ये कुछ ऐसा है कि हम चांद पर पहुंच जाएं तो वहां भी नींबू-मिर्ची लटका आएं। अंतरिक्ष में उड़ान भरते हमारे मंगलयान-6 पर भी एक नींबू-मिर्ची लटक रहा हो। ऑडी जैसी गाड़ियों पर तो नीबू-मिर्ची लटकाते ही हैं। घर-दफ्तर-दुकान पर तो नींबू-मिर्ची यूं ही लटकते मिलते हैं। टैक्नॉलजी से कितने लैस हों, बड़ा वाला स्मार्टिया फोन लेकर घूमते हों लेकिन नींबू-मिर्ची वाले डर-वहम-मानसिकता से पीछा नहीं छुड़ा पाए। इस मॉल में हम पहुंचे तो बुजुर्ग सी औरत पीली बंधेजवाली साड़ी में लिपटी बड़ी अच्छी लगी। लगा कि सीधे राजस्थान से यहां लैंड किया हो। फिर देखा तो उसके हाथ में नींबू-मिर्ची से भरा एक थैला था। हर शोरूम के दरवाजे पर नींबू-मिर्ची लटका रही थी और सबका हालचाल ले रही थी। बाटा हो या एडिडास, मॉल के प्रांगण में रंगबिरंगी रबरबैंड, क्लचर, चिमटियां,हैंडबैग बेचता छोटा सा दुकानवाला हो या रिबॉक जैसी बड़ी कंपनियां, बिना नींबू-मिर्ची के किसी की दुकान नहीं चल रही थी। उसकी ख़ुशमिज़ाजी देख मुझे उससे बात करने में कोई झिझक महसूस नहीं हुई। मैंने उससे छोटी सी बातचीत की। अम्मा कहां से आई हो, कितने में नींबू-मिर्ची बेचती हो। तो उन्होंने बताया कि चाहे बड़ा झक-झक करता शोरूम हो या, अदना सा कुल्फी वाला। बीस रुपये महीना हर कोई देता है। इस पूरे मॉल से उसे महीने का हज़ार रूपया तक मिल जाता है। मैंने फौरन नींबू का भाव जोड़ने की कोशिश की। बस हजार रुपये महीना। अम्मा बड़ी हाजिरजवाब थी। फट मुझे पहचान भी लिया। देखी है मैंने तुम्हे कहीं। वैशाली सेक्टर तीन में देखी होगी। हां-हां जरूर देखी होगी। फिर वो नींबू-मिर्ची की अपनी थैली लेकर उपरवाले माले की ओर बढ़ गई।
यहां गूंजते हैं स्त्रियों की मुक्ति के स्वर, बे-परदा, बे-शरम,जो बनाती है अपनी राह, कंकड़-पत्थर जोड़ जोड़,जो टूटती है तो फिर खुद को समेटती है, जो दिन में भी सपने देखती हैं और रातों को भी बेधड़क सड़कों पर निकल घूमना चाहती हैं, अपना अधिकार मांगती हैं। जो पुकारती है, सब लड़कियों को, कि दोस्तों जियो अपनी तरह, जियो ज़िंदगी की तरह
14 April 2015
डर है कि मानता नहीं
ये कुछ ऐसा है कि हम चांद पर पहुंच जाएं तो वहां भी नींबू-मिर्ची लटका आएं। अंतरिक्ष में उड़ान भरते हमारे मंगलयान-6 पर भी एक नींबू-मिर्ची लटक रहा हो। ऑडी जैसी गाड़ियों पर तो नीबू-मिर्ची लटकाते ही हैं। घर-दफ्तर-दुकान पर तो नींबू-मिर्ची यूं ही लटकते मिलते हैं। टैक्नॉलजी से कितने लैस हों, बड़ा वाला स्मार्टिया फोन लेकर घूमते हों लेकिन नींबू-मिर्ची वाले डर-वहम-मानसिकता से पीछा नहीं छुड़ा पाए। इस मॉल में हम पहुंचे तो बुजुर्ग सी औरत पीली बंधेजवाली साड़ी में लिपटी बड़ी अच्छी लगी। लगा कि सीधे राजस्थान से यहां लैंड किया हो। फिर देखा तो उसके हाथ में नींबू-मिर्ची से भरा एक थैला था। हर शोरूम के दरवाजे पर नींबू-मिर्ची लटका रही थी और सबका हालचाल ले रही थी। बाटा हो या एडिडास, मॉल के प्रांगण में रंगबिरंगी रबरबैंड, क्लचर, चिमटियां,हैंडबैग बेचता छोटा सा दुकानवाला हो या रिबॉक जैसी बड़ी कंपनियां, बिना नींबू-मिर्ची के किसी की दुकान नहीं चल रही थी। उसकी ख़ुशमिज़ाजी देख मुझे उससे बात करने में कोई झिझक महसूस नहीं हुई। मैंने उससे छोटी सी बातचीत की। अम्मा कहां से आई हो, कितने में नींबू-मिर्ची बेचती हो। तो उन्होंने बताया कि चाहे बड़ा झक-झक करता शोरूम हो या, अदना सा कुल्फी वाला। बीस रुपये महीना हर कोई देता है। इस पूरे मॉल से उसे महीने का हज़ार रूपया तक मिल जाता है। मैंने फौरन नींबू का भाव जोड़ने की कोशिश की। बस हजार रुपये महीना। अम्मा बड़ी हाजिरजवाब थी। फट मुझे पहचान भी लिया। देखी है मैंने तुम्हे कहीं। वैशाली सेक्टर तीन में देखी होगी। हां-हां जरूर देखी होगी। फिर वो नींबू-मिर्ची की अपनी थैली लेकर उपरवाले माले की ओर बढ़ गई।
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