05 July 2008


रात में ख़ामोशी, बहार में ख़ुश्बू

चमन में फूल, ज़िंदगी में धूल

आम बात है...

चलती-फिरती सड़क, किनारे ठहरे हुए

भागता वक़्त, ज़िंदगी रूकी हुई

आम बात है...

भूखा पेट, उभरी हड्डियां

सोई हुई आत्मा, जागा हुआ इंसान

दबी हुई चीख, ख़ामोश ज़ुबान

ये भी तो

पर क्यों

आम बात है...

1 comment:

संदीप said...

दबी हुई चीख के खिलाफ आवाज़ उठाना आम बात तो नहीं, लेकिन दुलर्भ भी नहीं है, और गाहे-बगाहे सुनाई भी देती है, हां एक समय ज़रूर आएगा जब जब यह भी आम बात हो जाएगी...