17 December 2016

चाह कर भी न कर सकी जो प्यार



अस्पताल की खिड़की से तारों को वो एक टक लगाए देख रही थी। जैसे आसमान के सीने में उफनते उसके सपने, ख्वाहिशें, उसके प्रेम के प्रतीक हों वे तारे। अस्पताल की इस खिड़की से दिखता आसमान का ये टुकड़ा मेरा है, पूरी तरह मेरा। मेरे पास अपनी ज़मीन नहीं लेकिन यह धरती मेरी है। रात का समय। यह खुली खिड़की। खिड़की से आती ठंडी हवा। तारों भरा आसमान। कम से कम ये सारे तो मेरे हैं। इन्हें तो मुझसे कोई नहीं छीन सकता। रात का यह गहरा नीलापन जैसे उसके उदास ह्रदय में डूबता चला जाता है।
जेल की चारदीवारी से दिखनेवाला आसमान भी तो उस रोज़ इतना ही खूबसूरत लग रहा था। रात अपनी सी लगती है। दिलासा देती, दुख बांटती, मुश्किलों को सिराहने रखती, और उनसे निपटने के उपाय सुझाती। रात को दुनिया अपनी लगती है।


उसके पत्र मैंने छिपा दिए हैं। अपनी किताब के पन्नों के बीच। उसने मुझसे प्रेम जताया और मेरा साथ चाहता है। मैं हां कहना चाहती हूं। सचमुच मैं उसे हां में ही जवाब देना चाहती हूं। मैं कल्पना कर सकती हूं कि रात में हम किसी रोज एक दूसरे का हाथ पकड़ किसी शांत सड़क पर सैर कर रहे होंगे। दूर, पहाड़ हमें देख रहे होंगे। वे हमारे साथ-साथ चलने पर खुशी जता रहे होंगे। तारे हमें देख रहे होंगे। वे और जगमगाहट बिखेर कर अपनी ख़ुशी जताने की कोशिश कर रहे होंगे। हम पेड़ों की बात करेंगे। तारों की। आसमान की। और हमारे मणिपुर की। मणिपुर हमारा स्वर्ग है। धरती का स्वर्ग है। जो चंद लोगों के हाथों में कैद हो गया है। हमारे स्वर्ग पर बंदूक की नाल से चारदीवारी खड़ी कर दी गई है। कुछ वर्दीधारियों ने हमारी धरती की खुशी छीन ली। वे हमारी मांओं, बहनों, बेटियों की अस्मत से खेल रहे हैं। वे हमारे लोगों की ज़िंदगी से खेल रहे हैं। वे हम भोले-भाले पहाड़ी लोगों को, हमारे ही घरों से बाहर खींच लाते हैं और फिर गोली दाग देते हैं। हम अपने रास्तों पर अपने गीत गुनगुनाते जा रहे होते हैं, वे हमे रोकते हैं, हमारा पता पूछते हैं और फिर हम पर बंदूक तान देते हैं। हम अपनी गर्दन, और सीने, और बाजुओं से निकलते गर्म लहू को महसूस कर सकते हैं। वे हमारे जिस्म में अपनी नफरत का ज्वार भर देते हैं। हमारे जिस्म को अपने इस्तेमाल की वस्तु बना देते हैं। यह सब देख लेने पर हमारे छोटे भाई के सिर पर गोली मार देते हैं। हम स्वर्ग के बाशिंदे। हम बेबस लोग। हमारी हरी भरी धरती। यहां दहशत की सड़कें बिछी हैं। हम बारूद खाते हैं। बारूद सोचते हैं। बारूद की महक हमारे सपनों में भी भर गई है। हम अपना घर छोड़ जाने को मजबूर हैं। ताकि हम जिंदा रह सकें। सुरक्षित रह सकें।


अपने पत्र में उसने लिखा है कि उसे ऐसा लगता है कि वह अपनी ज़िंदगी मेरे साथ बिताना चाहता है। वह मेरे दर्द को समझ सकता है। मेरे मिशन का सम्मान करता है। मेरा इंटरव्यू लेते समय उसकी आंखें कुछ और भी सवाल मुझसे पूछ रही थीं। पत्र में उसने लिखा है कि उसे मुझसे लगाव हो गया है। क्या मैं उसके प्रेम निवेदन को स्वीकार करूंगी।

मैं भी तो उसे चाहती हूं। शायद उस इंटरव्यू के वक़्त मैंने भी कुछ ऐसा महसूस किया था। हमारे देश भारत का कोई व्यक्ति मेरा इंटरव्यू लेने के लिए कभी इस तरह इच्छुक नहीं हुआ। कभी मुझसे ऐसे सवाल नहीं पूछे, जो उसने पूछे। आखिर मैं क्या चाहती हूं अपनी ज़िंदगी से। मैं प्रेम भी कर सकती हूं। क्या मुझे इसकी इजाज़त नहीं। राजधानी दिल्ली में भी मेरे पास कम ही पत्रकार आए थे। वो ब्रिटिश मैगजीन से मेरे पास आया था। अंग्रेज़ होते हुए भी वो मेरी भावनाओं को समझ गया।

