के लिए वो ऐसे ही एक दलदली इलाके में जाते हैं...बर्फ़ की चादर में लिपटी सर्द रात गुजारने के बाद पक्षी सुबह को जगाते हैं.....(कहानी का अंत है ये)

दिन निकल आया था और आकाश भी एकदम साफ था। हम वापस जाने की सोच रहे थे कि तभी दो पक्षी पंख फैलाये हुए तेज़ी से हमारे ऊपर से निकले। मैंने गोली चलाई और उसमें से एक मेरे पैरों के पास आकर गिरा। वह एक बहुत ही सुंदर हंसनी थी। अचानक ऊपर नीले आसमान में, मैंने एक आवाज़ सुनी, एक पक्षी की आवाज़। दूसरा पक्षी, जिसे बख्श दिया गया था, हमारे ऊपर मंडराने लगा। वह दिल चीर देनेवाले स्वर में बार-बार चीख रहा था और अपने मृत साथी को देख रहा था जिसे मैंने उठा लिया था।

कार्ल घुटनों के बल बैठकर उसका निशाना साधने लगा और कहा, "तुमने हंसनी को मार दिया है। अब यह हंस यहां से नहीं जाएगा।"
वह वाकई वहां से नहीं जा रहा था और हमारे ऊपर मंडरा रहा था। उसका करुण रुदन जारी था। पीड़ा की आहों-कराहों से मैं कभी इतना द्रवित नहीं हुआ था जितना उस बेचारे पक्षी की दर्दभरी चीख से।
कभी-कभी वह बंदूक के डर से उड़कर दूर चला जाता और लगता कि वह अकेला ही आगे उड़ जाएगा, लेकिन फिर वह अपने साथी के पास लौट आता।
कार्ल ने मुझसे कहा, उसे ज़मीन पर रख दो। धीरे-धीरे वह क़रीब आ जाएगा।
वाकई वह हमारे बिल्कुल करीब आ गया। अपनी मृत संगिनी के प्रति उसके पशुवत प्रेम, उसके गहरे लगाव ने उसे खतरे के प्रति बेपरवाह कर दिया था।
कार्ल ने गोली चलाई। लगा जैसे आकाश में टंगा वह हंस ज़मीन पर इस तरह गिरा जैसे उसकी डोर किसी ने काट दी हो। मैंने कोई चीज़ नीचे आती देखी और नरकुलों के बीच कुछ गिरने की आवाज़ सुनी। पिएरो उसे उठा लाया।
दोनों ठंडे पड़ चुके थे- मैंने उनको एक ही थैले में डाल दिया और उसी शाम वापस पेरिस चला गया।

07 February 2009

हाईने ऑन माई व्हील्स

रोड डायरी
हालांकि मुझे लग नहीं रहा कि ये कोई बड़ी बात है, पर खुद को सुकून देनेवाली बात तो है ही। दिल्ली से देहरादून क़रीब ढाई सौ किलोमीटर का सफ़र तय करना था। नोएडा और दिल्ली के कुछ इलाकों को छोड़कर ज्यादा भीड़भाड़ वाली सड़कों पर ड्राइव करने से मैं कतराती थी। जब पतिदेव ने ये तय किया कि देहरादून जाना है वो भी खुद ड्राइव करके, मैंने तो साफ इंकार कर दिया, ड्राइवर कर लेने की सलाह दी। पर जैसा कि आम हिंदुस्तानी बीवियों के साथ होता है, मुझे हथियार डालने पड़े। तय पाया गया कि जी खुद ही ड्राइव कर जाना है।
सफ़र से पहले की रात मैंने सपना देखा, अचानक कॉलेज के इग्जाम्स आ गए है,मैं इम्तिहान देने के लिए तैयार नहीं हूं, फेल होने से डर रही हूं(सपना देखते वक़्त तो सच लगता है, कॉलेज छोड़े कुछ साल बीत गए हैं, पर इग्ज़ाम्स अब भी डराते हैं)। ये सफ़र से पहले का डर था।
जब घोड़े पर जीन कस ली गई....गाड़ी का गियर बदल दिया गया फिर तो मुझे भी स्टेयरिंग पर हाथ फिराना ही था। मज़ा आ गया। मैं क्यों डर रही थी पता नहीं। हां ट्रकों को ओवरटेक करते वक़्त कई बार ट्रक यमराज जैसे जरूर लग रहे थे। पर एक-दो बार ऐसा कर लेने के बाद कॉन्फिडेंस आ गया।
सड़क के बीच कहीं भी ऊग आये गढ्ढे भी खासे जानलेवा होते हैं। एक गढ्ढे पर तो जो ब्रेक मारा, जान बची और लाखों पाये(लाखों की जगह अब के दौर में मुहावरा करोड़ों का हो जाना चाहिए)।
जब मैं ड्राइव कर रही थी सोतड़ू(पति का ब्लॉगर नाम) ने फोन कर बातों-बातों में एक-दो को बता भी दिया।
हें-हें-हें......

