18 July 2008

लो अब ज़िद्द बांधकर बैठ गया मन
कहता है सारंगी दे दो
मुझको मीरा बन जाने दो
या पर्वत पर चढ़ जाने दो
सागर को मथ लेने दो
और अचानक रूठ गया मन
नहीं मुझे उड़ जाने दो
अंबर में बस जाने दो
या ख़ुश्बू बन छा जाने दो
जाने कहां दुबक गया मन
अंधेरे में डूब गया मन
डरते-डरते टूट गया मन
धीरे-धीरे पंख पसारे
आसमां में उड़ चला मन

3 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा, लिखते रहें.

सचिन मिश्रा said...

bahut accha likha hai

सुभाष नीरव said...

बहुत सुन्दर ! इसी तरह लिखती रहें।