हो सकता है इंटरव्यू के दौरान नहीं बल्कि उसका पहला पत्र पाकर मैंने दिल में प्रेम का कंपन महसूस किया हो। या फिर उसके दूसरे पत्र पर, या तीसरे पत्र पर। क्या फर्क पड़ता है। उसके कितने पत्र आए। मुझतक उसके कितने पत्र पहुंच सके। मुझे तो यह भी ठीक-ठीक पता नहीं। मेरे ईर्दगिर्द के लोग नहीं चाहते कि मैं प्रेम करूं। पर सच तो ये है कि मैं उसे हां कहना चाहती हूं। यह जानते हुए भी कि मुझे प्रेम करने की इजाज़त नहीं। फिर मेरे मिशन का क्या होगा। मेरे मिशन से जुड़े लोग। मिशन से जुड़े कई लोगों का अपना स्वार्थ भी। मेरा मिशन मेरे राज्य के लिए भी है। मैं खुद भी अपने मिशन को पूरा करना चाहती हूं। मुझे अपनी जान की परवाह नहीं। अपने प्रेम की भी परवाह नहीं। मेरा अपना प्रेम मेरे मिशन के आगे बेहद तुच्छ है। इस मिशन को मैंने अपने जीवन के अनमोल बारह साल दे दिए। मैंने इतने सालों से भोजन का स्वाद नहीं चखा। मेरी नाक में जबरन नली डालकर मुझे जिंदा रखा गया है। मुझ पर कितने केस चल रहे हैं। कितने लोगों की उम्मीद बंधी है मुझसे। मैं उनकी उम्मीद और अपने संघर्ष को पीछे नहीं छोड़ सकती।


उन्हें इन पत्रों के बारे में पता चल गया है। वे सोचते हैं कि ये एक पत्रकार के पत्र हैं। इसलिए मुझे ये पत्र देते रहे। मेरे घरवालों तक के पत्र उन्होंने बिना पढ़े मुझे नहीं दिए थे। मेरे साथ जुड़े कार्यकर्ताओं ने कल्पना भी नहीं की होगी कि कोई इन पत्रों में मुझसे प्रेम का अनुरोध कर रहा है। जब उन्हें इसका पता चला तो उन्होंने मुझसे न कहने को कहा। मुझे प्रेम की इजाज़त नहीं है। मैं उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ नहीं जा सकती। मैं कई सालों से रोई नहीं। मैं पत्थर सी हो गई हूं। मैं खुद को कई बार बहुत बेबस महसूस करती हूं। चाह कर भी नहीं कर सकती जो प्यार। मैंने उन लोगों से कह दिया है- आप जैसा चाहते हैं, मैं वैसे ही करूंगी।


मैंने उसे पत्र लिख दिया है। मैं तुमसे प्रेम तो कर सकती हूं लेकिन तुम्हारे साथ भी आ सकूं, यह मुश्किल ही है। तो तुम फिलहाल मेरा जवाब न ही समझो। मैं मणिपुर का संघर्ष हूं। ताकि यहां प्रेम पल सके। मैं मणिपुर की ताकत हूं ताकि हमारी बेटियां यहां सुरक्षित रह सकें। हो सकता है कभी वह दिन आए जब हम थाम सकें एक दूसरे का हाथ।
(नवभारत टाइम्स ब्लॉग में प्रकाशित
लिंक: http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/varshasingh/i-wanted-to-love-him-but-couldnt/)

20 August 2016

मिशेल ओबामा का दमदार भाषण






विश्व के शक्तिशाली मंचों में से एक पर खड़े होकर पूरे आत्मविश्वास के साथ मुस्कुराना। दर्शकों को अपनी बात सुनने के लिए आतुर देखना। अपने एक एक शब्द पर दर्शकों की ओर से तालियों की गड़गड़ाहट, उत्साह से गूंजता हॉल। यह किसी नेता के लिए नहीं बल्कि उसकी पत्नी के लिए था। दर्शकों की ऐसी प्रतिक्रिया बराक ओबामा को पहली बार अमेरिका के राष्ट्रपति चुने जाने पर मिली थी। कुछ वैसी ही प्रतिक्रिया मिशेल ओबामा को अब मिल रही है, जब बराक ओबामा व्हाइट हाउस से विदा लेने वाले हैं। आठ वर्षों तक अमेरिका ने एक अश्वेत को राष्ट्रपति पद पर बनाए रखा। अब एक महिला यहां नई परंपरा की नींव डालने के लिए राष्ट्रपति पद की प्रमुख दावेदार है।  

