14 December 2009

लाल परी और खुली हवा का पहला एहसास

उसका नाम मैंने यही रखा था। आज़ादी का शायद पहला एहसास इस लाल परी के साथ ही हुआ था और खुद के बड़े होने का भी। आठवीं में थी मैं, जब मेरे पास मेरी अपनी साइकिल आयी। लाल रंग की। पसंद था उसका ये रंग मुझे। मेरी एक फ्रेंड के पास खाकी रंग की साइकिल थी और दूसरी के पास नीले रंग की पुरानी साइकिल। मेरी नई चमचमाती साइकिल मुझे उन दोनों की साइकिल से ज्यादा पसंद थी, हालांकि पहले उनकी साइकिल देख मैं सोचती थी काश मेरे पास भी एक होती।

उस साइकिल को खरीदने में मैंने भी सौ रुपये का योगदान दिया था अपनी पॉकेटमनी से पैसे बचाकर और रिश्तेदारों से विदाई के वक़्त मिले पैसे सहेजकर। उन दिनों मम्मी स्कूल जाते वक़्त रोज़ एक रुपये देती थी, उन दिनों ये पॉकेटमनी कम बिलकुल नहीं थी। उस एक रुपये में हम आलू टिक्की खा सकते थे और बर्फ वाली औरेंज आइसक्रीम भी। शायद पचास पैसे में आलू टिक्की मिलती थी, आइसक्रीम भी इतने की ही। महंगाई के दौर में उन सस्ती आइसक्रीमों-आलू टिक्कियों की कीमत भी ठीक से याद नहीं रही। लिखते हुए लग रहा है जैसे मैं 1935 में पैदा हुई हूं, लेकिन ये बात 1989-90 के दौरान की है। लो मेरी उम्र का भी अंदाज़ा लग गया होगा। उस साइकिल के साथ चंद पर अनमोल यादें जुड़ी हुई हैं और एक दुर्घटना भी।

पहले अच्छी बातें।

किसी और की साइकिल से सीखने के दौरान ही मैंने सैर कर रही एक मोटी महिला को पीछे से ठोक दिया था। बचाते-बचाते भी मेरी साइकिल की हैंडल उसकी कमर पर जा लगी। वो साड़ी पहने थी और पीछे से उसकी थुलथुली पीठ दिख रही थी, बस मेरी हैंडल वहीं जा टकरायी। उस छोटी दुर्घटना के साथ उस महिला की थुलथुली पीठ भी मेरी यादों में बस गई। अह। मैं पूरी तरह नहीं गिरी, लड़खड़ाते हुए खुद को और अपनी साइकिल को संभाल लिया था।

अपने भाई की साइकिल पर भी मैंने कैंची चलाना सीखने की कोशिश की लेकिन वो एक असफल प्रयास था और मुझे किसी को कैंची चलाते देख मज़ा भी नहीं आता था। जब साइकिल है, उस पर सीट है, तो बैठने के बजाय टेढ़े होकर पैडल मारने का क्या मतलब भला।

खैर मेरी साइकिल में दिलचस्पी की बात मेरे प्यारे पिताजी को पता चल गई थी और उन्होंने मेरा दिल नहीं तोड़ा। आठवीं क्लास में रहते हुए मेरे पास मेरी दो निजी संपत्ति थी। एक तो घड़ी और दूसरी मेरी नई साइकिल। स्कूल से निकलते हुए बच्चों की कतार के बाद साइकिलवालों की जो कतार लगती थी, उसमें खड़ी होने पर मुझे गर्व का एहसास होता, फिर स्कूल की कुछ ही लड़कियां साइकिल से आतीं, तो छोटी कतार में शामिल होकर मेरा गर्व भी महान हो जाता था। वाह।

स्कूल से लौटते समय हम आपस में होड़ लगाते, कई बार पीछे से आ रहे किसी पेट्रोलवाले वाहन को रास्ता भी नहीं देते, हमारी साइकिलें हमसे ज्यादा इठलाती हुई सड़क पर फिरतीं और ये एहसास सबसे ज्यादा सुखद था। शायद इसी को मैं कहना चाहती हूं ये खुली हवा को महसूस करने और जीने का एहसास था, उसकी महक अब भी दिमाग की कोशिकाओं से निकलकर ज़ेहन में ताज़ा हो उठती है क्योंकि शायद खुली हवा को महसूस कर पाने का, वही पहला एहसास था।

साइकिल के नौसिखियेपन के दिन की एक और मज़ेदार घटना याद है। मज़ेदार अब, तब नहीं। मैं एक छोटे से चौराहे से निकल रही थी कि ये स्कूटर वाला पीछे से आया, मेरी साइकिल का स्टैंड उसके स्कूटर में फंस गया, करीब साठ-सत्तर डिग्री के कोण पर और मेरी साइकिल उसके स्कूटर के साथ घिसट पड़ी, बस कुछ ही कदम मान लो, पर मैं बुरी तरह डर गई थी। सचमुच।

