18 January 2015

कोहरे में सफ़र

रोड डायरी


मौत का सफ़र कैसा होता होगा। एक ऐसा सफ़र जो शुरू तो हुआ मगर कोई अंत नहीं। जिसकी कोई दिशा नहीं। कोई लेफ्ट राइट कट नहीं। जहां कोई चौराहा या रेडलाइट नहीं आती। जहां कहीं पहुंचना नहीं होता। जहां कोई दृश्य नहीं होता। कोई मंज़िल नहीं दिखती। बस सफ़र होता है। ये तो कोरी कल्पना है। लेकिन  कोहरे में अगर आप सफ़र कर रहे हों तो ये सच्चाई है। कोहेर का सफ़र मौत के सफ़र  सरीखा ही लगता है। कोई आदि नहीं कोई अंत नहीं। डरे, ठिठके, सावधान, असमंजस, खौफनाक ख्याल...।


दफ़्तर का सफ़र तय करने के लिए सर्दियों की सुबह के कोई पौने 6 बजे घर से निकली। घर का दरवाजा खोला तो हर दृश्य को ढांपता बस कोहरा दिखा। लेकिन इतना घना कोहरा होगा कि एक हाथ आगे कुछ न दिखायी दे, ये अनुमान नहीं लगा पायी। सड़क पर सफेद बादल उड़ रहे हों जैसे। अब एक बार सफ़र पर निकल पड़े तो लौटने का इरादा नहीं बन सका। खैर कोहरे में ये ख़ौफ़नाक सफ़र शुरू हो चुका था। कोई 200-300 मीटर आगे बढ़ते ही सब तरफ सफेद अंधेरा छा गया।  ऐसा लग रहा  था जैसे मौसम को एनेस्थिसिया का इंजेक्शन दे दिया गया हो  और बेहोशी चढ़ रही हो। सड़क पर गाड़ियां कम ही थीं। इस समय में किसी दूसरी गाड़ी का दिख जाना हिम्मत बंधाने जैसा था। दो गाड़ियां, दो अनजाने लोग साथ चलते तो जैसे जान में जान रहती। मेरे घर से नेशनल हाईवे 24 कुछ ही दूरी पर है। ये हाईवे बस हादसों की ही याद दिलाता  है। हाईवे  के तिराहे की रेडलाइट तक तो पहुंच गई अब यहां से राइट कट लेना जान पर खेलने जैसा लग रहा था। दूर से किसी बाइक की टिमटिमाती सी हेडलाइट दिख रही थी। रोशनी से दूरी का अंदाज़ा लगाते हुए कार आगे बढ़ा दी। दूसरी तरफ कोई रोशनी नहीं दिख रही थी तो जान पर खेलकर चढ़ आए हाईवे पर। हाईवे घुप्प अंधेरे में डूबा हुआ था। स्ट्रीट लाइटेें बुझी हुई थीं। सड़क के किस छोर पर हूं, कहीं डिवाइडर से तो नहीं टकरा जाऊंगी, कुछ समझ पाना मुश्किल साबित हो रहा था।गाड़ी की हेड लाइट में डिवाइडर की काली-सफेद पट्टियां ही दिख पा रही थीं।  उन्हीं पट्टियों के सहारे आगे बढ़ रही थी। रियर मिरर में देखा कि पीछे से कोई बस या ट्रक जैसा भारी  भरकम वाहन आ रहा है। इस आशंका के साथ कि कहीं पीछे से गाड़ी को टक्कर न मार  दे उस वाहन का आना राहत भरा भी लगा। उसकी तेज़ रोशनी में सड़क कुछ ज्यादा दिख रही थी। सड़क के उपर ओझल सी पीली रोशनी  से पता चला कि चौराहा आ गया है और अब यहां से बायें मुड़ जाना है।  इस राह का हाल और बुरा था। उत्तर प्रदेश की आर्थिक राजधानी नोएडा की स्ट्रीट लाइटें इस जानलेवा मौसम में भी बंद पड़ी थीं।