डेमोक्रेटिक नेशनल कन्वेन्शन में अमेरिका की फर्स्ट लेडी मिशेल ओबामा के भाषण की बहुत तारीफ हुई। यहां तक कहा गया कि यदि मिशेल ओबामा चुनाव लड़ने के लिए आएं तो शायद जीत जाएं। अमेरिका की फर्स्ट लेडी बनने के बाद मिशेल ओबामा की तारीफ पहले पहल उनके लिबास को लेकर खूब हुई। उनका स्टाइल लोगों को खूब भाया। वे किस तरह के कपड़े पहनती हैं अमेरिकी मीडिया समेत तमाम देशों के मीडिया ने इसी पर फोकस किया। मिशेल जब अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ भारत दौरे पर आईं तो यहां भी उनके कपड़ों पर ही बात की गई। क्या इस महिला की बात सिर्फ उसके स्टाइल और कपड़ों के लिए होनी चाहिए। मेरी राय में मिशेल की भूमिका इससे आगे भी है।

बराक ओबामा के आठ वर्षों के कार्यकाल में मिशेल की तस्वीरें मीडिया के लिए एक्सक्लूसिव बनी रहीं। कुछ इस तरह कि जैसे वे कोई बड़ी फिल्मी स्टार हों। उनका सांस्कृतिक समारोहों में जाना। बच्चों के साथ हिलना मिलना। अपनी दो बेटियों की परवरिश। बराक ओबामा के साथ भी उनकी रोजमर्रा की तस्वीरें भी कुछ कौतुहल के साथ इस तरह देखी जाती रहीं, कि देखो एक ताकतवर देश का राष्ट्रपति और उसकी पत्नी कितने आम लोग सरीखे लगते हैं। बराक फूलों के छाप वाली शर्ट पहनकर मिशेल के कंधे पर हाथ रखकर फोटो खिंचवाते हैं। जैसे कि कोई भी आम व्यक्ति अपने परिवार के साथ फुर्सत के क्षण बिताता है। दरअसल हमारे देश में यह आडंबर है। हम अपने नेता, अभिनेता को आम लोगों की तरह व्यवहार करते देख ही नहीं पाते। जो तस्वीरें या वीडियो फुटेज सामने आते हैं उसमें वे एक खास दंभ से भरे नज़र आते हैं। और अगर किसी ओहदेदार व्यक्ति की यूं ही सी कोई तस्वीर नज़र आ जाए तो उसकी चीरफाड़ करने में ज़रा देर नहीं लगाते। उदाहरण के तौर पर मीडिया में प्रियंका गांधी वाड्रा की तस्वीरें। प्रियंका सूती साड़ी पहननेवाली महिला तो नहीं हैं। लेकिन चुनाव के समय वे ऐसे ही परिधान में लोगों के सामने जाती हैं। वोट देने के लिए जींस पहनकर जा रही प्रियंका वाड्रा की तस्वीर अगर आ जाए तो टीवी चैनलों की जैसे बांछे खिल आएं। ये दिखावटीपन हमारे समाज में ज्यादा है। इसलिए न लोग अपने नेता को हलके फुलके अंदाज़ में देख पाते हैं, न नेता-अभिनेता हलके फुलके आम लोगों सरीखे अंदाज़ में लोगों के सामने आना पसंद करते हैं।

मिशेल ओबामा ने अपने भाषण में जिस तरह अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के लिए डेमोक्रेटिक उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन की तरफदारी की, उसका फायदा हिलेरी को जरूर मिलेगा। मंच से भाषण देते समय मिशेल ओबामा राष्ट्रपति की पत्नी नहीं बल्कि खुद एक सशक्त वक्ता के तौर पर बोल रही थीं। उनके एक एक शब्द को वहां मौजूद दर्शक ध्यान से सुन रहे थे। उनके शब्द लोगों की संवेदनाओं को छू रहे थे। जैसे कि व्हाइट हाउस को तैयार करने में कितने ही गुलामों का पसीना बहा था। आज उस व्हाइट हाउस में एक अश्वेत परिवार की दो बेटियां खेल रही हैं। अमेरिका और दुनिया भर के अश्वेत लोगों के लिए यह संवेदनशील विषय है। एक अश्वेत महिला आने वाले चुनाव के लिए एक श्वेत महिला के पक्ष में बात कर रही है, यह भी अपने आप में बड़ी बात है। 

हमारे समाज में घर और परिवार की जिम्मेदारी संभालती महिलाओं को हाउस वाइफ कहकर उनकी मेहनत पर दो शब्दों से पानी उड़ेल दिया जाता है। जो घर में सबसे पहले जागती है और सबसे आखिर में सोती है। उसके दिन भर की उठापटक की कोई कीमत अब भी नहीं समझी जाती। मिशेल ओबामा सिर्फ राष्ट्रपति की पत्नी की हैसियत से राजनीतिक-सामाजिक समारोहों में जाने वाली हाउस वाइफ की तरह नहीं हैं। बल्कि इस भाषण के साथ उनका कद बराक ओबामा से आगे दिखाई देता है। इसके लिए बराक ओबामा भी बधाई के पात्र हैं। उन्होंने मिशेल को वो स्पेस दिया जो हमारा पुरुषवादी समाज अब भी स्त्री के उसके अपने हिस्से के स्पेस पर अतिक्रमण कर लेता है। मिशेल ओबामा को अपनी पहचान के लिए बराक ओबामा की जरूरत नहीं। वे खुद अपने नाम, स्टाइल, भाषण, आत्मविश्वास और ज़िंदगी जीने के तरीके से जानी जा रही हैं। 

