17 March 2015

हिंदी लेखक, लेखक बाद में है

हिंदी के लेखक सिर्फ लेखक होकर क्यों नहीं जी सकते जबकि अंग्रेजी के लेखक सिर्फ अपनी कलम से ही आजीविका चला सकते हैं। क्या तर्क ये कि हिंदी का बाज़ार ग़रीब है । हिंदी पट्टी के लोग आर्थिक तौर पर संपन्न नहीं। हिंदी का लेखक, लेखक बाद में होता है, पहले वो अध्यापक होता है  या कहीं क्लर्क होता है या  फिर कोई और नौकरी। सिर्फ लेखन उसका पेशा हो ये संभव नहीं बन पाता। जबकि अंग्रेजी में सिर्फ लेखन से ही लेखक आराम से जी सकता है, परिवार पोस सकता है, शहर दर शहर भ्रमण कर सकता है।


अपने ही देश में हिंदी कैसे मात खा रही है इसका नमूना अखबारों, टीवी चैनलों या दूरदर्शन में निकलनेवाली नौकरियों से लगाया जा सकता है। अपने अंग्रेजी चैनल के लिए जिस पैकेज पर लोगों को नौकरी पर रखता है, हिंदी चैनल में पैसा आधे से भी कम हो जाता है। देश में सबसे ज्यादा अखबार हिंदी भाषा में निकलते हैं तब ये कि हिंदी के लेखकों को, अंग्रेजी के लेखकों की तुलना में एक लेख पर अपेक्षाकृत कम पैसे मिलते हैं।


हिंदुस्तान टाइम्स(17 मार्च 2015) में एक रोचक लेख छपा। भारतीय मूल के कुछ अंग्रेजी अरबपति लेखक( बैंड ऑफ बिलियनर्स)।  अंग्रेजी के (विवादित) लेखक सलमान रश्दी की संपत्ति 15 मिलियन डॉलर।  वीएस नायपॉल 7 मिलियन डॉलर। विक्रम सेठ 5 मिलियन डॉलर। किरन देसाई 3 मिलियन डॉलर। अंग्रेजी के पॉप्युलर लेखक चेतन भगत की संपत्ति 1.3 मिलियन डॉलर।  


मुझे यहां ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मराठी लेखक भालचंद्र नेमाडे की बातें भी याद आ रही हैं। नेमाडे ने कहा कि सलमान रश्दी और वीएस नायपॉल की कृतियों में साहित्यिक मर्म और मूल्यों का अभाव है।
(इस विवादित कार्टून को अंग्रेजी-हिंदी संदर्भ में भी रख सकते हैं,
चित्र गूगल से साभार)
नेमाडे ने सलमान रश्दी की कृतियों पर कहा था कि इन सब में उन्होंने पूरब और एशिया के लोगों की निंदा की और नाकारत्मक पक्ष पेश किया, पश्चिम को ख़ुश करने का प्रयास किया।  नायपॉल को लेकर नेमाडे ने कहा कि भारत को समझने के लिए उन्हें तीन बार फेलोशिप पर भारत आना पड़ा। अगर किसी लेखक को किसी विषय पर समझ बनाने के लिए इतनी बार फेलोशिप लेनी पड़े तो वो लेखक कैसा।
सलमान रश्दी और वीएस नायपॉल सबसे अमीर (अंग्रेजी) लेखकों में से हैं।


हिंदी के उन अग्रणी लेखकों की याद आ रही है जिनकी रचनाएं स्कूली किताबों में पढ़कर हम बड़े हुए। अपने जीवन के अंत समय में जिन्होंने बेहद मुश्किल से गुजारे। इलाज के लिए पैसे तक न मिल पाए। निराला का जीवन घोर गरीबी, त्रासदी, संघर्ष से घिरा रहा। आर्थिक तंगी से जूझते रहे अमरकांत का इंटरव्यू पढ़ा था कि लेखक न तो शहीद होता है न मोहताज।


आज के इस समय में कई लेखक-पत्रकारों की हालत देख रही हूं। समय से पहले नौकरियों से बाहर कर दिये गये लोग जो काबिल हैं और तिल-तिल कर मर रहे हैं। कई साल पत्रकारिता में गर्क करने के बाद दूसरे कामधंधे के बारे में सोच रहे हैं। क्योंकि कम पैसे पर काम करने के लिए नौजवान तैयार हैं।  एक वरिष्ठ की जगह  मालिक दो कनिष्ठों को रखने की रणनीति पर काम कर रहा है। तो दस पंद्रह साल की नौकरी के बाद  कईयों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जा रहा है। 35 की उम्र में रिटायर कर दिया जा रहा है। हिंदी लेखकों के साथ तो स्थिति इतनी बुरी है कि काम कराये जाने के बाद उनका पैसा कब आएगा, आएगा या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं।  अंग्रेजी लेखक रॉयल्टी का सुख उठाते होंगे हिंदी लेखक इसकी उम्मीद बेहद कम ही करते हैं।