वो व्यक्ति जिसने कभी दुनिया देखी न हो, जिसने कभी रोशनी देखी न हो वो इस दुनिया में किस तरह चलता होगा। आवाज़ों की तीव्रता, ध्वनि के उतार-चढ़ाव से अपने रास्ते तय करता होगा। कुछ न दिख पाने की सूरत में उन लोगों का ख्याल आ रहा था। कुछ आगे बढ़ने पर एक बाइक वाला दिखा जो सामान लादे जा रहे रिक्शे  को अपने पैर से टेक दे रहा था। ये जुगाड़पन इस घने कोहरे में भी। बाएं-दाएं और सीधे आंखें तकरीबन गड़ाते हुए आगे बढ़ रही थी। रोशनी का कोई सुराग नहीं दिख रहा था।  धीमी गति से आगे बढ़ते हुए  ख्याल बड़ी तीव्रता से आ रहे थे। घर छोड़कर आई छोटी बच्ची...ज़िंदगी के लिए नौकरी, नौकरी का संकट, भविष्य का संकट, निरुद्देश्य होने का संकट….। सड़क पर संकट, संकट से बच निकलने की चतुराई। इन सड़कों पर कोई भी लम्हा मौत की दस्तक हो सकता है। यहां से सुरक्षित अपने ठिकानों तक पहुंच जाना ही हर रोज़ की बड़ी बात हो जैसे।


डिवाइडर की काली-सफेद पट्टियां एक दूसरे से लिपटी हुई भाग रही थीं। ख्याल भी  कुछ इसी तरह।
ग्लैडिएटर ...योद्धा…युद्ध...किसके लिए युद्ध..बड़े पदों पर आसीन कुलीनों के मनोरंजन के लिए...उन्माद में चीखती दर्शक दीर्घा..अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए एक बेड़े में खड़े ग्लैडिएटर...इन्हें लड़ना होगा अपने ही किसी साथी से….किसी एक को ढेर कर ही ये अपनी ज़िंदगी हासिल करेंगे...लेखक हावर्ट फास्ट...हम भी तो हैं ग्लैडिएटर...हमारा युद्द क्यों...बस जीने भर के लिए…हमारा मक़सद…घने कोहरे को छांटते हुए उस दफ्तर तक पहुंचना जो अब किसी मंजिल पर नहीं ले जाता..जहां कोई सफ़र भी नहीं...ठहराव...दिशाहीन… तालाब का पानी...।
अगला तिराहा आ पहुंचा और गाड़ी के साथ-साथ ख्यालों के भी ब्रेक लगे। अब राइट टाइम पर एक राइट टर्न लेना है। तिराहे के साथ दिक्कत है कि आप एक ओर की सड़क को देखकर, दूसरी सड़क की ओर आगे बढ़ सकते हैं लेकिन तीसरी सड़क हमेशा एक चांस पर निर्भर करती है। ज्यादातर चांस सही लगता है कोई गाड़ी आ भी रही होती है तो संभलते हुए रुक जाती है लेकिन अगर एक चांस भी गलत लग गया तो...। प्रॉबेबेिलिटी की थ्योरी  ख्याल आ रही थी। एक बात के घटने की संभाव्यता कितनी हो सकती है। फिलहात तो राइट चांस लेते हुए  आगे बढ़ रही थी। मेरे पीछे आ रही गाड़ी ने अपनी रफ्तार धीमी कर दी ताकि वो मेरी गाड़ी की ओट में आगे बढ़ता रहे। यानी अगर कोई दुर्घटना इंतज़ार कर रही होगी तो उसकी पहली मेहमान मैं होऊंगी। पर इस वजह से मैं रूक तो नहीं सकती। एक-दो और चौराहों से गुजरकर मैं दफ्तर के काफी नज़दीक पहुंच चुकी हूं। मगर ये क्या। यहां वाला चौराहा तो घुप्प कोहरे की अंधेरी गुफा की तरह तब्दील हो गया हो जैसे। कोई ओर-छोर नज़र नहीं आ रहा था। डिवाइडर की पट्टियां भी गुम हो गईं। सड़क के लेफ्ट राइट कट कहां और कितनी दूर हैं इसका अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता। मन कर रहा था कि गाड़ी यहीं रोक दूं। लेकिन ये भी जानलेवा था। पीछे सेे आती कोई भी गाड़ी ठोंक देती।     
ये सफ़र किस्मत और गणित के साथ चल रहा था। पुराने सफ़र की दूरियों के अंदाज़े का गणित। अब यहां कट आ जाना चाहिए। प्रॉबेबिलिटी की थ्योरी क्या कहती है। सड़क पर अपनी उपस्थिति का एहसास कराने के लिए बीच में हॉर्न भी दे रही थी। यहां मैं हूं, जो भी यहां हैं वो ये जान लें, ये मेरी गाड़ी का  ह़ॉर्न है, यहां मैं हूं। किस्मत और गणित दोनों इस बार साथ हैं। एक-दो और खतरनाक लगते मोड़ों को पार करते हुए मुझे अपने दफ़्तर का गेट दिखायी दे गया। गाड़ी पार्क करते हुए भी कोहरा डरा रहा था। हमेशा की तरह बोगनवेलिया के पेड़ के नीचे गाड़ी लगायी। जिसके फूल गाड़ी के शीशे पर छा जाते थे। लौटने पर जैसे मेरा स्वागत करते हों।  दफ्तर में प्रवेश के लिए कार्ड के साथ अंगूठा लगाते हुए सोचा कि जानलेवा सफ़र था पर अब इस पर हंसा जा सकता था।

