22 February 2015

नहीं करना बीएड..अब बोलो


                                                                                                    (चित्र गूगल से साभार)
हर वो चीज जो लड़कियों पर चरित्र प्रमाण पत्र की तरह चस्पा कर दी जाती हैं मुझे उस पर बेहद गुस्सा आता। जैसे लड़कियां आर्ट्स लेती हैं साइंस नहीं। तो मैंने साइंस ली। लड़कियां बायोलॉजी लेती हैं मैथ्स नहीं। तो मैंने मैथ्स लेने की ठानी। और सारे इम्तिहानों में पास भी हुई। हां अगर आर्ट्स के कुछ सबजेक्ट्स पढ़े होते, इतिहास-भूगोल ज्यादा पढ़ा होता तो और अच्छा रहता। लेकिन विज्ञान भी मुझे प्रिय रहा। ख़ास तौर पर फिजिक्स। कैमेस्ट्री नहीं।  ग्रेेजुएशन के बाद अपनी राह तलाश रही थी। तो बीएड करो लो। बीएड करा दो। नारे की तरह ये शब्द चारों ओर गूंजते। पड़ोस की आंटियों की सलाह। अंकल जी लोगों की भटकती मुस्कान के साथ बीएड करने की सलाह। सारे जहां के बड़े भईया लोगों की यही सलाह। सारी-सारी लड़कियां पढ़ाई करें और फिर वो सारी-सारी लड़कियां बीएड कर लें। ये बात मुझे बहुत नागवार गुजरती। बीएड किया है क्या,ये सवाल मुझपर तीर की तरह गुजरता। लड़कियां बीएड करें इससे मुझे कोई ऐतराज नहीं। शिक्षिका की नौकरी कुछ सुकून का पेशा होता है। जिसमें परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी निभाने में सहूलियत रहती है। दूसरी नौकरियों में दिक्कत होती है। लेकिन दिक्कतों से जीवन में कहां तक बचा जा सकता है। जीवन में किस तरह की दिक्कतों और किस तरह की सहूलियतों का चुनाव किया जाये, ये आप पर है।  ठीक है लड़कियां  बीएड करना पसंद भी करती हैं। लेकिन बीएड को हर लड़की पे चस्पा कर देना भी तो ठीक नहीं। मां-बाप और उनकी पीढ़ी के लोगों को तो एक बारगी छोड़ दो। लेकिन हमारे टाइम में ट्रैवल कर रहे लोग भी जब ये सलाह देते हैं तो मन गुस्से से भर जाता है।

नौकरी में जरा उठापटक हुई तो बीएड कर लो। नौकरी के दरमियान कुछ परेशानियां आयीं तो उसका हल ये कि बीएड कर लो। नौकरी के 12-13 साल बाद भी लोग इस तरह की सलाह देने से गुरेज नहीं करते। ऐसी सलाह देनेवालों में पुरुषों से आगे महिलाएं रहती हैं। कहां मंगल अभियान समेत अंतरिक्ष अनुसंधानों में शामिल (महिला) वैज्ञानिकों की तस्वीर मेरे ज़ेहन पर मिसाल के रूप में चस्पा हो गई है। मैं वैज्ञानिक टेसी थॉमस के तार्किक दिमाग के बारे में सोचती हूं जिन्होंने अग्नि परियोजना को अंजाम तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभायी। जिन्हें अग्निपुत्री कहा गया। मैं दुनिया-जहां में लीक से हट कर काम कर रही लड़कियों-महिलाओं की बात पढ़ती-लिखती हूं। वो पहली महिला जिसने ट्रक ड्राइवर बनना पसंद किया मैं उसकी हिम्मत की दाद देती हूं। अंतरिक्ष में उपस्थिति दर्ज कराने से लेकर पेट्रोेलपंप पर पेट्रोल डालती महिलाओं को मैं ख़ासतौर पर रेखांकित करती हूं। पर ये बीएड का बाजा अपने यहां थमता नहीं। ये लिखते हुए मुझे अपने चाचा की बेटी की याद आ रही है। छोटे कस्बे की लड़की को पढ़ाने के लिए उसके मां-बाप ने उसे उसकी बुआ के पास रखा। जहां अच्छा स्कूल था अच्छी पढ़ायी। 12वीं तक लड़की अपनी मां के साथ नहीं बुआ के साथ रही कि पढ़ाई कर ले। उसका एक रोज मेरे पास फोन आया- दीदी मुझे भी मास कम्यूनिकेशन की पढ़ाई करनी है। क्या करना होगा कैसे करना होगा। मैंने इस बारे में उसे जानकारी दी। कुछ महीने बाद पता चला कि वो तो बीएड कर रही है। मैंने पूछा तो पता चला कि उसके चचेरे बड़े भाई की सलाह या निर्देश पर उसने बीएड में दाखिला दिला दिया गया। मुझे अफसोस हुआ। जिसकी पढ़ाई के लिए उसे बचपन में परिवार से दूर किया गया उसका अंजाम अगर बीएड ही होना था तो उसी कस्बे में उसे पढ़ने देते। मैं तो यही कहूंगी कि लड़कियों जो करना चाहो करो। बीएड से आगे दुनिया बहुत-बहुत है।


2 comments:

दिगम्बर नासवा said...

जो मन हो वो करना चाहिए ... सहमत हूँ आपके आलेख से ...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (24-02-2015) को "इस आजादी से तो गुलामी ही अच्छी थी" (चर्चा अंक-1899) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'