17 October 2008

लो मैं आ गई

जैसा कि सैनी साहब(धीरेश सैनी) बता ही चुके हैं कि मैं होटलनुमा अस्पताल से लौटी हूं। कुल जमा एक हफ्ता मैं अस्पताल में रही। जिसमें से दो दिन तो बेहोशी भरी नींद की वजह से मिस हो गए। बाकी अस्पताल के एक बंद कमरे में मुझे कई तरह के एहसास हुए।
कमरे की खिड़की से पर्दा हटाकर सड़क पर भागती गाड़ियों को देखकर ज़िंदगी का एहसास होता था। धूप-पसीना-तेज़ हॉर्न-ट्रैफिक की झल्लाहट सड़क पर चलते हुए ऐसा ही तो लगता है लेकिन अस्पताल के कमरे से ये सबकुछ सोचकर अच्छा लगता है। ज़िंदगी है तभी तो धूप है, पसीना है, भीड़ है, भागमभाग है। जिससे पीछा छुड़ाने के लिए हम हमेशा कुछ न कुछ योजनाएं बनाते रहते हैं, हम नहीं मैं, पर अस्पताल के एक कमरे में दो दिन बिताने के बाद इन सारी चीजों में जल्दी से जल्दी वापस लौटने के लिए दिल मचल रहा था।

एक और ख्याल मुझे आया। अस्पताल के एक कमरे में छे दिन बिताना इतना मुश्किल लग रहा था, जिन्हें उम्र क़ैद जैसी सज़ा मिली होती है वो कैसे रहते होंगे जेल में। मुझे तो मालूम था मैं यहां कुछ दिनों की मेहमान हूं पर जिन्हें पता है कि सारी ज़िंदगी जेल की बंद चारदीवारी के बीच गुजरनी है, उनका अपराध, उनकी सज़ा। मुझे डॉमनिक लॉपियर की एक हज़ार सूरज किताब के कैराइल चैसमैन की याद हो आई। जिसे मृत्युदंड मिला होता है और जेल में वो ज़िंदगीभर मृत्युदंड की सज़ा को माफ करने के लिए लड़ता है, कई बार उसकी सज़ा टलती है, आखिरी बार भी, लेकिन तब कुछ सेकेंड के अंतराल का फासला बड़ा हो जाता है, उसे इलेक्ट्रिक चेयर पर मौत की नींद सुला दिया जाता है।

अस्पताल से जुड़ा एक मज़ेदार अनुभव भी है। आगंतुकों का मेरे कमरे तक आना। दरअसल अस्पताल में मिलने के लिए समय की पाबंदी थी। पर मिलने आनेवालों को समय का पता नहीं था और था भी तो तोड़ने का जुगाड़ तो निकाला ही जा सकता था। विजिटर टाइम के अलावा कमरे में सिर्फ एक अटेंडेंट ही रह सकता था। विजिटर कभी भी विजिटर टाइम पर नहीं आए। जुगाड़ भिड़ाने के लिए सिक्योरिटी गार्ड से काफी जोड़तोड़ करनी पड़ती। कुछ फैमिली टाइप लोगों को तो सिक्योरिटी ने अंदर आने भी दिया, लेकिन जिनकी शक्ल उन्हें फैमिली टाइप नहीं बता रही थी, या जो अकेले आए, उन्हें बिना मेरा हालचाल जाने बगैर लौटने का महान सुख हासिल हुआ। सिक्योरिटी गार्ड को पटा कर अंदर घुस आने में मेरी बहन जी ने महारत हासिल कर ली थी और उसी की कृपा से कुछ आगंतुक मेरा हालचाल पा लेने में और मुझे जल्दी से अच्छा हो जाने का आशीर्वाद देने में क़ामयाब भी हुए।

अब मुझे लग रहा है कि मैं कीबोर्ड पर और ज्यादा खिटखिट करती रही तो मुझे अस्पताल वापस न जाना पड़ जाए। वैसे भी बहुत लंबा टीप लिया है। तो बाय-बाय।



17 comments:

makrand said...

varsa ji
accha experience sare kiya
lot kar aane ki badhai
regards

Anonymous said...

take care and get well soon

सोतड़ू said...

होटलनुमा हों तो भी अस्पताल में रहने का मन तो नहीं ही करता।
पर अस्पताल का एक फ़ायदा तो है कि आप आराम करने के लिए बाध्य होते हैं।

BrijmohanShrivastava said...

