25 December 2008

बात पैसों की नहीं है

मैं उस समय खुद को बहुत असहज महसूस करती हूं जब कोई मेरे सामने हाथ फैलाए। भिक्षावृत्ति रोकने के लिए मेरी राय में भीख नहीं देनी चाहिए और जब भिखारी प्रोफेशनल हों। जैसे सड़कों-चौराहों पर बच्चे को गोद में लेकर उनके नाम पर भीख मांगती हट्टी-कट्टी औरतें।
स्कूल के वक़्त में एक बार ऐसी ही एक औरत को मैंने बीस रुपये दिए थे, जो उस वक़्त मेरी पॉकेटमनी के हिसाब से बहुत थे, वो औरत अपने पति के एक्सीडेंट के बाद इलाज़ के लिए पैसे मांग रही थी। चंद हफ्तों बाद मैंने उसे दूसरी जगह पर उसी बहाने से पैसे मांगते देखा। तब मैंने तय किया था कि भीख नहीं दूंगी।

कुछ महीने पहले की बात है। एक औरत और उसका सोलह सत्रह साल का बेटा मेरे ऑफिस के बाहर खड़े थे। कह रहे थे महाराष्ट्र से आए हैं,पति को ढूंढ रहे हैं, वो मिला नहीं, घर जाने को पैसे नहीं। मैंने चाय की दुकान पर ऑफिस के कुछ लोगों को उससे मिलवाया। हमने तय किया कि इन्हें पैसे दे देते हैं फिर चाय भी पिलवाई। महिला के हुलिये से समझने की कोशिश कर रहे थे ये महाराष्ट्रियन है या नहीं। चायवाला कह रहा था पैसे मत देना ये झूठ बोल रहे हैं, फिर भी पैसे दिए कि अगर ये झूठ भी रहे हों तो हमारे कितने पैसे ज़ाया होंगे, क्या पता सच कह रहे हों तो ऐसे में हम अपने शक़ की बिनाह पर उनकी मदद भी न कर पाएंगे।

थोड़े ही दिनों पहले एक और घटना है। दरवाजे पर दो नौजवान आए। दिल्ली में किसी आशा नशा मुक्ति केंद्र का सर्टिफिकेट दिखा रहे थे। पहले मैंने उन्हें जाने को कह दिया और दरवाजा बंद कर लिया। पर फिर बेचैनी हो गई। मैंने उन्हें आवाज़ देकर बुलाया। उनके सर्टिफिकेट्स देखे, एक कैलेंडर भी था उनके पास, मैंने चंद रुपयों की मदद दे दी और सोचा पता करुंगी इस नशा मुक्ति केंद्र के बारे में।

अभी थोड़ी देर पहले दो कश्मीरी लड़कियां आईं। बताया कि दिल्ली के आईएसबीटी शास्त्री पार्क में इनका कैंप है। जम्मू-कश्मीर में बर्फ़बारी के वक़्त ये लोग यहां आ जाते हैं। इनके मिट्टी के मकान हैं जहां ठंड में रहना बहुत मुश्किल होता है। कैंप में कुछ लोग काम भी करते हैं, कपड़े प्रेस करते हैं, लड़कियां डीएवी की किसी ब्रांच में पढ़ती भी हैं, कोई कश्मीरी टीचर है जो इन्हें पढ़ाती है, इम्तिहान ये कश्मीर में ही देते हैं। समझ नहीं आया क्या करूं, फिर असहज महसूस करने लगी।

यहां भी मैंने कुछ पैसे दे दिए, फिर इनसे बातें भी की। दोनों ने कुछ खाने को मांगा तो फल दिए और उन्हें घर में आकर खाने का ऑफर भी दिया। पर उन्होंने मना कर दिया। दोनों लड़कियां बहुत ही प्यारी लग रही थी। मैंने दरवाजा बंद कर लिया।

उन्होंने मेरे पड़ोस में घंटी बजाई, पड़ोस की औरत ने उन्हें डपट दिया- "सिक्योरिटी गार्ड तुम्हें अंदर कैसे आने देते हैं, हमारे पास कोई और काम नहीं, तुम्हारी बातें सुनें.." इतनी ही आवाज़ कान में पड़ी।