21 January 2009

द काइट रनर


kite runner. कल ये फिल्म देखी। अफगानिस्तान की पृष्ठभूमि में गढ़ी दो दोस्तों की कहानी। दो छोटे बच्चे जिनमें से एक मालिक होता है, एक नौकर। नौकर को वो हज़ारा कहते हैं, जो शायद वहां की छोटी जाति होगी। वो हिम्मतवाला, बहादुर होता है, मालिक कायर। नौकर नाज़ुक वक़्त पर मोर्चा संभाल लेता है, मालिक बच्चा भाग खड़ा होता है।

पतंगबाज़ी की प्रतियोगिता में ग़रीब बच्चे की वजह से मालिक साहब प्रतियोगिता जीत लेते हैं, उनकी पतंग नहीं कटती, आखिर तक हवा मे गोता लगाती रहती है, हज़ारा अपने मालिक को कटी हुई पतंग देने के लिए भागता है, वही kite runner. होता है, उसे हमेशा पता रहता है, पतंग कहां मिलेगी। वो पतंग तो पा लेता है पर यहीं दोस्ती खो देता है। अपने नन्हे मालिक दोस्त की कायरता की वजह से।

रूस का हमला होता है। लोग भागते है। मालिक बच्चा अपने पिता के साथ अमेरिका बस जाता है, बड़ा होकर लेखक बन जाता है, बचपन में लिखी गई जिसकी कहानियां सिर्फ उसका ग़रीब दोस्त ही सुनता था, उसे वो अच्छी भी लगती है।
फिल्म की कहानी कई ऐसी घटनाओं से भरी हुई है जो रोंगटे खड़ी कर देनेवाली हैं।

ग़रीब दोस्त वहीं बंदूकों के साये में जी रहा होता है और एक दिन मार दिया जाता है। उसकी मौत पर पता चलता है कि वो तो दरअसल लेखक के पिता की अवैध संतान होता है। उसका एक बेटा है। जिसे काबुल में कट्टरपंथियों ने खरीद लिया।
पूरी फिल्म में एक कमज़ोर इंसान की तरह दिखाया गया लेखक के अंदर ये जानने के बाद हिम्मत जागती है। वो काबुल जाकर उस बच्चे को छुड़ाता है, वहां से अमेरिका ले आता है।

फिल्म खत्म होती है पतंगबाज़ी के साथ। इस बार लेखक पतंग उड़ाता है और बच्चे के हाथ में डोर थमाता है। कांपते हाथों से बच्चे ने डोर पकड़ी और पतंग कट गई, दूसरे की। लेखक कटी पतंग के पीछे भागता है। इस बार वो सचमुच जीत गया था।
वैसे तो मैंने फिल्म की कहानी लिख दी।

पर दरअसल मैं लिखना चाहती थी कि कई बार आपके सामने भी ऐसे मौके आते हैं जब भीड़ के सामने थोड़ी हिम्मत दिखाने की जरूरत होती है। आपके सामने कोई किसी को पीट रहा होता है, आप या तो मज़ा लेते हैं, डरते हैं, या तिलमिला कर रह जाते हैं। मेरे साथ तो कोई बार ऐसा हुआ, मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाती, फिर खुद को कोसती हूं। एक ज़रा सी हिम्मत चाहिए होती है, भीड़ का डर सताता है, इस डर से उबरने के लिए। कितनी बार देखा है रास्ते में गाड़ीवाला रिक्शेवाले को पीट रहा होता है, जबकि गाड़ी से टकराकर किसका नुकसान हुआ होगा, रिक्शे का या गाड़ी का।
kite runner.का हज़ारा हिम्मत देता है।