हां कमाई करनेवाले हिंदी लेखक भी हैं। साल के बारह महीने जिनके कार्यक्रम  तय होते हैं। देश के सबसे अमीर कवि भी हैं जिन्हें कवि सम्मेलन में जाने के लिए लाखों के चेक मिलते हैं। मगर ऐसे लेखक और कवि चुनिंदा हैं और इतर वजहों से भी जाने जाते हैं।


और आखिर में ये देश हिंदी सिने प्रेमियों का है। जहां हिंदी सिनेमा की धूम रहती है। हिंदी फिल्में रिलीज होने के कुछ ही दिनों में सौ करोड़ की कमाई कर लेती हैं।  हिंदी अभिनेता-अभिनेत्रियों को एक फिल्म में अभिनय करने के करोड़ों रुपये मिलते हैं। लेकिन इन फिल्मों-प्रोडक्शन हाउस-सीरीयलों में काम करने के लिए अंग्रेजी आनी आवश्यक है। हिंदी फिल्मों की स्क्रिप्ट हिंदी नहीं अंग्रेजी में लिखी जाती है। हिंदी कहानी को सबमिट करने के लिए अंग्रेजी में अनुवाद करना पड़ता है। पुरस्कार के लिए जमा की जानी वाली रचनाएं यदि अंग्रेजी से इतर भाषा की हैं तो उनका अंग्रेजी में अनुवाद कराना पड़ता है। अब बताइये कि हिंदी फीचर का अगर कोई अंग्रेजी में अनुवाद करेगा तो शब्दों और भाषा का रस कहां रह जाएगा। और जाहिर है कि हिंदी में लिखनेवाला लेखक स्वयं तो अंग्रेजी अनुवाद कर नहीं पाएगा। हिंदी पट्टी में ही हिंदी अछूत है, उपेक्षित है और हिंदी भाषी  बेबस-मजबूर।

09 March 2015

India's Daughter, शुक्रिया leslee udwin












शुरू-शुरू में तो मुझे भी बेहद अजीब लगा कि एक रेपिस्ट बताएगा लड़कियों को कैसा रहना चाहिए, किस समय घर से  बाहर निकलनेावली लड़कियां गंदी लड़कियां हैं, रेपिस्ट समझाएगा कि महज 20 फीसद लड़कियां ही अच्छी लड़कियां हैं।   
लेकिन शुक्रिया लेजली उडविन का। India’s Daughter के नाम से उन्होंने एक बेहतरीन डॉक्युमेंट्री बनायी। वो जो हम न बना सके। डॉक्युमेंट्री देखने के बाद मेरा विचार बदला।
इस पर प्रतिबंध लगाया जाना मुझे ठीक नहीं लगता। तब भी जब मुझे ये लग रहा था कि एक रेपिस्ट के विचारों को लोग जानें। दरअसल मेरा डर ये था कि लोग, अधिकांशत: युवा, नकारात्मक बातों को जल्दी स्वीकार करते हैं। अपराध की दुनिया, अपराधी की सोच जाने-अनजाने हमारे अवचेतन पर नकारात्मक प्रभाव छोड़ते हैं। जैसे भद्दे गाने, एक्शन फिल्में जल्दी पॉप्युलर होती हैं, अच्छी चीजों को जगह बनाने में वक़्त लगता है।

डॉक्युमेंट्री देखते हुए एक बार भी  बीच में रुकने की इच्छा नहीं हुई। निर्भया के मां-बाप की बातें, अपराधी मुकेश की बातें एक दूसरे को काउंटर कर रही थीं। जब मुकेश कहता है कि लड़कियों को रात में अकेले  बाहर नहीं निकलना चाहिए तब निर्भया की मां बताती है कि उसकी बेटी रात 8 बजे से सुबह 4 बजे तक इंटरनेशनल कॉल सेंटर में काम करती थी, ताकि अपनी पढ़ाई का खर्च उठा सके और फिर सुबह कॉलेज जाती थी। मुकेश कहता है कि लड़कियों का काम है घर की साफ-सफाई, खाना बनाना...। निर्भया की मां बताती है कि उसकी बेटी ने पढ़ने के लिए कितनी मेहनत की, पिता से कहा कि जो पैसे उन्होंने उसके दहेज के लिए रखे हैं उसे पढ़ाई पर खर्च कर दीजिए। आंखों में गर्व और आंसू लिए मां  बताती है कि कैसे एक छोटे से शहर में रहनेवाली लड़की ने अपनी अंग्रेजी इतनी अच्छी कर ली कि उसे अमेरिकन इंटरनेशनल कॉल सेंटर में नौकरी मिल गई।

