कई बार किसी गाने का कोई ट्रैक दिमाग में अटक जाता है और ज़ुबान पर चढ़ जाता है। वो "मेरी भैंस को डंडा क्यों मारा भी हो सकता है" "पिया तू अब तो आ जा" टाइप्स भी। पता चलता है दो-दो दिन तक दिमाग़ उसी ट्रैक को बजाता रहता है,बार-बार फटकारते हुए भी आप उसे गुनगुनाने को विवश हो जाते हैं। कोई नई धुन पकड़ने की कोशिश भी नाकामयाब हो जाती है। दिमाग को साफ करनेवाला हेड-क्लीनर अभी ईजाद नहीं किया गया शायद। स्प्रे किया, अंदर से एक मैसेज आये अपनी नाक पकड़कर पहले बायें कान की ओर घुमायें फिर दायें कान की ओर, लीजिये आपका दिमाग हो गया साफ।
बॉलीवुड का कोई धांसू गीत(चाहे कितना सड़ेला ही क्यों न हो) तो नहीं, जनाब ग़ालिब साहब का ये शेर भेजे में अटका हुआ है.....
इश्क ने पकड़ा न था ग़ालिब वहशत का अभी रंग
दिल में रह गई जो ज़ौक-ए-ख्वारी हाय-हाय
9 comments:
सही लिखा..
बहुत सुंदर, लेकिन दिमाग को साफ करनेवाला हेड-क्लीनर अभी ईजाद नहीं किया गया शायद!! अरे हुया है ना, आज से कई साल पहले हमारे हेडमास्ट्रर जी के पास था, एक पतली सी छडी, जिस के डर से कोई भी बच्चा कभी लेट नही आता, कभी किताब नही भुलता था, वर्ना उस कलिनर से ऎसा दिमाग साफ़ होता कि देखने वालो का दिमाग भी फ़्रि मै साफ़:)
होता है ...
ओर कल सुबह से से हमारे दिमाग में बज रहा है ......"कैसे बताये ...क्यों तुझको .चाहे "कैलाश वर्ज़न......या खुदा एक क्लीनर फेंक
हम तो ओए लकी ओए का जाप कर रहे है..वैसे बात बहुत सिंपल है.. पर हमने कभी सोचा ही नहीं..
ise atka rahne do. aur ye saf karne ke takneek aa gayi to kya hoga? ab to jo bhula diya wo phir kabhi yaddasht bankar aa jata hai. dil dukhane wala bhi hota aur meetha-meetha bhi. lekin agar ek bar dho diya naii takneek ne to phir....
अब ग़ालिब तो ग़ालिब ही हैं, उनसे क्या कहा जाय!
सही कहा .. अक्सर ऐसा होता है .. एक गाना कई कई दिन मुँह पर चड़ा रहता है ...
दिमाग को साफ करनेवाला हेड-क्लीनर--:D...kabhi is bare mein socha hi nahin tha...
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