मिशेल ने यह भाषण 25 जुलाई 2016 को दिया था। जिसका यूट्यूब लिंक आप देख सकते हैं
 
https://www.youtube.com/watch?v=4ZNWYqDU948

(चित्र गूगल से साभार)
 

09 June 2016

असली प्रेम, असल सिनेमा








सैराट, मसान, दशरथ मांझी ये असली प्रेम कहानियों का सिनेमा है। असली प्रेम कहानियां हैं। जिनके लिए आज भी हमारे दिलों में ख़ास जगह है। ऐसी कहानियां जो हमारी सुप्त कोमल भावनाओं को कुरेदने का हौसला रखती हैं। तूफान से लड़ते दिये की तर्ज पर जो हमारे दिलों में भी प्रेम की लौ जगाए रखती हैं। ये तीन फिल्में महज उदाहरण हैं। इन फिल्मों में कोई बड़ी स्टार कास्ट नहीं। लेकिन उम्दा कलाकार हैं। जिनका अभिनय हमें सच्चे प्रेम की पगडंडियों से बावस्ता कराता है। ऐसे चेहरे जो हमसे मेल खाते हैं। ऐसे लोग जो हमारे बीच रहते हैं। जो हम हो सकते हैं या हमारे जैसा कोई भी हो सकता है। जिसकी साधारण सी प्रेम कहानी असाधारण होती है।


इन फिल्मों में कोई शाहरुख़ ख़ान-काजोल सा दिलवाला नहीं। जो सात समंदर पार हसीन वादियों में लाखों-करोड़ों रुपये की शूटिंग करता है। कोई कटरीना कैफ सी दिलरुबा नहीं, जो हमारे बीच की नहीं लगती। कोई सलमान सा फिल्मी मतवाला नहीं, जिनकी फिल्में सौ करोड़ क्लब का हिस्सा होती हैं।

मसान का हीरो शमशान घाट पर चिता फूंकने वाले वाराणसी के परिवार का लड़का है। जो खुद से कथित ऊंची जाति की लड़की से प्रेम करता है। इस बात से डरता भी है। लड़की को जब उसकी जाति पता चलती है तो पहले पहल वो असहज हो जाती है, कि घरवाले नहीं मानेंगे। फिर प्रेम में पगी घर से भागने को तैयार हो जाती है। कुछ ऐसी ही कहानी मराठी फिल्मकार नागराज मंजुले की फिल्म सैराट की भी है। जहां लड़की एक बड़े रसूखदार परिवार से ताल्लुक रखती है। लड़का मछुआरे के परिवार से। जाति और समाज की सरहदों से बाहर निकल जाता है उन दोनों का प्रेम। दोनों घर से भाग जाते हैं। पश्चिम उत्तर प्रदेश में सैराट सरीखे तमाम प्रेमी प्रेमिका मिलेंगे। जाति-बिरादरी की सीमाओं को लांघते हुए जो घर की दहलीजें पीछे छोड़ जाते हैं। जिनके पीछे पंचायतें बैठती हैं। ऊल जलूल फैसले सुनाए जाते हैं। लड़की के घरवालों को समाज की प्रताड़ना सहनी पड़ती है। हत्याएं हो जाती हैं। कई ही बार प्रेमी-प्रेमिका के शव बरामद होते हैं।

माउंटमैन दशरथ मांझी पर बनी फिल्म भी हकीकत और रुपहले पर्दे दोनों पर खूब असर छोड़ती है। बिहार के गया जिले के गहलौर गांव का एक गरीब मज़दूर। जो हथौड़े और छेनी की भाषा ही जानता है। समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाने पर मांझी की पत्नी ने दम तोड़ दिया। और इस प्रेमी ने पच्चीस फुट ऊंचे पहाड़ का सीना चीर कर सड़क निकाल दी। जिसकी पूरी उम्र इस सड़क को बनाने में निकल गई। कोई 22 वर्ष। पचपन किलोमीटर की दूरी उसने अकेले दम पर पंद्रह किलोमीटर में तब्दील कर दी। जैसे यह सब अविश्वसनीय हो।

मुज़फ़्फ़रनगर के वे प्रेमी जुगल, जिनके नाम पर दंगे भड़का दिए गए। या राजस्थान में प्रेम विवाह के बाद घर छोड़ कर गई रमा कुंवर। जो आठ साल बाद वापस लौटी तो घरवालों ने बीच चौराहे पर उसे जिंदा जला दिया।  वे जोड़े जो घरवालों की मर्जी के खिलाफ़ जाकर ब्याह करते हैं। कुछ साल बाद घर वाले मान भी जाते हैं।  मगर वे कुछ बरस उनके वनवास के होते हैं। हमारे बीच पलती तमाम प्रेम कहानियां अखबार के अपराध के पन्नों पर छपती हैं। कुछ क्लासिक कहानियों पर दशरथ मांझी जैसी फिल्म बन जाती है। सैराट की तो कितनी कहानियां हमारे ईर्द गिर्द पनपती हैं। कत्ल कर दी जाती हैं। कितने प्रेम प्रेमिका आवारा करार दिये जाते हैं।