पर अब भी मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा। सड़क पर बैठे भिखारियों को न कहने पर कभी बुरा नहीं लगता। बहुत सारे लोग ग़रीब या विकलांग का सर्टिफिकेट बनवाकर घर पर भी पैसे मांगने आ जाते हैं, उन्हें भी पैसे देने की इच्छा नहीं होती। बात दरअसल पैसों की नहीं है। पर अगर कोई सचमुच मदद मांगने आया हो तो उसे लौटाना ठीक नहीं लगता। जाने कौन सचमुच मुश्किल में फंसा है, कौन ठगी कर रहा है।

20 December 2008

लाइफ को तो प्री-पेड कराओ




ये लाइफ टाइम प्री-पेड कार्ड है, वैलिडिटी खत्म होने की चिंता खत्म, बस पैसे डालो और टॉकिंग-शॉकिंग शुरु। जनाब इरफ़ान ख़ान साब भी टीवी पर ऐसा ही कुछ बांचते नज़र आते हैं। लेकिन लाइफ-टाइम प्री-पेड कार्ड बेचनेवाले की कॉल ने मेरी कज़न के लाइफ का बहुत सारा टाइम खा लिया। वो झल्ला जाती। जब लाइफ का टाइम नहीं फिक्स्ड है तो लाइफ टाइम प्री-पेड कार्ड का क्या मतलब। पहले लाइफ को प्री-पेड कराओ तब तो लेंगे लाइफ टाइम प्री-पेड कार्ड। ख़ैर मैं और मेरी कज़न इस बात पर बहुत देर तक हंसते रहे। फिर हमने गर्व से कहा हम तो पोस्ट-पेड वाले हैं। लाइफ-टाइम टॉकिंग-सॉकिंग से एक महीने के बिल की छुट्टी।

09 December 2008

क्या हम खरे हैं ?


क्या हम चेकिंग के लिए लगी लंबी कतार देखकर झल्लाते नहीं। इससे बचने के उपाय नहीं ढूंढ़ते?
क्या मॉल-सिनेमाहॉल जैसी भीड़भाड़वाली जगहों पर सिक्योरिटी वाले महज दिखावे की चेकिंग नहीं करते। क्या हम उसकी शिकायत करते हैं?
क्या हम अपने ईर्द-गिर्द घट रही संदिग्ध चीजों को बड़ी आसानी से नज़रअंदाज़ कर आगे नहीं बढ़ जाते?
क्या हम ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट और ऐसे तमाम काम करवाने के लिए उपर से पैसा नहीं देते?
क्या हम सड़क पर कूड़ना नहीं फैलाते?
क्या हम रेड लाइट क्रॉस नहीं करते?
क्या हम कार की सीट बेल्ट लगाकर चलते हैं?
क्या हम बाइक पर हेलमेट लगाकर चलते हैं?
क्या हम अपनी सड़कों को गंदा नहीं करते?
क्या हम जो बोलते हैं, लिखते हैं, भाषणबाज़ी करते हैं, असल ज़िंदगी में हम उतने ही खरे हैं?
ऐसे बहुत से सवाल हैं जो हमें खुद से भी पूछने चाहिए। आतंकी हमलों से लेकर सड़कें गंदी करने तक में हम शामिल हैं।
हमारी कमज़ोरियां ही दुश्मन की ताक़त हैं। जब तक हम नहीं सुधरेंगे, देश कैसे सुधरेगा?

05 December 2008

चलो कुछ उम्मीद ले आएं








जो सर्जक हैं
रचते हैं जीवन की
बुनियादी शर्तें
और गाते हैं
चलो, उनसे
उम्मीदों की उम्र
सपनों की गहराई
और उड़ान की
ऊंचाई मांग लाएं
अनाज की पूलियों
की तरह
लाद कर घर लाएं


(ये कविता मैंने अपने कमरे की दीवार पर छपे पोस्टर से ली है। किसकी है ये पता नहीं। पर कविता बहुत सुंदर है, उम्मीद देती है जीने के लिए। पिछली पोस्ट को मैं जल्द से जल्द नीचे लाना चाहती थी,शायद हटा भी देती, लेकिन टिप्पणियां पोस्ट से ज्यादा सार्थक थीं इसलिए नहीं हटाई, कुछ नया डालने की जद्दोजहद में कुछ मिला नहीं, फिर इस कविता पर नज़र गई, तो सोचा यही क्यों नहीं)