26 November 2008

हम कहां जा रहे हैं?

नाइट शिफ्ट करके अभी-अभी घर पहुंची हूं। कम्प्यूटर देखते ही खुद को लिखने से नहीं रोक सकी। हालांकि मैं हमेशा ऐसे विषयों पर लिखने से बचती हूं। पर आज की सारी रात मुंबई हमलों में घायलों, मरनेवालों, बंधकों, रिहा होनेवालों के आंकड़े जुटाते-जुटाते खपी। इन पर ख़बरें बनाते-बनाते लग रहा था हम तबाह हो रहे हैं। कहां हमारा देश विकास की नई इबारतें लिख रहा था, कहां ये आतंकी हमले सर से पांव तक कंपकपा देते हैं। इराक,अफगानिस्तान जैसा हाल हो रहा है। कोई आतंकवादी चुपचाप कहीं विस्फोटकों से लदा बैग, टिफिन, साइकिल नहीं छोड़ गया। वो हमारे देश की आर्थिक राजधानी के बड़े पॉश होटलों-अस्पतालों-रेलवे स्टेशन पर तबाही मचा रहा था वो भी खुले आम। होटल ताज का गुंबद धूं-धूं कर जल रहा था और हमें बता रहा था देखो हम कितनी तबाही मचा सकते हैं, मचा रहे हैं। हम फिर हिंदू-मुसलमान करने लग जाएंगे। पर यार जो मर रहे हैं, घायल हो रहे हैं, वो कोई हिंदू-मुसलमान नहीं होते, इंसान होते हैं, जिन्हें उस हालत में देखकर रुह कांप जाती है। एक महिला होटल की खिड़की से बार-बार हाथ दे रही थी, बचाने की गुहार लगा रही थी, वो तस्वीर कभी भुलाई नहीं जा सकती। पुलिस की गाड़ी में बैठकर आतंकवादी गोलियां चला रहे थे। हम कहां जा रहे हैं? सबसे बुरी बात तो ये है कि ये हमले-धमाके हमारी आदत में शामिल होते जा रहे हैं। कश्मीरियों का ख्याल आ रहा है। जो अनिश्चित सुबह, अनिश्चित शाम के साथ जीते हैं। अब पूरा देश कश्मीर बनता जा रहा है।

18 November 2008

"बचाओ- विलुप्त हो सकते हैं गिद्ध"





अगले दस साल में विलुप्त हो सकते हैं एशियाई गिद्ध। इससे पहले भी मैं बचाओ सीरीज़ के तहत खतरे में आए प्राणियों पर जानकारी दे चुकी हूं। पृथ्वी के बहुत सारे जीव-जंतु बदले पारिस्थितक तंत्र में अपने अस्तित्व को खोते जा रहे हैं। एशियाई गिद्ध भी इन्हीं में से एक है। गिद्धों की संख्या में आ रही कमी के लिए ज़िम्मेदार है जानवरों को जी जानेवाली एक दवा, जिसका नाम है डाइक्लोफेनाक। ये दवा जानवरों को दर्द के लिए दी जाती है। हालांकि इस दवा पर प्रतिबंध हैं फिर भी ये बाज़ार में उपलब्ध रहती है और इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल होता है।

एक सर्वे के मुताबिक सफ़ेद पूँछ वाले एशियाई गिद्धों की संख्या 1992 की तुलना में 99.9 प्रतिशत तक कम हो गई है। लंबे चोंच वाले और पतले चोंच वाले गिद्धों की संख्या में भी इसी अवधि में 97 प्रतिशत की कमी आई है। ज़ूलॉजिकल सोसायटी ऑफ़ लंदन के एंड्र्यू कनिंघम इस रिपोर्ट के सहलेखक भी हैं. वे कहते हैं, "इन दो प्रजातियों के गिद्ध तो 16 प्रतिशत, प्रतिवर्ष की दर से कम होते जा रहे हैं."

गिद्ध को धरती के सफाई सहायक के तौर पर जाना जाता है। इसलिए गिद्धों को न केवल एक प्रजाति के तौर पर बचाया जाना ज़रुरी है बल्कि यह पर्यावरणीय संतुलन के लिए भी ज़रुरी है। गिद्ध नहीं रहे तो आवारा कुत्तों से लेकर कई जानवरों तक मरने के बाद सड़ते पड़े रहेंगे और उनकी सफ़ाई करने वाला कोई नहीं होगा और इससे संक्रामक रोगों का ख़तरा बढ़ेगा.


(फोटो गूगल से)

05 November 2008

हमें क्यों पसंद हैं ओबामा?



राष्ट्रपति पद पर ओबामा की जीत अमेरिका के लिए नये युग की शुरुआत है और हम सब की निगाहें भी ओबामा पर टिकी हैं। हालांकि आउट सोर्सिंग और न्यूक्लियर डील जैसे मसलों पर ओबामा की राय भारत के लिए सकारात्मक नहीं रही पर फिर भी ओबामा में अपनापन झलक रहा है। वजह, उनका अश्वेत होना? दुनिया के सबसे शक्तिशाली पद पर उस समूह का एक शख्स काबिज़ हो रहा है जो नस्लभेद का शिकार रहा, सदियों तक ग़ुलामी झेली, अपेक्षाकृत कमज़ोर वर्ग का प्रतिनिधि। क्या इसीलिए हम ओबामा से ज्यादा निकटता महसूस कर रहे हैं? ओबामा के रुप में अहंकारी अमेरिका की छवि भी टूटती है इसलिए भी शायद उनके खाते में ज्यादा समर्थन आया।

ओबामा के साथ-साथ हिलेरी क्लिंटन की दावेदारी ने भी अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव को इस बार ख़ास बना दिया था। मान लीजिए ओबामा सीन में नहीं होते, हिलेरी और मैक्केन आमने-सामने होते तब शायद हिलेरी के पक्ष में जनता जाती? फिर बुश की नीतियां भी रिपब्लकिन पार्टी के लिए हार की वजह बनी। ओबामा में अमेरिकी जनता को भी नई संभावनाएं दिख रही होंगी और दुनिया के दूसरे देशों को भी।

ओबामा नए हीरो की तरह लग रहे हैं। अमेरिका का बाज़ार पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है। अमेरिका के राष्ट्रपति के फैसले पूरी दुनिया पर असर डालते हैं। इराक-अफगानिस्तान जैसे तमाम उदाहरण हमारे पास हैं। तो अमेरिका के नए राष्ट्रपति पर पूरी दुनिया की निगाहें तो होंगी ही। दुनियाभर में उनकी जीत का जश्न भी मनाया जा रहा है। जरूरी नहीं कि ओबामा की नीतियां भी भविष्य में लोगों को पसंद आएं पर फिलहाल ओबामा तो पसंद आ रहे हैं।

हो सकता है आनेवाले वक़्त में हमारे यहां भी ओबामा सरीखा परिवर्तन हो। यूपी की मुख्यमंत्री मायावती जैसे नेताओं की दावेदारी इस उम्मीद को जरूर आगे बढ़ाती है। हां लेकिन धर्म-जाति-क्षेत्र-भाषा जैसे मुद्दों पर हमारी तू-तू-मैं-मैं खत्म होगी? लगता नहीं है।

(चित्र बीबीसी से साभार)