ये कहानियां दरअसल हमारे समाज की बुनावट को भी उधेड़ती हैं। जिसमें बहुत भेदभाव है। सच कहने और सहने की गुंजाइश बहुत कम है। प्रेम कसमसाता है। फरेब जहां जीत जाता है। वक़्त दगाबाज़ हो जाता है। असली सिनेमा देखना भी आसान नहीं होता।

29 May 2016

मेट्रो में आज़ादी का सफ़र



महिलाओं के खिलाफ हिंसा से जुड़ी तमाम खबरों, आंकड़ों, हकीकत के बीच औरतों की आजादी से जुड़ी यह एक सुंदर तस्वीर है। दिल्ली की मेट्रो में सफर करती महिलाओं की तस्वीर। मेट्रो स्टेशन पर तेज कदम के साथ वे दाखिल होती हैं। उनकी चाल में उनका आत्मविश्वास झलकता है। उनकी आंखों में सफलता की चमक है। उन तमाम लड़कियों के चेहरे पढ़िए, कुछ एक को छोड़ दें तो ज्यादातर मजबूत-आत्मनिर्भर लगती हैं। अपने बैग कंधे पर डाले वे आगे बढ़ती हैं। पहले बाजारों में लड़कियां-महिलाएं डरी-सहमी या चौकस सी ज्यादा दिखाई देती थीं। जैसे कभी भी कोई हादसा उनकी तरफ लपकता हुआ आ सकता है। उस सूरत में वह कुछ नहीं कर पाएंगी। उनकी मदद कोई नहीं करने आएगा। 

आजादी और बराबरी का संघर्ष पीढ़ियों से जारी है। एक बार फिर यह उल्लेख करते हुए कि महिला हिंसा और बलात्कार के बढ़ते मामलों के बावजूद, लड़कियों की स्थिति बेहतर हुई है। मेट्रो के लेडीज कोच में यह तस्वीर ज्यादा साफ दिखाई देती है। यहां हर वर्ग, जाति, उम्र की लड़कियां-महिलाएं आती हैं। स्कूल-कॉलेज जा रही लड़कियों से लेकर रिटायरमेंट की उम्र को पहुंच रही महिलाओं तक। शॉपिंग करने, फैशनेबल कपड़े, बिंदास छवि से लेकर सीधी सादी घरेलू महिला तक।

मेट्रो के इस सफर के दौरान मेरी सीट के बगल में, कॉलेज जा रही दो लड़कियां खड़ी थीं। पहनावे, बोली से जाहिर था कि वे निम्न मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं। एक ने कहा, मुझे कपड़ों पर किसी भी किस्म की पाबंदी बर्दाश्त नहीं है, अगर कोई मुझे मेरी पसंद का कुछ पहनने से रोकता है तो मुझे बहुत गुस्सा आता है, वे कौन होते हैं ये बताने वाले कि हमें क्या पहनना है। हमारी जिंदगी है, हम चुनेंगे क्या पहनें-क्या नहीं। इस लड़की ने लेगिंग और टॉप पहना हुआ था। इसकी दूसरी साथी ने जवाब दिया- मेरे घर में तो अब कोई रोक टोक नहीं होती। मैं तो जींस ही पहनती हूं। पहले बुआ लोगों को जींस पहनने से मना करते थे। पर अब मेरे परिवार के लोग बदल गए हैं। महिलाओं के पहनावे को लेकर अब भी खूब सवाल जवाब होते हैं। कभी कॉलेज में जींस पर पाबंदी लगायी जाती है तो कभी पंचायतें ऐसा करती हैं। यहां तक कि नेतागण भी बलात्कार और छेड़छाड़ जैसी घटनाओं पर बड़ी आसानी से पहनावे को जिम्मेदार ठहरा देते हैं। यही लोग इस सवाल का जवाब नहीं दे पाते कि तीन साल की बच्ची से बलात्कार क्यों होता है, क्या पहनावे के कारण।