पर ये तो कुछ भी नहीं था। आगे जो होनेवाला था वो इससे भी डरावना था।

अच्छी बातों के बाद
अब मुझे साइकिल चलानी अच्छी तरह से आ गई थी इसलिये मैं थोड़ी स्मार्टनेस भी दिखाने लगी थी। स्कूल से लौटकर मोहल्ले में दाखिल होते समय ढलान थी। मेरे आगे एक ट्रैक्टर जा रहा था, ईंट से लदा हुआ। उसकी धीमी रफ्तार ने मुझे ओवरटेक करने पर मजबूर कर दिया। ट्रैक्टर को पीछे छोड़ निकलते समय सिर्फ इतना पता चला कि एक लड़का बहुत तेज़ रफ्तार में साइकिल चलाता हुआ आया, शायद मेरी साइकिल से टकराया और ढलान की वजह से मैं आगे की ओर गिरी, ठीक-ठीक कुछ भी याद नहीं और खुद को ट्रैक्टर के यमराज इंजन के नीचे पाया। दरअसल क्या हुआ होगा, नहीं पता। सड़क के एक ओर ऊंची दीवार थी, ट्रैक्टरवाले ने मुझे बचाने के लिये सूझबूझ दिखाते हुए स्टेयरिंग दीवार की ओर मोड़ दी थी। होश संभलने और दिमाग़ के पटरी पर लौटने पर देखा वहां दीवार का एक हिस्सा ढह गया था। वो लड़का अपनी साइकिल समेत भाग गया था। ट्रैक्टर का इंजन ख़ासा ऊंचा होता है, मेरी जैसी मरियल छोकरी दोनों के गैप के बीच आसानी से समा गयी थी। सामाजिक प्राणी होने का परिचय देते हुए कुछ लोग मुझे ट्रैक्टर के इंजन के नीचे से घसीट कर बाहर निकाल रहे थे, मेरी साइकिल कई जगह से टेढ़ी-मेढ़ी हो चुकी थी, बैग से मेरा स्टील का खूबसूरत डबल डेकर टिफिन बाहर निकल आया था और बुरी तरह पिचक गया था। मौका-ए-वारदात के दूसरी तरफ डॉक्टरों की एक कॉलोनी थी। कुछ लोग आवाज़ देकर अपनी बॉलकनी पर टंगे एक डॉक्टर को नीचे बुला रहे थे, लेकिन उसने आने से मना कर दिया, इतने ख़ौफ़, दर्द, दहशत, आंसू के बाद भी मैं ये समझ पा रही थी कि वो एक्सीडेंट-वेक्सीडेंट के झमेले में नहीं पड़ना चाहा था। मुझ पर से मिट्टी-सिट्टी झाड़कर, ज़ख्म पर डिटॉल का डोज़ देकर, लोगों ने मेरा पता पूछा, मैंने घर का रास्ता बता दिया और रिक्शे पर लादकर मुझे घर पहुंचाया गया, मेरे साथ मेरी साइकिल को भी। घर पहुंचते ही मेरे इमोशन फूट पड़े और मैंने रोना चालू किया, उससे पहले मैं सिर्फ कराह रही थी। मैं अस्पताल ले जायी गई। यहां की एक अच्छी अनुभूति ये थी कि मेरे भाई ने मुझे अपने हाथों में उठाया और वॉर्ड के अंदर ले गया। हालांकि तब मैं बहुत दुबली थी, फिर भी मुझे लग रहा था कि उसने मुझे कैसे उठाया होगा।

इसके बाद लाल परी के साथ स्कूल जाना नसीब नहीं हुआ। मैंने अपनी साइकिल पर पैडल तो मारे लेकिन उल्लेखनीय कुछ भी नहीं।

इस पूरी घटना का सबसे खराब पहलू ये था कि इतनी बड़ी और भीषण दुर्घटना से गुजरने के बाद भी मुझे कुछ नहीं हुआ। न पैर में कोई फ्रैक्चर आया, न हाथों में लंबी पट्टी बंधी, न सर पर बैंडेज सजा। सिर्फ सड़क पर गिरने की वजह से छिलने के थोड़े घाव थे। सोचिये कि लोगबाग मेरे एक्सीडेंट की ख़बर सुन मुझसे मिलने आते और मुझे चलता-फिरता देख कितने मायूस होते, बेचारे अपनी सहानुभूति जताने के लिये बटोरे गये शब्दों का भी सही इस्तेमाल नहीं कर पाते।

उनसे ज्यादा मायूस तो मैं थी। एक्सीडेंट भी हुआ, ठीक से घायल भी न हुई, देखने आनेवालों को भी निराश किया और तो और शर्म का एक कारण ये भी था कि एक्सीडेंट भी हुआ तो ट्रैक्टर से, कोई वड्डी गाड़ी होती, कार होती, ट्रक होता, मगर ट्रैक्टर.....। हाय-हाय।

हां लेकिन एक बात तो शानदार हुई थी। मैं अपने मोहल्ले में मशहूर हो गई थी। वो लड़की जिसे ट्रैक्टर के नीचे आने के बाद भी कुछ न हुआ, बस चंद खरोंचे आयीं।

4 comments:

श्यामल सुमन said...

साइकिल के बहाने आपने बचपन को खूब याद किया।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

अजय कुमार झा said...

सायकल चलाने सीखने से जुडी कितनी ही यादें कितनों को याद दिला देगी आपकी ये पोस्ट मुझे भी

Ek ziddi dhun said...

behad achha tukda hai Varsha

डॉ .अनुराग said...

हमारे ज़माने में बड़ी साइकिल होती थी ..तब पिता जी ने हमें बछो वाली साइकिल नहीं दी थी थी .सो .उसमे केंची फंसा के हम चलाते थे ..सड़क के एक कोने में हलवाई की दूकान थी..ओर अक्सर हम ब्रेक भूल जाते थे ....एक बार एक अंकल की धोती ....उस दिन इतनीपिटाई हुई के पूछिए मत.....