07 December 2011

दो बातें

दो बातें ध्यान आ रही थीं, लिखने का दिल चाहा।
एक तो गूगल-फेसबुक को लेकर हमारी सरकार का डर और इसे प्रतिबंधित या नियंत्रित करने का विचार (जो शायद संभव नहीं)। कितनी ख़ौफ़जदा है हमारी सरकार। यहां मनमोहन की कविता याद आई।

तो पहली बात थी, मनमोहन की ये कविता...

फूल के खिलने का डर है
सो पहले फूल का खिलना बरखास्त
फिर फूल बरखास्त
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हवा के चलने का डर है
सो हवा का चलना बरखास्त
फिर हवा बरखास्त
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डर है पानी के बहने का
सीधी-सी बात
पानी का बहना बरखास्त
न काबू आए तो पानी बरखास्त
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सवाल उठने का सवाल ही नही
सवाल का उठना बरखास्त
सवाल उठाने वाला बरखास्त
यानी सवाल बरखास्त
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असहमति कोई है तो असहमति बरखास्त
असहमत बरखास्त
और फिर सभा बरखास्त
जनता का डर
तो पूरी जनता बरखास्त
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किले में बंद हथियारबंद खौफ़जदा
बौना तानाशाह चिल्लाता है
बरखास्त बरखास्त
रातों को जगता है चिल्लाता है
खुशबू को गिरफ़्तार करो
उड़ते पंछी को गोली मारो ।
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दूसरी बात
अभी कुछ देर पहले एक ख़बर लिख रही थी। ख़बर थी कानपुर के एक रिक्शेवाले की, जो बीस बरस पहले कराची से कानपुर घूमने आया था, यहां मल्लिका बेगम नाम की लड़की से प्यार करने लगा, दोनों ने शादी कर ली, तीन बच्चे पैदा हुए। अरशदउल्लाह नाम था उस शख्स का। इस सबमें उसका वीज़ा एक्सपायर हो गया, तो ग़ैर कानूनी तरीके से एक पाकिस्तानी हिंदुस्तान में रह रहा है। उसकी बीवी एक बार पाकिस्तान गई भी, पर वहां के हालात को देख इन्होंने हिंदुस्तान में ही रहने का फैसला किया। रिक्शा चलाता है अरशदउल्लाह। एसओजी उसे पकड़कर ले गई। दस महीने बाद ज़मानत मिली। नियमानुसार अरशदउल्लाह को हिंदुस्तान में रहने की इजाज़त मिल सकती है, क्योंकि उसने एक हिंदुस्तानी महिला से शादी की और यहां रहते हुए उसे 7 साल से ज्यादा वक़्त गुज़र चुका है। इस ख़बर को लिखते-लिखते एक वाक्य लिखा मैंने....


"जेल की चारदीवारी के इधर और उधर सड़क की दूरी कानून के लिहाज़ से कई बार सालों लंबी हो जाती है। अरशदउल्लाह को ये दूरी तय करने में दस महीने लंबा वक़्त लगा।"

17 August 2011

बरसात का एक दिन, साढ़े १२ बजे


बरसात का एक दिन था ये, बरसात की किसी रात से बेहतर, सुंदर। बादलों ने जैसे शहर को घेर लिया था। सूरज को क़ैद कर लिया था। पंछी अपने पंख फुलाकर खिड़कियों, छत, रेलिंग, खिड़की पर टंगे एसी जैसी जगहों पर छिपे फिर रहे थे। कपड़े सूख नहीं रहे थे, कमरों में एक खिड़की से दूसरी खिड़की पर रस्सी बांधनी पड़ी। हर चीज से नमी की बू आ रही थी। मौसम ठंडा था, चाय-कॉफी का ख्याल बार-बार आता। कॉफी की खुश्बू ज्यादा अच्छी लगती और चाय पीने में, अरे अदरकवाली चाय।
धूप का इंतज़ार बिलकुल न था, जबकि हर चीज पानी से चिप-चिप कर रही थी। गैलरी में भी पानी भर गया था, टहलने की जगह न थी। बारिश की बौछारें कभी-कभी आतीं और फिर बादल आराम फरमाने लग जाते। ये ऐसा मौसम था, जिसमें एक अच्छी चाय पी सकती थी, एक अच्छी किताब पढी जा सकती थी, एक अच्छी फिल्म देखी जा सकती थी, किसी यार-दोस्त से फोन पर गप्प मारी जा सकती थी, पड़ोसियों से यूं-हीं इधर-उधर की बातें की जा सकती थीं या खुद भी कुछ लिखने का जी चाहता।
ये बरसात का एक सुखद दिन था। जो दरअसल मुश्किल से नसीब होता है। वरना इस वक़्त तो दफ़्तर में होना था और दुनियाभर की ख़बरों को तोड़ना-मरोड़ना था। किसी की हत्या, किसी के बलात्कार की ख़बर को सटीक शब्दों में बताना था। कुछ सही स्लग, कुछ सही हेडलाइन के बारे में सोचते हुए न्यूज़रूम की आर्टिफिशियल लाइट्स जो आंखों को कुछ सालों में खराब करने के लिए बहुत से ज्यादा काफी थीं वहीं एक केबिन की कांच से बाहर का छोटा सा टुकड़ा दिख जाता, दरअसल दिखती तो सिर्फ एक दीवार थी, लेकिन दो दीवारों के बीच की खाली जगह में मौसम का कुछ-कुछ अनुमान लग जाता, बारिश की बूंदें देखने की कोशिश होती, या धूप का थोड़ा-बहुत पता चल जाता। लेकिन इस कांच से देखकर भी साफ-साफ मौसम का अनुमान नहीं लगाया जा सकता, शायद मौसम विज्ञानी भी ऐसी किसी कांच के पार से मौसम का अनुमान लगाते होंगे, जो कभी सही नहीं होतीं।

