30 November 2010


ड्राइविंग सीट पर बैठने के बाद, हैंड्ब्रेक नीचे, सर्दियों की शुरुआत हो चुकी है तो शीशा आधा खुला, रियर व्यू मिरर को सेट किया, फर्स्ट गेयर, एक्सलरेटर पर पैर दबाया, क्लच छोड़ा, पार्किंग से गाड़ी निकालने के लिए हैंडल बायीं ओर पूरा मोड़ दिया और क्लच छोड़ने के कुछ सेकेंड बाद हैंडल से हाथ हटाया, गाड़ी के पहिये सीधे,ज़ोर का रॉर्न ताकि सिक्योरिटी गार्ड गेट खोलने का अपना काम तय समय पर कर दें, गाड़ी रोकनी न पड़े।

पहला राइट और फिर लेफ्ट, सुबह तड़के का वक़्त है तो स्कूली बच्चों, धीमी रफ्तार में बढ़ रहे रिक्शे, सड़कें खाली समझ किसी भी मोड़ या कट प्वाइंट से बेधड़क चले आनेवाले वाहनों को बचाते-संभालते, चालीस, पचास, साठ, अचानक दस, बीस, तीस, स्पीडोमीटर पर रफ्तार की सुई टहल रही थी। साठ-सत्तर मीटर के बाद आ गया हाईवे, अब राइट होना है।

सुबह रेडलाइट क्रॉस करने में कोई दिक्कत नहीं, बस चारों तरफ आ रही गाड़ियों पर सेकेंड में फैसला कर लेनेवाली नज़र डाल लेनी होती है, फैसला हुआ, दूर से दौड़ती आ रही बस अभी दूर ही थी, रेडलाइट क्रॉस, राइट टर्न।

ड्राइविंग में बार-बार रियर मिरर देखना अच्छा नहीं माना जाता, लेकिन यहां तो बार-बार निगाह रियर मिरर पर ही जा रही थी, जाने कौन डिपर मार रहा था, हल्की केसरिया रोशनी रियर व्यू मिरर पर पसर रही थी, लगा कौन है, इतनी सुबह मुझसे भी ज्यादा तेज़ी से भागने की हड़बड़ी में, मेरे ऑफिस में तो वक़्त पर न पहुंचो ते लेट लग जाती है, तीन लेट पर एक दिन की छुट्टी कट और मैं दो बार लेट हो चुकी थी, इस महीने तीसरे लेट के मूड में नहीं थी, तो एक्सलरेटर पर पांवों के दबाव से स्पीडोमीटर की सुई को ऊपर की ओर भगा रही ती। फिर किसी ने डिपर मारा। अब मैंने ध्यान दे ही दिया और डिपर मारनेवाले को देख हैरत, मुस्कान, अपनी गलती पर ध्यान, हड़बड़ी की समाप्ति, कई भाव-विचार एक साथ आते-जाते गए।

ये तो धरती के सबसे करीब रहनेवाला तारा था। आग का गोला। जो हमारे दिन रात को तय करता था। जिसकी किसी सूरत में लेट मार्क तो नहीं होती होगी, होती भी कैसे, ये तो समय का पाबंद था, नहीं तो हमारा समय गड्डमडड हो जाता। सिर्फ हमारा क्यों, पेड़ों का, चिड़ियों का, कुत्तों का, सबका शेड्यूल बिगड़ जाता। इसलिए इस तारे को लेट होने की इजाज़त नहीं थी। महीने में एक दिन भी नहीं। हां बादल, धुंध इसे दिखने से रोक सकते हैं लेकिन ये आ तो अपने तय वक़्त पर जाता है, हां वक़्त मौसम के हिसाब से बदल लेता है, पर एक फिक्स शेड्यूल में तो ये आग का गोला रहता ही है।

तो मैं लेट हो रही थी और रियर मिरर में अचानक इसकी डिपर को देख जैसे बहुत सारी बातें एक साथ समझ आ गईं। एक्सलरेटर पर दबाव अब इतना नहीं था। स्पीडोमीटर की सुई भी इत्मीनान में आ गई थी। हाईवे से लेफ्ट टर्न कर मैं नीचे उतर गई थी। जहां स्कूल बसें ज्यादा मिलती हैं। अब ये तारा रियर व्यू मिरर की जगह थोड़ा लेफ्ट को खिसक कर अपनी केसरिया रोशनी फेंक रहा था। कह रहा था जैसे संभल, थोड़ा धीरे जल। मैंने कहा चल हट, गाड़ी लेफ्ट राइट होने पर मैं उसकी पकड़ से आजा़द हो जाती, लेकिन फिर एकाएक वो डिपर मार देता। कुछ और दूर तक हमारा ये खेल चला। वो मुझे समझाता रहा। हां मैं समझती भी रही।

