हिंदी के लेखक सिर्फ लेखक होकर क्यों नहीं जी सकते जबकि अंग्रेजी के लेखक सिर्फ अपनी कलम से ही आजीविका चला सकते हैं। क्या तर्क ये कि हिंदी का बाज़ार ग़रीब है । हिंदी पट्टी के लोग आर्थिक तौर पर संपन्न नहीं। हिंदी का लेखक, लेखक बाद में होता है, पहले वो अध्यापक होता है या कहीं क्लर्क होता है या फिर कोई और नौकरी। सिर्फ लेखन उसका पेशा हो ये संभव नहीं बन पाता। जबकि अंग्रेजी में सिर्फ लेखन से ही लेखक आराम से जी सकता है, परिवार पोस सकता है, शहर दर शहर भ्रमण कर सकता है।
अपने ही देश में हिंदी कैसे मात खा रही है इसका नमूना अखबारों, टीवी चैनलों या दूरदर्शन में निकलनेवाली नौकरियों से लगाया जा सकता है। अपने अंग्रेजी चैनल के लिए जिस पैकेज पर लोगों को नौकरी पर रखता है, हिंदी चैनल में पैसा आधे से भी कम हो जाता है। देश में सबसे ज्यादा अखबार हिंदी भाषा में निकलते हैं तब ये कि हिंदी के लेखकों को, अंग्रेजी के लेखकों की तुलना में एक लेख पर अपेक्षाकृत कम पैसे मिलते हैं।
हिंदुस्तान टाइम्स(17 मार्च 2015) में एक रोचक लेख छपा। भारतीय मूल के कुछ अंग्रेजी अरबपति लेखक( बैंड ऑफ बिलियनर्स)। अंग्रेजी के (विवादित) लेखक सलमान रश्दी की संपत्ति 15 मिलियन डॉलर। वीएस नायपॉल 7 मिलियन डॉलर। विक्रम सेठ 5 मिलियन डॉलर। किरन देसाई 3 मिलियन डॉलर। अंग्रेजी के पॉप्युलर लेखक चेतन भगत की संपत्ति 1.3 मिलियन डॉलर।
मुझे यहां ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मराठी लेखक भालचंद्र नेमाडे की बातें भी याद आ रही हैं। नेमाडे ने कहा कि सलमान रश्दी और वीएस नायपॉल की कृतियों में साहित्यिक मर्म और मूल्यों का अभाव है।
(इस विवादित कार्टून को अंग्रेजी-हिंदी संदर्भ में भी रख सकते हैं, चित्र गूगल से साभार) |
सलमान रश्दी और वीएस नायपॉल सबसे अमीर (अंग्रेजी) लेखकों में से हैं।
हिंदी के उन अग्रणी लेखकों की याद आ रही है जिनकी रचनाएं स्कूली किताबों में पढ़कर हम बड़े हुए। अपने जीवन के अंत समय में जिन्होंने बेहद मुश्किल से गुजारे। इलाज के लिए पैसे तक न मिल पाए। निराला का जीवन घोर गरीबी, त्रासदी, संघर्ष से घिरा रहा। आर्थिक तंगी से जूझते रहे अमरकांत का इंटरव्यू पढ़ा था कि लेखक न तो शहीद होता है न मोहताज।
आज के इस समय में कई लेखक-पत्रकारों की हालत देख रही हूं। समय से पहले नौकरियों से बाहर कर दिये गये लोग जो काबिल हैं और तिल-तिल कर मर रहे हैं। कई साल पत्रकारिता में गर्क करने के बाद दूसरे कामधंधे के बारे में सोच रहे हैं। क्योंकि कम पैसे पर काम करने के लिए नौजवान तैयार हैं। एक वरिष्ठ की जगह मालिक दो कनिष्ठों को रखने की रणनीति पर काम कर रहा है। तो दस पंद्रह साल की नौकरी के बाद कईयों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जा रहा है। 35 की उम्र में रिटायर कर दिया जा रहा है। हिंदी लेखकों के साथ तो स्थिति इतनी बुरी है कि काम कराये जाने के बाद उनका पैसा कब आएगा, आएगा या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं। अंग्रेजी लेखक रॉयल्टी का सुख उठाते होंगे हिंदी लेखक इसकी उम्मीद बेहद कम ही करते हैं।
हां कमाई करनेवाले हिंदी लेखक भी हैं। साल के बारह महीने जिनके कार्यक्रम तय होते हैं। देश के सबसे अमीर कवि भी हैं जिन्हें कवि सम्मेलन में जाने के लिए लाखों के चेक मिलते हैं। मगर ऐसे लेखक और कवि चुनिंदा हैं और इतर वजहों से भी जाने जाते हैं।
और आखिर में ये देश हिंदी सिने प्रेमियों का है। जहां हिंदी सिनेमा की धूम रहती है। हिंदी फिल्में रिलीज होने के कुछ ही दिनों में सौ करोड़ की कमाई कर लेती हैं। हिंदी अभिनेता-अभिनेत्रियों को एक फिल्म में अभिनय करने के करोड़ों रुपये मिलते हैं। लेकिन इन फिल्मों-प्रोडक्शन हाउस-सीरीयलों में काम करने के लिए अंग्रेजी आनी आवश्यक है। हिंदी फिल्मों की स्क्रिप्ट हिंदी नहीं अंग्रेजी में लिखी जाती है। हिंदी कहानी को सबमिट करने के लिए अंग्रेजी में अनुवाद करना पड़ता है। पुरस्कार के लिए जमा की जानी वाली रचनाएं यदि अंग्रेजी से इतर भाषा की हैं तो उनका अंग्रेजी में अनुवाद कराना पड़ता है। अब बताइये कि हिंदी फीचर का अगर कोई अंग्रेजी में अनुवाद करेगा तो शब्दों और भाषा का रस कहां रह जाएगा। और जाहिर है कि हिंदी में लिखनेवाला लेखक स्वयं तो अंग्रेजी अनुवाद कर नहीं पाएगा। हिंदी पट्टी में ही हिंदी अछूत है, उपेक्षित है और हिंदी भाषी बेबस-मजबूर।
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