13 January 2009

एनी थिंग कैन गो रॉन्ग, विल गो रॉन्ग

(एक मज़ेदार आर्टिकल हिंदुस्तान में पढ़ने को मिला। जो वहां न पढ़ सकें, यहां पढ़ सकते हैं। एड़वर्थ ए मर्फी जूनियर की थ्योरी पर ये आर्टिकल है। थ्योरी है any thing can go wrong, will go wrong)


जूते में अगर कोई बाहरी पदार्थ आ घुसा हो तो निश्चित जानिए वह उसी कोण पर अटक जाएगा जहां से वो आपको सबसे अधिक तकलीफ दे। मक्खन लगा टोस्ट ज़मीन पर हमेशा उसी ओर गिरेगा, जिधर मक्खन लगा है। ये चंद वो सिद्धांत हैं, जिहें स्वीकार कर आप मक्खन बचाने के लिए ज्यादा एहतियात बरत सकते हैं और अपनी गड़बड़ियों पर हंस भी सकते हैं। इन सिद्धांतों के माता और पिता दोनों एडवर्ड ए मर्फी जूनियर हैं।

इन सिद्धांतों का जन्म ही एक गड़बड़ी से हुआ। 1949 में इंजीनियर मर्फी पर अमेरिकी एयरफोर्स ने तेज़ स्पीड के बीच मानव शरीर की सहनशक्ति की सीमा तय करने के कुछ वैज्ञानिक प्रयोग किए थे। प्रयोग के दौरान 16 सेंसर मर्फी के शरीर पर लगाए जाने थे। मर्फी के सहायक ने वो सारे सेंसर उल्टे लगा दिए। नतीजा आया शून्य. इस गड़बड़ी पर मर्फी के मुंह से जो बोल फूटे वो मर्फी सिद्धांत की अमर बुनियाद बने- अगर कोई चीज उलट-पुलट हो सकती है, तो वो यकीनन उलट पुलट होकर ही रहेगी। any thing can go wrong, will go wrong.

आज ये हाज़िर जवाब लोगों के प्रिय मुहावरों में से एक है। ये सिद्धांत अब साठ बरस का हो गया है। इसी सिद्धांत को दिमाग़ में रखते हुए आज आम आदमी के इस्तेमाल के लिए बेहतर तकनीक से बनाई गई चीज में गड़बड़ी पैदा करनेवाले कनेक्शनों को ज्यादा मुश्किल बना दिया जाता है।

उदाहरण के लिए कभी कम्प्यूटरों में 3.5 इंच की फ्लॉपी का इस्तेमाल होता था। आपने गौर नहीं किया होगा लेकिन फ्लॉपी तबतक अंदर नहीं जाती जब तक आप उसे सही तरीके से डिस्क में न डालें। इस 3.5 इंच वाली फ्लॉपी से पहले 5.25 इंच की फ्लॉपी चलती थी, लेकिन क्वालिटी के मानकों पर ये उतनी खरी नहीं उतरती थी। क्योंकि ये फ्लॉपी उलट-पुलट करके भी डिस्क में घुस जाती थी और इससे कम्प्यूटर को नुकसान पहुंचने का खतरा था।

डिफेंसिव डिजायनर(चीजों को गलती की गुंजाइश से बचानेवाला) जानता है कि अगर फ्लॉपी को उल्टा करके डालना संभव है तो कोई न कोई महानुभव उसे उल्टा करके जरूर डालेगा।

इसीलिए तो कहा जाता है कि -आप अगर कुछ ऐसा बनाएंगे जो बेवकूफी से सुरक्षित होगा तो ऐसा व्यक्ति पैदा हो जाएगा जो और बड़ा बेवकूफ होग।-

लोग दरअसल बेवकूफों की बेवकूफी की हद का आंकलन नहीं कर पाते।