11 January 2015

साक्षी महाराज के उपदेश का गणित


साक्षी महाराज के उपदेश का गणित
(चित्र गूगल से साभार)

साक्षी महाराज चाहते हैं कि हिंदू महिलाएं कम से कम चार बच्चे पैदा करें।  भारत की पिछली सरकारों की सारी मुहिम पर पानी फेरते हुए उनका ये व्यक्तव्य आया। तब कि इस देश के रेलवे -बस स्टेशन, मंदिरों, पर्यटन स्थलों पर भूखे-बेछत-बेआसरा बच्चे बिलबिलाते हुए घूमते हैं। अनाथालयों में बच्चों की संख्या में कोई कमी नहीं है। यहां तक कि बाल सुधार गृह  बच्चों से भरे हुए हैं।
इस सब के साथ एक बच्चे की अच्छी परवरिश कर पाना, उसे देश का एक अच्छा नागरिक बनाने के लिए तैयार करना कितना मुश्किल काम है, इस बात से साक्षी महाराज अनभिज्ञ तो नहीं हो सकते। वो सिर्फ पूजा-पाठ करनेवाले महाराज नहीं बल्कि एक सांसद भी हैं।  
सम्मानजनक तरीके से एक हिंदू महिला को एक बच्चे को जन्म देना होता है तो पैसों  के कितने ब्रेकर्स आते हैं, साक्षी महाराज को ये जानना जरूरी है।नौ महीने में कम से कम नौ बार तो डॉक्टर के पास जाना ही होता है, इससे ज्यादा भी जाना पड़ सकता है। खांसी जुकाम के ढंग के डॉक्टर की फीस भी 400-500 रुपये है। साधारण स्त्री रोग विशेषज्ञ की फीस 500 रुपये रख लीजिए। तो नौ महीने में  4500 हजार रुपये तो सिर्फ डॉक्टर की फीस हो गई। शुरुआती दौर में डॉक्टर्स कुछ अल्ट्रासाउंड भी कराती ही हैं, दो अल्ट्रासाउंड को दो हजार रुपये जोड़ देते हैं तो 6500 रुपये हुए। जबकि मेरा खुद का अनुभव कई अल्ट्रासाउंड से गुजर चुका है। नौ महीने जो दवाएं जच्चा को खानी पड़ती हैं और इसके साथ  ज्यादा पौष्टिक आहार की जरूरत होती है तो दोनों को मिलाकर दस हजार रुपये रख दें तो अब तक का कुल खर्च हुआ 16500 रुपये। एक साधारण प्राइवेट अस्पताल या नर्सिंग होम में नॉर्मल डिलिवरी में भी 20 से 30 हज़ार रुपये लग जाते हैं। यदि ऑपरेशन हुआ तो कम से कम पचास हजार रुपये। डॉक्टर आजकल आपरेशन के मौके छोड़ते नहीं  तो डिलिवरी और उसके बाद दवाइयों का खर्च मिलाकर पचास हजार रुपये जोड़ लें तो अब हम पहुंच गए 66,500 रुपये पर।
