अस्पताल की खिड़की से तारों को वो एक टक
लगाए देख रही थी। जैसे आसमान के सीने में उफनते उसके सपने, ख्वाहिशें, उसके
प्रेम के प्रतीक हों वे तारे। अस्पताल की इस खिड़की से दिखता आसमान का ये
टुकड़ा मेरा है, पूरी तरह मेरा। मेरे पास अपनी ज़मीन नहीं लेकिन यह धरती
मेरी है। रात का समय। यह खुली खिड़की। खिड़की से आती ठंडी हवा। तारों भरा
आसमान। कम से कम ये सारे तो मेरे हैं। इन्हें तो मुझसे कोई नहीं छीन सकता।
रात का यह गहरा नीलापन जैसे उसके उदास ह्रदय में डूबता चला जाता है।
जेल की चारदीवारी से दिखनेवाला आसमान भी
तो उस रोज़ इतना ही खूबसूरत लग रहा था। रात अपनी सी लगती है। दिलासा देती,
दुख बांटती, मुश्किलों को सिराहने रखती, और उनसे निपटने के उपाय सुझाती।
रात को दुनिया अपनी लगती है।
उसके पत्र मैंने छिपा दिए हैं। अपनी किताब
के पन्नों के बीच। उसने मुझसे प्रेम जताया और मेरा साथ चाहता है। मैं हां
कहना चाहती हूं। सचमुच मैं उसे हां में ही जवाब देना चाहती हूं। मैं कल्पना
कर सकती हूं कि रात में हम किसी रोज एक दूसरे का हाथ पकड़ किसी शांत सड़क
पर सैर कर रहे होंगे। दूर, पहाड़ हमें देख रहे होंगे। वे हमारे साथ-साथ
चलने पर खुशी जता रहे होंगे। तारे हमें देख रहे होंगे। वे और जगमगाहट बिखेर
कर अपनी ख़ुशी जताने की कोशिश कर रहे होंगे। हम पेड़ों की बात करेंगे।
तारों की। आसमान की। और हमारे मणिपुर की। मणिपुर हमारा स्वर्ग है। धरती का
स्वर्ग है। जो चंद लोगों के हाथों में कैद हो गया है। हमारे स्वर्ग पर
बंदूक की नाल से चारदीवारी खड़ी कर दी गई है। कुछ वर्दीधारियों ने हमारी
धरती की खुशी छीन ली। वे हमारी मांओं, बहनों, बेटियों की अस्मत से खेल रहे
हैं। वे हमारे लोगों की ज़िंदगी से खेल रहे हैं। वे हम भोले-भाले पहाड़ी
लोगों को, हमारे ही घरों से बाहर खींच लाते हैं और फिर गोली दाग देते हैं।
हम अपने रास्तों पर अपने गीत गुनगुनाते जा रहे होते हैं, वे हमे रोकते हैं,
हमारा पता पूछते हैं और फिर हम पर बंदूक तान देते हैं। हम अपनी गर्दन, और
सीने, और बाजुओं से निकलते गर्म लहू को महसूस कर सकते हैं। वे हमारे जिस्म
में अपनी नफरत का ज्वार भर देते हैं। हमारे जिस्म को अपने इस्तेमाल की
वस्तु बना देते हैं। यह सब देख लेने पर हमारे छोटे भाई के सिर पर गोली मार
देते हैं। हम स्वर्ग के बाशिंदे। हम बेबस लोग। हमारी हरी भरी धरती। यहां
दहशत की सड़कें बिछी हैं। हम बारूद खाते हैं। बारूद सोचते हैं। बारूद की
महक हमारे सपनों में भी भर गई है। हम अपना घर छोड़ जाने को मजबूर हैं। ताकि
हम जिंदा रह सकें। सुरक्षित रह सकें।
अपने पत्र में उसने लिखा है कि उसे ऐसा
लगता है कि वह अपनी ज़िंदगी मेरे साथ बिताना चाहता है। वह मेरे दर्द को समझ
सकता है। मेरे मिशन का सम्मान करता है। मेरा इंटरव्यू लेते समय उसकी आंखें
कुछ और भी सवाल मुझसे पूछ रही थीं। पत्र में उसने लिखा है कि उसे मुझसे
लगाव हो गया है। क्या मैं उसके प्रेम निवेदन को स्वीकार करूंगी।