मेट्रो में सवार होते ही ज्यादातर यात्री अपने चार-छह इंच के मोबाइल के मार्फत आभासी दुनिया में डुबकी लगा लेते हैं। एक लड़की बोलती है-यार फेसबुक पर जब भी मैं पॉलीटिक्स पर कुछ लिखती हूं, कोई कमेंट नहीं करता, दो चार लाइक ही आते हैं। लेकिन प्यार मोहब्बत पर एक दो लाइन लिख दो, फिर देखो, लाइक्स-कमेंट्स की बरसात हो जाती है। दूसरी बोलती है, हां यार हमारे देश में आशिकी खूब चलती है। अब आप खुद ही इस बात के मायने निकालिए। मेट्रो में सफर कर रहे लोगों की मानसिकता क्या बदल जाती है। यहां छेड़छाड़ या पहनावे को लेकर किसी तरह के फिकरे सुनने को नहीं मिलेंगे। हां सब अपने गंतव्य पर पहुंचने की जल्दी में होते हैं। लेकिन मेट्रो में सुरक्षा और तमाम वजहों से छेड़छाड़ जैसी घटनाएं बहुत कम होती हैं। यहां जींस-स्कर्ट, मिडी, मिनी, सब तरह की पोशाक में लड़कियां सफर करती हैं और बड़ी बिंदास होकर रहती हैं। मेट्रो चल पड़ती है और वह अपने बैग में से कोई किताब निकालती है, कोई अंग्रेजी बेस्ट सेलर है। पूरे सफर के दौरान यहां तक कि ट्रेन से निकलने और प्लेटफॉर्म पर चलने के दौरान भी किताब में उसकी निगाहें धंसी हुई है और वो बेधड़क चली जा रही है। कोई डर नहीं। कोई रोक टोक नहीं। यहां वो जैसे चाहे वैसे रह रही है। लेकिन मेट्रो और इसका सफर तो कुछ ही देर के लिए है। इसके प्लेटफॉर्म से बाहर की दुनिया कहीं ज्यादा बड़ी है, यहां से बाहर का सफर ज्यादा लंबा है।

अब इन दो लड़कियों को देखिए। अभी-अभी कॉलेज में दाखिला लिया होगा। एक आम से परिवार की सामान्य सी लड़कियां लग रही हैं। मोबाइल में चल रहे गाने को इयर फोन से सुनते हुए, उस पर थिरक रही हैं, मेट्रो में, वे अपनी धुन में मस्त हैं। कोई परवाह नहीं बगल खड़ा व्यक्ति क्या सोचेगा। क्योंकि दरअसल बगल में खड़े व्यक्ति को इससे ज्यादा फर्क पड़ना ही नहीं है। सबकी अपनी दुनिया है। वे मेट्रो में थिरक रही हैं। सुंदर दृश्य है यह। आजादी का नृत्य। हालांकि कुछ धुर विरोधाभासी दृश्य भी दिखाई देते हैं। जैसे मेरे सामने सीट पर बैठी यह महिला। दफ्तर जा रही होगी। बाल गीले और खुले हुए हैं। जींस-शर्ट पहने हुए। अंतर्राष्ट्रीय कंपनी गूची का बैग लिए हुए। हाथ में बड़ा सा मोबाइल, जाहिर है इसकी कीमत ज्यादा होगी। मेट्रो में सीट मिलते ही उसने अपनी आंखें बंद कर ली और होठ कुछ फुसफुसाने लगे। किसी मंत्र का पाठ, या हनुमान चालीसा, कुछ ऐसा ही। मैं यहां आधुनिकता और आस्था को दो विपरीत छोर पर खड़ा करने का प्रयत्न नहीं कर रही। बस यह तस्वीर जरा हटकर है। उसके ठीक बगल में बैठी एक लड़की ने बैग में से एक रजिस्टर निकाल लिया है। रजिस्टर में झांकर मैंने पता कर लिया कि यह गणित की छात्रा है। मेट्रो में सफर करती हुई ऐसी तमाम लड़कियां मिल जाएंगी जो अपने नोट्स पढ़ रही होंगी। कुछ चालीसा पढ़ती हुई भी दिख जाती हैं।

जैसे सुबह आसमान परिंदों की चहचहाहट से भर जाता है। वैसे ही सुबह के समय की मेट्रो अपने यात्रियों के उत्साह से भरी होती है। लड़कियां कॉलेज जा रही होती हैं, दफ्तर जा रही होती हैं। वे अपनी दोस्तों का स्वागत करती हैं। वे पाबंदियों से मुक्त नजर आती हैं। इयरफोन कान में ठूंसे, किसी की निगाहें उपन्यास में उलझी, कोई अपनी नोटबुक के पन्ने पलटती है, कोई फोन पर अपने दफ्तर के साथी को आगे के लिए दिशा निर्देश देती है। शाम को घर लौटने के सफर में उनके चेहरों पर कुछ थकान होती है। सुबह से अलग, शाम की मेट्रो में थोड़ा आलस उमड़ता है, थोड़ी थकान फैली होती है, उनकी चहचहाहट कुछ कम होती है, घर में उनके हिस्से का कार्य अभी बाकी होगा, ऐसा माना जा सकता है।

मेट्रो के इस सफ़र की खूबसूरती को समझने के लिए हमें दिल्ली की सड़कों पर उतरना होगा। क्या दिल्ली की सड़कें भी अपने यात्रियों को ऐसी सहूलियतों से बख्शती हैं। क्या यहां पर आप इसी तरह अपनी दुनिया में लीन सफर कर सकते हैं। नहीं। यहां आपके लिबास पर फब्तियां कसनेवाले मिल जाएंगे। बस स्टैंड पर आपके बगल में खड़े लोग आपको घूरते मिल जाएंगे। पैदल चलते हुए कोई जानबूझकर टक्कर मारता निकल जाएगा। सड़क किनारे खड़ी कार डराती है, दरवाजा खोलकर कोई अंदर खींच लेगा।