बच्चे का जन्म खुशियां लेकर आता है और जिम्मेदारियां भी, इसके साथ बढ़ा खर्च भी। बच्चे के जन्म के बाद उसके टीकाकरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। सरकारी अस्पतालों में मेरा तो विश्वास है नहीं। प्राइवेट डॉक्टर्स जो इंजेक्शन लगवाते हैं हजार, दो हजार, तीन हजार से कम के नहीं होते। अलग-अलग इंजेक्शन के अलग-अलग खर्च होते हैं और सबके सुपर डोज भी। एक डोज से काम चलता नहीं। पांच साल की उम्र तक बच्चों को कई इंजेक्शन लग जाते हैं। मौटे और न्यूनतम तौर पर हम दस हजार रुपये सिर्फ इंजेक्शन के जोड़ लेते हैं। तो अब कुल खर्चा 76,500 रुपये पहुंच गया है। इसके अलावा बच्चों के सेरेलेक, डाइपर और बच्चे को दूध पिलाने की अवस्था में मां का पौष्टिक आहार महंगाई के इस दौर में सस्ता नहीं है। एक महीने में सेरेलेक के दो डब्बे यानी हजार रुपये। ऑर्डनरी डाइपर का हिसाब जोड़ें तो पांच सौ रुपये हर महीना कम से कम। तो इस 1500 रुपये का एक साल के हिसाब से खर्च जोड़िये  17,000 रुपये। तो अब कुल रकम 93,500 रुपये। ये बच्चे के पहले जन्मदिन तक होने वाला मोटा खर्च है। छोटे बच्चे बीमार भी पड़ते हैं, उनके कपड़े, खेल-खिलौने और जरूरत की दूसरी चीजें इस लिस्ट में नहीं जोड़ी गई हैं।
साल दर साल इस खर्च में इजाफा ही होता है। डॉक्टर की फीस, दवाइयों की कीमत,दूध की कीमत, अस्पतालों का खर्च बढ़ता ही है। तो चार बच्चों का पहले एक साल का कुल खर्च हुआ 3,74,000 रुपये।
मैंने अपनी बेटी का एडमिशन एक पब्लिक स्कूल में कराया है। मैं चाहती हूं मेरी बेटी को अच्छी शिक्षा मिले। उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों की हालत आप जाकर देख सकते हैं। किसी भी प्राइवेट स्कूल में इन दिनों डोनेशन 50 हजार से उपर ही है। मुझे कोई 70 हजार रुपये देने पड़े। चलिये आप पचास हजार रुपये के हिसाब से ही जोड़ लें तो चार बच्चों के एक ढंग के स्कूल में एडमिशन का चार्ज दो लाख रुपये से तीन लाख रुपये के बीच आएगा। दो लाख रुपये ही जोड़ते हैं तो अब तक बजट हो चुका है  5,74 ,000 रुपये। बारहवीं तक की पढ़ायी यानी 14 साल। हर साल फीस और स्कूल बस का खर्च जोड़ते हैं। साधारण स्कूलों की फीस दो हजार रुपये से शुरू होती है। अच्छे स्कूलों की आठ-दस हजार रुपये मासिक से उपर जाती है। उसके उपर के स्कूल को छोड़ देते हैं। मैं इस समय त्रैमासिक तकरीबन 20 हजार रुपये बतौर फीस दे रही हूं। तो चार किस्ते हुईं 80 हजार रुपये और एनुअल फी को जोड़ें तो एक लाख रुपये सालाना से ज्यादा। चार बच्चे यानी चार लाख सालाना। 14 साल तक पढ़ायी यानी 4 गुणा 14 लाख रुपये हुए 56 लाख रुपये। इस 56 लाख में पुराने बजट को जोड़ दें तो ये हुए  61,74,500 रुपये।
