13 July 2008

हमारी आज़ादी, तुम्हारी ज़ंजीरें

हमारी आज़ादी की सभी उड़ानें रद्द हो जाती हैं, जब तय सीमा से ऊंचा उड़ने पर पता चलता है कि एक न दिखाई देनेवाली ज़ंजीर हमारे पैरों में पड़ी हुई है। भरपूर नीला आसमान जहां से दिखाई पड़ने लगता है, दूरियां जहां किसी स्केल पर नहीं नापी जा सकतीं, उस उड़ान का एहसास होने से पहले ही हमारे पंख फड़फड़ाने लग जाते हैं और अचानक पता चलता है कि एक बहुत मोटी ज़ंजीर में पैर जकड़े हुए हैं। इस जंज़ीर का पता उस बंधन के बाद सबसे ज्यादा शिद्दत से महसूस होता है जिसे हम शादी कहते हैं। अचानक पता चलता है अरे मैं तो बंध गई हूं, बंधन में नहीं, ज़ंजीर में। इस ज़ंजीर की ख़ास बात भी होती है। लड़की खुद को इससे छुड़ाने की कोशिश भी नहीं करती। ये ज़ंजीर आदत-मोहब्बत-मुसीबत सब बन जाती है। फिर ज़ंजीर तोड़कर खुला आसमान डराने लगता है, उड़ने की चाह भी दम तोड़ देती है।
हां शुरु-शुरू में वो फड़फड़ाती जरूर है। मदद के लिए कोई नहीं आता। जो आता है वो दुनियारी का रट्टू पाठ पढ़ाता है। ऐसा ही होता है, वैसा ही होता है, फिर फड़फड़ाहट भी कम होने लगती है। ज़िंदगी मशीन सरीखी होने लगती है। हर सुबह एक जैसी, हर दोपहर उनींदी, हर शाम उम्मीदें जगाती, हर रात उन उम्मीदों को दफ्न करती, वो मर चुकी होती है, ज़िंदा होने की सोई तमन्ना के साथ। हां वक़्त के साथ ये स्थिति बदली है। ज़ंजीर कुछ बड़ी हुई है, लेकिन टूटी नहीं। लड़की की ज़िंदगी एक जुआ होती है, दांव लग गया तो लग गया, नहीं तो गए काम से।

2 comments:

Advocate Rashmi saurana said...

bhut sundar jari rhe.

महेन said...

देवी जी यह दर्द सिर्फ़ औरत के लिए ही क्यों, उसके सहभागी पुरुष के लिये क्यों नही? अगर शादी को ज़ंजीर माना जाए तो यह ऐसी ज़ंजीर है जो दोनों को एक-दूसरे से बांधती है न कि औरत को आदमी से। का कहें अनुभव से उपजा ज्ञान है आपकी ही तरह।