यह डर दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध के आंकड़ों की वजह से है। 2013 की तुलना में 2014 में महिलाओं से अपराध के मामले 18.3 प्रतिशत तक बढ़ गए, जिसमें बलात्कार के मामले 31.6 प्रतिशत बढ़े। दिल्ली पुलिस रिकॉर्ड में 2014 में बलात्कार के कुल 2,069 मामले दर्ज किए गए जबकि 2013 में 1,571 मामले दर्ज किए गए थे। दिल्ली पुलिस के ही वर्ष 2014 के आंकड़े बताते हैं कि यहां हर रोज महिलाओं के खिलाफ हिंसा के करीब 40 केस दर्ज किए जाते हैं, इनमें बलात्कार और छेड़खानी की घटनाएं ज्यादा होती हैं।

बलात्कार सामाजिक समस्या है। इसका हल भी समाज में बदलाव के जरिये ही निकल सकता है। मेट्रो के अंदर प्रवेश करते ही ज्यादातर लोगों का बरताव बदल जाता है। मेट्रो के बाहर वही लोग भरोसे लायक नहीं रह जाते। मेट्रो के अंदर की लकदक, सुरक्षा, शालीनता, यहां से बाहर निकलते ही बिखर जाती है। मेट्रो अपने आखिरी पड़ाव पर पहुंच गई है। 

यह सफर यहीं पूरा हुआ। लोगों का रेला बाहर की ओर उमड़ता है। मेट्रो के अंदर बिंदास सफर कर रही लड़कियां वापस उन्हीं रास्तों पर पहुंच गई हैं, जो उनके लिए अबतक सुरक्षित नहीं बन पाए हैं। तमाम दुर्घटनाओं-आशंकाओं, विपरीत हालातों को परे ढकेलते हुए वो तेज चाल से आगे बढ़ रही हैं। यह सफर आजादी का है।


(streekaal.com पर पहले प्रकाशित)

31 January 2016

हॉस्टल लाइफ, ज़िंदगी जीने दो

(चित्र गूगल से साभार)

हॉस्टल। एक सख्त वॉर्डन। छोटे छोटे कमरे। कमरों में एक-दो तख्त सरीखे बिस्तर। एक छोटी सी आलमारी। किताबों का कोना। घर से लाए आचार का डिब्बा। नमकीन, मठरी, जिन्हें खाते ही मां की याद आ जाए। खट्टी मीठी यादें। गंदा कॉमन टायलेट। तमाम शिकायतें। और ढेर सारे दोस्त। ढेर सारी शरारतें। कैंटीन से चोरी। मेस के खाने की बुराई। देर रात की मस्तियां। चुपके से मैगी वाली पार्टी।  लड़कियों का हॉस्टल है तो रात आठ बजे के बाद नो एंट्री का डर। हॉस्टल के बाहर खड़े लड़के दोस्त लोग। इंतजार। बदनामियां। खिलखिलाहटें। रात हॉस्टल की खिड़की से उतरता चांद। एफएम रेनबो पर बजते पुराने गाने। सपने। ख्वाहिशें। कठिनाईयां। मुश्किलें। सफ़र। मंज़िलें।

हॉस्टल की ज़िंदगी की बात ही अलग है। मेरा अपना विचार है कि लड़कियों को कम से कम दो-तीन साल हॉस्टल में जरूर रहना चाहिए। यहां ज़िंदगी के वे सबक सीखने को मिलते हैं, जो घर की महफूज चारदीवारियों में नहीं मिलते। एक इंसान को अपनी अच्छाइयों, कमियों को देखने-समझने की जो सीख हॉस्टल में मिलती है, और कहीं नहीं मिल सकती। जीने के लिए जरूरी खुला आकाश यहीं मिलता है। बेरोकटोक ज़िंदगी। जहां आपको अपने नियम खुद बनाने होते हैं। आकाश में उड़ती चिड़िया को पता होता है कि उसे कितनी ऊंचाई तक जाना चाहिए, कहां परों को थाम लेना चाहिए। लड़कियां जानती हैं अंधेरे और उजाले का रहस्य।

हॉस्टल में हम उन छोटी छोटी चीजों की कद्र करना सीख जाते हैं, जिनकी परवाह कभी नहीं की होती। मां की डांट भी यहां से प्यारी लगती है। बगावतों का जोश भी संयम बरतना सीख जाता है। घर में रोज रोज यही सब्जी वाली शिकायत का स्वाद, हॉस्टल के मेस की थाली में परोसे भोजन से समझ आ जाता है। पैसों को उड़ाने की कीमत यहां पता चल जाती है।