सिर्फ पढ़ायी का खर्च जोड़ा गया है। बच्चों की स्कूल किताबें, खान-पान, दवाइयां, खेल-खिलौने, कपड़े और कई सारी दूसरी चीजों का औसतन खर्च क्या निकालेंगे। बहुत कम रकम रखते हुए भी 20 हजार रुपये सालाना राशि मान लेते हैं। एक बच्चे का 18 साल की उम्र तक सालाना 20 हजार रुपये का मतलब हुआ कुल  3,60,000 रुपये। हालांकि एक्चुअल रकम इससे कहीं ज्यादा होगी। अब चार बच्चों का इस हिसाब से खर्च हुआ 14,40,000 रुपये। उपर की कुल रकम में इसे जोड़िये।
हम पहुंच गए हैं 76,14,500 रुपये पर। मैं एक नौकरीपेशा महिला हूं। मेरी एक बेटी है। नौकरी और परिवार दोनों की जिम्मेदारी साथ उठाना बहुत मुश्किल होता है। हमारी सोसाइटी में शादीशुदा महिला की नौकरी ही शर्तों में बंध जाती है, उनकी तरक्की के मौके कम होते जाते हैं। चार बच्चों के साथ तो मैं नौकरी नहीं कर पाउंगी। जाहिर है मेरी नौकरी छूट जाएगी। तो मेरी नौकरी छूटने की भरपायी भी जरूरी है। क्योंकि उसके बिना तो बच्चे पाले ही नहीं जा सकेंगे, न उनका खर्च उठाया जा सकेगा। तो साधारण तौर पर पांच लाख रुपये सालाना मानते हुए मुझे 18 साल तक पांच लाख रुपये सालाना का भुगतान करें और इसमें हर  साल होने वाले 20 फीसद इंक्रीमेंट को भी जोड़ें। मेरा गणित बहुत अच्छा है नहीं इसलिए मैं पहले पांच लाख रुपये सालाना के हिसाब से 18 साल का हिसाब बताती हूं। ये होगा कोई 90लाख रुपये। चलिए 18 साल की कमाई मिनिमम से भी कम इंक्रीमेंट के साथ एक करोड़ रुपये जोड़ देते हैं।
तो अब कुल रकम हुई 1 करोड़ 76 लाख, 14 हजार 5 सौ रुपये।  अब मेरा पहला बच्चा या तो कॉलेज जाएगा या इंजीनियरिंग, मेडिकल, एमबीए जैसी कोई पढ़ाई करेगा। ग्रेजुएशन और उच्च शिक्षा का खर्च जोड़ दें वो भी न्यूनतम तो 5 से 10 लाख रुपये का खर्च आएगा। तो अब 1 करोड़ 76 लाख, 14 हजार 5 सौ रुपये को मोटे तौर पर दो करोड़ रुपये मान लें। चार बच्चे तो पैदा हो जाएंगे लेकिन ये दो करोड़ रुपये कहां से आएंगे। इन पैसों में आप घर का खर्च, मकान खरीदने का खर्च, बाइक-कार का खर्च, बिजली के बिलों, डॉक्टरों के बिलों जैसे तमाम खर्चे जोड़ दें तो ये रकम जाने कहां चली जाएगी। अब आधार कार्ड और सीधे अकाउंट में पैसा डालने की व्यवस्था शुरु हो गई है। देश की आधी आबादी के लिहाज से साक्षी महाराज सब माओं के अकाउंट में ये दो-दो करोड़ रुपये डलवा दें।