लेकिन न्यूज़रूम की इस कांच के पार से अगर अच्छे मौसम का ज़रा भी अनुमान लगता तो जी चाहता फट बाहर भागकर जाएं, कुछ लम्हों के लिए सही, मौसम को अपनी निगाहों में भर लें, बारिश को अपने सीने में संजो लें, कुछ बूंदें हथेलियों से छूकर, उसका एहसास अपने साथ लेकर आ जाएं।

लेकिन एक खड़ूस टाइप के व्यक्ति हमारी निगहबानी के लिए तैनात थे, उनका काम था हमसे काम लेना, ज़्यादा से ज़्यादा, वैसे वो उसी से काम ले पाते थे जो काम करते थे, जो काम नहीं करते, वो उनसे काम नहीं ले पाते थे। इसलिए उनपर गुस्सा आता, क्योंकि कई बार वो सचमुच क्रूर हो जाते।

बीमारी की वजह से ही सही, बरसात का ये दिन जिसमें रात से कुछ ही ज्यादा उजाला है बस, अंधेरे से थोड़ा ही कम अंधेरा है बस, बड़ा अच्छा लगता है। खिड़की से नज़र आता है, कबूतर पंख फुलाए बैठे हैं, बेटी बारिश में जाने की जिद कर रही है, उसे बुखार है।

24 February 2011

सुबह-सुबह ही








आज सुबह से मुलाकात तय थी
कॉल की थी, बात तय थी
सोचा, सुबह को बुलाने के लिए
मिस्ड कॉल एक दे दूं
पर कॉलबैक की उम्मीद न थी
तो सुबह के आने से पहले
कॉल ही एक कर दी
च्च्च्च
पर मुलाकात से ठीक पहले सुबह
हमारे विशालकाय न्यूज़ फ्लोर से
बाहर रह गई
खिड़कियां भी नहीं जहां झांकने के लिए

नारंगी सूरज फिर मिलेंगे
हां आज मिलने की तमन्ना थी

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बारिश की कुछ बूंदें
और एक प्याली चाय
कुछ बूंदों की टिप-टिप सर पर
कुछ प्याली में
भीगी सड़कें, ज्यादा सुंदर
टिपटिप के बीच, भागते कदम
हाथ में चाय का प्लास्टिक प्याला लिए
उसकी गर्माहट को बचाना भी था
न्यूज़रूम से निकल
सड़क किनारे चायशाला तक
आना-जाना
कुछ चुस्कियों के लिए
बहाने बनाना
दिनभर की भागदौड़ के लिए
चंद चुस्कियां
थोड़ा निकोटिन
बंद नसों के खुलने के लिए
थोड़ी चीनी
मिठास बनाए रखने के लिए
इस सुबह तो
बारिश की बूंदों में पगी चाय
दिल की नर्माहट के लिए
बोनस जैसे
सुबह
एक अच्छी शुरुआत
तुम्हारे लिए