लड़कियों को क्यों हॉस्टल में जरूर रहना चाहिए। दरअसल मुझे लगता है कि यहां वे अपना वजूद तलाश-तराश सकती हैं। जैसे जंगली पेड़, झाड़ियां, नदियां अपने रास्ते खुद बनाते हैं। लड़कियों को अपने सपने चुनने, रास्ते बनाने, आत्म निर्भर बनने का सलीका यहां खुद ब खुद सीखने को मिल जाता है। सही गलत की पहचान, फैसले करने की क्षमता, अपने फैसलों का नतीजा भुगतने की हिम्मत, हॉस्टल में रह कर जिंदगी के कारोबार के जरूरी दावपेंच समझ आने लगते हैं। चिड़िया के पंख मजबूत होने लगते हैं। उसे उड़ने का सलीका आने लगता है। और यही तो असल सीख है।

दिक्कत भी है। ये कि हमारे यहां लड़कियों के हॉस्टल को जेल सरीखा बना दिया जाता है। ब्वाएज हॉस्टल में फिर भी आजादी है। गर्ल्स हॉस्टल पाबंदियों से इतने बिंधे हुए होते हैं कि जेल सरीखे हो जाते हैं। आने जाने के सख्त नियम, कोई मिलने आए तो उसे शक की निगाह से देखना। गेट बंद होने के समय के बाद लड़की पहुंची तो उसके कैरेक्टर पर अपना सर्टिफिकेट नवाज देना। दिल्ली यूनिवर्सिटी की छात्राओं ने गर्ल्स हॉस्टल को जेल बनाने की इसी बेफजूल सख्ती के खिलाफ पिंजड़ा तोड़ अभियान चलाया था। जिसे लड़के लड़कियों दोनों का भरपूर समर्थन मिला। आंदोलन हॉस्टल को पिंजड़ा बनाने के खिलाफ था।

हॉस्टल की धमाचौकड़ी, वहां गुजारे गए कुछ साल, जीवन भर की धरोहर बन जाते हैं। जिसे बाद में बार-बार मिस किया जाता है। वे भी क्या दिन थे। कई लड़कियों ने अपनी हॉस्टल लाइफ के अनुभव शेयर किए।

असिस्टेंट प्रोफेसर साक्षी हॉस्टल में गुजारे अपने तीन सालों को अपनी जिंदगी का सबसे बेहतरीन वक्त बताती हैं। मम्मी-पापा की याद तो आती थी, लेकिन फिर फ्रैंड्स ही एक दूसरे को इमोशनल सपोर्ट देते थे। हम बडी शरारतें करते थे। रात में वॉडर्न से छिप छिप कर मैगी की पार्टी करते थे। किसी के कमरे का दरवाजा बाहर से लॉक कर दिया और फिर हंसी के दौर शुरू हो जाते थे। हमने अपनी हॉस्टल लाइफ को खूब एन्ज्वाय किया और बहुत कुछ सीखा। रात में आठ बजे हॉस्टल पहुंच जाना सबसे बड़ी चुनौती होती थी, चाहें आप किसी वाजिब वजह से बाहर ही क्यों न हों लेकिन आठ बजे नहीं पहुंचे तो घर फोन पहुंच जाता था, ये बड़ी सिरदर्दी थी।


झारखंड की अन्वेषा ग़ाज़ियाबाद के हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रही हैं। वे कहती हैं कि पहली बार मम्मी को छोड़कर आने में बहुत डर लगा, मैं बहुत रोई। लेकिन फिर धीरे धीरे इस लाइफ को जीने लगी। मजा आने लगा। दोस्तों के साथ हम बहुत सारी चीजें सीखते हैं। हम फैसला करना सीखते हैं। अन्वेषा बताती हैं कि उनके हॉस्टल की बहुत सारी लड़कियां सिगरेट पीती हैं, बियर पीती हैं। लेकिन फर्क नहीं पड़ता। यह उनकी ज़िंदगी है, वे जैसे चाहें जिएं। ये हमें तय करना होता है कि हम क्या करना चाहते हैं। मैं तो यहां खूब घूमती हूं। शायद ही ऐसा कोई दिन हो जब मैं हॉस्टल के बाहर नहीं निकलती। हॉस्टल से जाने के बाद मैं इस ज़िंदगी को मिस करूंगी।

हॉस्टल में रह चुकीं तमाम लड़कियों से मेरी जो बातें हुईं, उससे मैं तो यही चाहती हूं कि हर लड़की को कम से कम दो साल हॉस्टल में जरूर रहना चाहिए। जहां उन्हें ज़िंदगी का स्वाद मिल सके, भले ही घर के खाने का स्वाद कुछ दिनों के लिए क्यों न छूट जाए। ज्यादातर की शिकायत हॉस्टल के खाने से ही थी। दोस्तों के साथ घूमना फिरना, मस्ती करना और पढ़ाई भी, इन चीजों को वे आज मिस करती हैं। हॉस्टल के नाम से ही उनके चेहरे पर एक मुस्कान तैर जाती है। हॉस्टल लाइफ। वे भी क्या दिन थे।