पूरी डॉक्युमेंट्री में अपराधियों के चेहरे पर अपने किये पर पछतावे के कोई लक्षण नहीं दिखे। मुकेश बताता है कि आगे कोई रेप करेगा तो लड़की को जिंदा नहीं छोड़ेगा ताकि वो उसे पहचान न सके। कानून का ये खौफ़ हैे अपराधियों पर। तो यहां शर्म हमारी कानून व्यवस्था को लागू करनेवालों को आनी चाहिए। मुकेश तकरीबन वही बातें कर रहा था जो सचमुच हमारे ईर्दगिर्द रहनेवाले ज्यादातर लोग करते हैं। उसकी बातें शरीफ लोगों को बातों जैसी ही थीं।  हम एक रेपिस्ट की कुंठित मानसिकता ही नहीं समझ रहे थे, उसे  सुनते हुए अपने चारों तरफ के तमाम लोग  ख्याल आ रहे थे जो यही बातें बोलते हैं। यही बात गीतकार-सांसद जावेद अख्तर ने कही-”डॉक्युमेंट्री को सामने आने दीजिए, एक रेपिस्ट वही तो बोल रहा है जो आम शरीफ लोग बोलते हैं, जो बातें वो संसद के गलियारे में अक्सर ही सुनते हैं।”
लेकिन सबसे ज्यादा घिन तो अपराधियों का केस लड़नेवाले दोनों वकीलों की बातों को सुनकर आ रही थी।  जो एक लड़की को कभी नाजुक फूल बना रहे थे, तो कभी उस पर पेट्रोल डालकर जलाने की बात कह रहे थे। उनकी सोच तो अपराधियों से भी ज्यादा  खौफनाक और लीचड़ थी। उनके मुंह से लिजलिजी बातें निकल रही थीं, जो एक रेपिस्ट की बातों से भी ज्यादा खतरनाक थीं। छी...।

लेजली की डॉक्युमेंट्री देखते हुए एक और बात समझ आ रही थी। लेजली उन झुग्गियों में गईं जहां मुकेश और उसके साथी रहते थे। उनके परिवारों के हालात, उन झुग्गियों के हालात देख यही लग रहा था कि ये जगहें तो अपराधी बनाती हैं। जहां जीने के लिए इतने बदतर हालात हों,वहां गुदड़ी का लाल तो कोई एक आध बनेगा ज्यादातर तो  नकारात्मक ऊर्जा से ही प्रभावित होंगे। रात को जगमगाती ऊंची-ऊंची इमारतों के साये में बसी, हर तरह के अंधेरे में डूबी झुग्गियां कैसे इंसान बनाएंगी। जहां एक मां कहती है कि मुझे तो पता ही नहीं था कि मेरा बेेटा जिंदा भी है, वो तो पुलिस जब उसे ढूंढ़ते हुए आई तो पता लगा कि मेरा बेटा जिंदा है,मैं तो उसे मरा हुआ मान चुकी थी।

डॉक्युमेंट्री में निर्भया आंदोलन के दृश्य दोबारा देख एक बार फिर रगों में जमा ख़ून खौलने लगा कि क्या हम सचमुच भूल चुके थे उस आंदोलन को। हमारी मांग सिर्फ निर्भया फंड तो नहीं थी। लगा कि दोषियों को फांसी देने में इतना वक़्त निकल जाता है कि फांसी की सज़ा का जो असर जनमानस पर होना चाहिए था वो अब नहीं होगा। फिर ऐसी फांसी का मतलब भी नहीं रह जाता है। और हां मैं भी ऐसे अपराधियों पर फांसी के पक्ष में हूं जो ऐसे जघन्य अपराध करते हैं। लेकिन दीमापुर की घटना के पक्ष में बिलकुल नहीं जहां रेपिस्ट को जेल से निकालकर भीड़ जानवर बन गई।
आखिर में शुक्रिया Leslee Udwin, you have done a great job. और ज्योति अपने नाम की तरह ही तुमने दुनिया को नई ज्योति दी।