15 February 2011

वेलेंटाइन डे पर अपने ब्लॉग पर कोई प्रेम कविता डालने की योजना बनाई थी, नेट पर ढूंढ़ा, कुछ नहीं मिला, खुद से कुछ लिख नहीं पायी, कोई और चीज, कोई और बात, कोई और ख्याल दिमाग़ में साफ नहीं था। वैलेंटाइन डे पर घर के कामों की व्यस्तता में इस बारे में सोचने की फुर्सत भी नहीं मिली। वैलेनटाइन डे याद भी नहीं रहा हालांकि उससे एक दिन पहले ख़बरों को बुनने के लिए नेट पर कुछ प्रेम कविताएं ढूंढ़ रही थी। सबको मिलाजुला कर एक जगह रखा, कुछ अपनी तरफ से भी जोड़ती जा रही थी,साथ रखीं प्रेम पंक्तियां मुझे अच्छी लगी। दो दिन बाद वही ब्लॉग पर देने का ख्याल आया....तो इसलिए


प्रेम तो कुछ ऐसा है कि पार कर जाते हैं आप
सारी नदियां, सारे पहाड़, महासागर
संगीत के वाद्य यंत्र खुद ही बजने लगते हैं
उजाला और साफ दिखने लगता है
अंधेरा जैसे जगमगाता है
समूची दुनिया ही जैसे कलर करेक्शन के साथ
और ख़ूबसूरत हो जाती है
आंसू भी जब छलकते हैं
तो लगता है कि आंखों से लहू टपकते हैं
प्रिय के हाथ में हाथ
तभी ख़ामोशी भी करती है बात



(पीले गुलाब इसलिए क्योंकि मैंने सपने में अपने पतिदेव को पीला गुलाब दिया, जिसके बारे में बताया तो जनाब ने मज़ाक बना दिया, कहा अगले साल सफेद गुलाब देना, उसके अगले साल सूखी डंडी, लाल गुलाब नहीं थे इसलिए, वैसे वो पीले गुलाब सपने में गजब के पीले थे, सुंदर-मखमली-पारदर्शी, उसके लिए शब्द नहीं ऐसे)

26 January 2011

घर
जो घर से ज्यादा फ्लैट है
जाड़ों में पांच बजे सुबह
जो सुबह से ज्यादा रात थी
सोसाइटी
जो मोहल्लों का संक्षिप्त, मॉर्डन रूप है

निकलते ही गाड़ी थर्ड गियर में डाली
और अंधेरे ने डरा दिया
सनसनीखेज़ वारदातों की
ख़बरें बनाने के पेशे में हूं
जिसमें
यूपी पुलिस को छक कर गालियां दी जाती हैं
सारी वारदातें सेकेंड के सौवें हिस्से में ज़ेहन से गुज़र गईं
आधा रोमांटिसिज़्म, आधा डर
और पूरी मैं

दफ्तर का रास्ता तेज़ रफ़्तार में तय किया
रास्ते में खड़े पंचर ट्रक मिले
ख्याल आया
खड़े ट्रक से भिड़कर जबरदस्त एक्सीडेंट की ख़बरें भी बनाई हैं

पर सुबह से ठीक पहले रात
बड़ी नर्म, मुलायम, प्यारी थी
रात से मुझे लगाव भी ज्यादा है

10 मिनट में दफ्तर पहुंची
और सीधा नेट पर फैज़ को पढ़ा
कम्प्यूटर के कीबोर्ड पर
अपने शब्दों की किटकिट शुरू करने से पहले
एक प्याली चाय के लिए
दफ्तर के बाहर ठेले पर गई

सामने से बस गुज़री
पीछे की दो सीटें खाली थी बस
सामने पीछे कुछ आग ताप रहे लोग भी थे
अंधेरे में आग की छोटी लपटें
बड़ी फोटोज़ेनिक लग रही थीं
एक बिस्किट के साथ बढ़िया चाय
पूरे दिन का शिड्यूल ख्याल आया
लगा
ये ज़िंदगी
या तो एक तेज़ भागती धड़धड़ाती कविता है
या फिर मशीन
सोचा इस पर कुछ लिखूंगी
कोई कविता
जो लिखनी आती नहीं

03 January 2011











तुम उनकी साज़िशों को खत्म कर दोगे
तुम प्रवंचना की उनकी कुटिल
चालों का अंत कर दोगे
हत्याएं करने-करवाने की
ठंडी फांसियां देने-दिलवाने की
चुपचाप ज़हर घोलने-घुलवाने की
कारागार की नाटकीय कोठरियों में
मानवता को गलाने-गलवाने की
यानी, उनकी एक-एक साज़िश को
तुम खत्म कर दोगे
हमेशा-हमेशा के लिए
मैं तुम्हारा ही पता लगाने के लिए
घूमता फिर रहा हूं
सारा-सारा दिन, सारी-सारी रात
आगामी युगों के मुक्ति सैनिक
कहां हो तुम?
{विनायक सेन, फिर शंकर गुहा नियोगी के बारे में जानकारियां जुटाते-जुटाते बाबा नागार्जुन की कविता पढ़ने को मिल गई... }