मैं भी तो उसे चाहती हूं। शायद उस
इंटरव्यू के वक़्त मैंने भी कुछ ऐसा महसूस किया था। हमारे देश भारत का कोई
व्यक्ति मेरा इंटरव्यू लेने के लिए कभी इस तरह इच्छुक नहीं हुआ। कभी मुझसे
ऐसे सवाल नहीं पूछे, जो उसने पूछे। आखिर मैं क्या चाहती हूं अपनी ज़िंदगी
से। मैं प्रेम भी कर सकती हूं। क्या मुझे इसकी इजाज़त नहीं। राजधानी दिल्ली
में भी मेरे पास कम ही पत्रकार आए थे। वो ब्रिटिश मैगजीन से मेरे पास आया
था। अंग्रेज़ होते हुए भी वो मेरी भावनाओं को समझ गया।
हो सकता है इंटरव्यू के दौरान नहीं बल्कि
उसका पहला पत्र पाकर मैंने दिल में प्रेम का कंपन महसूस किया हो। या फिर
उसके दूसरे पत्र पर, या तीसरे पत्र पर। क्या फर्क पड़ता है। उसके कितने
पत्र आए। मुझतक उसके कितने पत्र पहुंच सके। मुझे तो यह भी ठीक-ठीक पता
नहीं। मेरे ईर्दगिर्द के लोग नहीं चाहते कि मैं प्रेम करूं। पर सच तो ये है
कि मैं उसे हां कहना चाहती हूं। यह जानते हुए भी कि मुझे प्रेम करने की
इजाज़त नहीं। फिर मेरे मिशन का क्या होगा। मेरे मिशन से जुड़े लोग। मिशन से
जुड़े कई लोगों का अपना स्वार्थ भी। मेरा मिशन मेरे राज्य के लिए भी है।
मैं खुद भी अपने मिशन को पूरा करना चाहती हूं। मुझे अपनी जान की परवाह
नहीं। अपने प्रेम की भी परवाह नहीं। मेरा अपना प्रेम मेरे मिशन के आगे बेहद
तुच्छ है। इस मिशन को मैंने अपने जीवन के अनमोल बारह साल दे दिए। मैंने
इतने सालों से भोजन का स्वाद नहीं चखा। मेरी नाक में जबरन नली डालकर मुझे
जिंदा रखा गया है। मुझ पर कितने केस चल रहे हैं। कितने लोगों की उम्मीद
बंधी है मुझसे। मैं उनकी उम्मीद और अपने संघर्ष को पीछे नहीं छोड़ सकती।
उन्हें इन पत्रों के बारे में पता चल गया
है। वे सोचते हैं कि ये एक पत्रकार के पत्र हैं। इसलिए मुझे ये पत्र देते
रहे। मेरे घरवालों तक के पत्र उन्होंने बिना पढ़े मुझे नहीं दिए थे। मेरे
साथ जुड़े कार्यकर्ताओं ने कल्पना भी नहीं की होगी कि कोई इन पत्रों में
मुझसे प्रेम का अनुरोध कर रहा है। जब उन्हें इसका पता चला तो उन्होंने
मुझसे न कहने को कहा। मुझे प्रेम की इजाज़त नहीं है। मैं उनकी मर्ज़ी के
ख़िलाफ़ नहीं जा सकती। मैं कई सालों से रोई नहीं। मैं पत्थर सी हो गई हूं।
मैं खुद को कई बार बहुत बेबस महसूस करती हूं। चाह कर भी नहीं कर सकती जो
प्यार। मैंने उन लोगों से कह दिया है- आप जैसा चाहते हैं, मैं वैसे ही
करूंगी।
मैंने उसे पत्र लिख दिया है। मैं तुमसे
प्रेम तो कर सकती हूं लेकिन तुम्हारे साथ भी आ सकूं, यह मुश्किल ही है। तो
तुम फिलहाल मेरा जवाब न ही समझो। मैं मणिपुर का संघर्ष हूं। ताकि यहां
प्रेम पल सके। मैं मणिपुर की ताकत हूं ताकि हमारी बेटियां यहां सुरक्षित रह
सकें। हो सकता है कभी वह दिन आए जब हम थाम सकें एक दूसरे का हाथ।
(नवभारत टाइम्स ब्लॉग में प्रकाशित
लिंक: http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/varshasingh/i-wanted-to-love-him-but-couldnt/)
No comments:
Post a Comment