हड़बड़ी खत्म हो चुकी थी। अब गाड़ी आराम से बढ़ रही थी, ऑफिस में प्रवेश के साथ इसे टाटा-बाय-बाय करने का वक़्त आ गया था। क्योंकि अभी तो ये रियर मिरर में नहीं आनेवाला। लेकिन इसकी डिपर ने आज की सुबह शानदार कर दी थी। लेकिन कल लेट नहीं होऊंगी, ऐसा मैं आज दावे से नहीं कह सकती।

सॉरी सूरज।

23 November 2010

गुड-गुड, ओके-ओके


मुस्कान ऐसी हो
मुस्कान ऐसी कि होठों को चीरकर कानों तक भाग जाए, दांत 32 की जगह(अगर पूरे 32 होते हों) 64 होने को बेक़रार हों।
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रीढ़ कैसी हो
रीढ़ जिसकी पांवों के साथ 90 डिग्री का कोण मौका भांपकर तत्काल बनाए। क्षण के सौवें हिस्से में प्रकाश की गति से तेज़ ये कोण बनता और बिगड़ता हो।
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दिमाग़ हो तो ऐसा
सत्तासीन और सत्तासीन के क़रीब रहनेवाले(चाहे चतुर्थश्रेणी में आनेवाले चपरासी हों)से पूरी संजीदगी के साथ वही बात करें कि दिन को रात कहें तो रात ही लगे, चाहे अपने घर की लाइटें बुझानी पड़े। मस्तिष्क जिसका कोई प्रतिक्रिया न देता हो, सिर्फ वही करता हो जो कहा जाता हो। ऐसा नेचुरल प्रॉसेस के तहत हो, अभिनय नहीं।
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उपस्थिति
तेज़ आवाज़, भौकाल करने की जबरदस्त क्षमता कि एक ही बार में उपस्थिति दर्ज हो जाए, बाद में चाहे ग़ुमशुदा-ग़ुमशुदा।
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नाराज़गी
इसमें भी कुछ बात होनी चाहिए कि लोग पूरी सहानुभूति के साथ बोलें अरे वो नाराज़ है, आपको मनाने को लोग आतुर हों, इस अभिनय में ब्रेक न लें, लगातार रोनी सूरत बनाए रखें।
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ज़ुबान
हां, जी, यस, ओके, ठीक, सही, वाह, कमाल, बढ़िया, बिलकुल जैसे शब्द बोलने की ज़ुबान को आदत हो, इसके विलोम आते ही न हों।
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कान
अबे, बदतमीज़, बेवकूफ, गधा, काट डालूंगा, मार डालूंगा, ऐसा कैसे, कैसे-वैसे-जैसे-जैसे, ये करो, वो करो, ये न करो, वो न करो, समझे, नहीं समझे, समझा दूंगा, ये करो, वो करो....जैसी बातें कान ठीक-ठीक सुनना जानते हों।

यदि ये योग्यताएं आप रखते हैं तो किसी भी नौकरी में तरक्की तय है। चाहे इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके डॉक्टरी करने निकले हों या फिर डाटा एंट्री ऑपरेटर के जैसे पत्रकारिता करने निकले हों।

16 November 2010




रिहाई मुबारक
कुछ लोग पर्वत से होते हैं, अडिग, निर्भय। आंग सांग सू ची, मणिपुर की इरोम शर्मिला...इन नामों को सुनकर सहम भी जाती हूं,फक्र भी होता है, प्रेरणा भी मिलती है। ये जीतेजागते लोग दरअसल ज़िंदगी हैं। इनकी नज़रबंदी, इनकी भूख हड़ताल, ज़िंदगी की असली जद्दोजहद है, कहां हम थोड़ी-थोड़ी बातों के लिए घबराते हैं,अपनी छोटी-छोटी मुश्किलों के पहाड़ में दबे रह जाते हैं। ये हिम्मत देती हैं, हमें, हमारे हौसले को।