""हालचाल जाने बगैर लौट जाने का सुख ""हास्य -व्यंग्य मिश्रित वाक्य सुंदर /दुबारा अस्पताल जाने की जरूरत नहीं चार लाइन ही प्रतिदिन पर्याप्त होंगी

Richa Joshi said...

हम समझ सकते हैं कि एक पत्रकार एक कमरे में छह दिन कैसे बिता सकता है। कामना है कि आप हमेशा स्‍वस्‍थ रहें। कभी अस्‍पताल न जाएं।

BrijmohanShrivastava said...

दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं /दीवाली आपको मंगलमय हो /सुख समृद्धि की बृद्धि हो /आपके साहित्य सृजन को देश -विदेश के साहित्यकारों द्वारा सराहा जावे /आप साहित्य सृजन की तपश्चर्या कर सरस्वत्याराधन करते रहें /आपकी रचनाएं जन मानस के अन्तकरण को झंकृत करती रहे और उनके अंतर्मन में स्थान बनाती रहें /आपकी काव्य संरचना बहुजन हिताय ,बहुजन सुखाय हो ,लोक कल्याण व राष्ट्रहित में हो यही प्रार्थना में ईश्वर से करता हूँ ""पढने लायक कुछ लिख जाओ या लिखने लायक कुछ कर जाओ "" कृपा बनाए रखें /

सोतड़ू said...

कल रात देखी एक फ़िल्म (bucket list)में एक डायलॉग था.... कई अस्पताल चलाने वाला एक किरदार बोलता है कि अस्पतालों में मरीज़ बीमारी से कम मरते हैं और विज़िटर्स से ज़्यादा.... ताज़ा अनुभव से मुझे लगा कि ये सही हो सकता है...

समयचक्र said...

apka anubhav achcha laga or yah saty hai ki jugadoo hi apna kaam jaldi kar lete hai . aap jaldi swasthy ho. shubhakamanao ke sath.

makrand said...

thanks again to visit my dabba chintan
regards
keep writing
regards

मोहन वशिष्‍ठ said...

अब हम यही दुआ करेंगे कि आप अब जल्‍दी से पूरी तरह ठीक हो जाओ और छा जाओ तंदुरुस्‍ती है जहां अच्‍छी पोस्‍ट है वहां ब्‍लागब्‍लाग
get well soon

राज भाटिय़ा said...

पहले तो आप जल्दी से अच्छी( ठीक) हो जाओ, दुसरी बात अस्पताल मै रहना सच मै बहुत कठिन है, लेकिन मजबुरी मै रहना पडता है, बहुत ही सुन्दर लेख. धन्यवाद

योगेन्द्र मौदगिल said...

आप ठीक ठाक हैं
जान कर अच्छा लगा
आप सदैव ठीक रहें
यही शुभकामनाएं
अस्पतालों पर संस्मरण लिखने की कवायद कोई भी न करे प्रभु से यही प्रार्थना है

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

बीती बात को जाने दे !!

बीती बात को जाने दे

नए समय को आने दे !

समय बड़ा नादाँ है

बच्चों-सा समझाने दे !

यार अब कैसा है तू

उसको भी बतलाने दे !

बड़ा ही अच्छा लगता है

बुरे समय को आने दे !

कन्नी काट ना मुझसे तू

मुझसे ना कतराने दे !

इतना बुरा नहीं "गाफिल"

ख़ुद को पास तो आने दे !!

Smart Indian said...

आपका कुशल-क्षेम जानकर खुशी हुई. सच है, जीवन है तो संघर्ष है. पूर्ण शान्ति तो कब्रिस्तान में भी होती है - न कोई शिकायत, न कोई चिकचिक, न कोई भागदौड़ ही. और जहाँ तक मिलने के समय की बात है, अगर हम भारतीय क़ानून तोड़ने में अपनी शान समझना बंद कर दें तो क्या हम अतीत के गौरव को वापस हासिल नहीं कर लेंगे?

खैर, कुल मिला कर यह छोटा सा लेख अच्छा भी लगा और सोचने को बाध्य भी कर गया.

फ़िरदौस ख़ान said...

आपके लिए दुआ करती हूं...हमारे ब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया...

मीत said...

bahut khushi huyee varsha jee aapko sahi salamt wapas ane k bare main jaan kar
ishvar kare ki apki umr khoob lambi ho aap sare sukh dekhen...
god bless u.......

BrijmohanShrivastava said...

१७ अक्टूबर से बहुत दिन हो गए स्वस्थ्य ठीक हो गया हो तो कुछ लिखें