यहां गूंजते हैं स्त्रियों की मुक्ति के स्वर,
बे-परदा, बे-शरम,जो बनाती है अपनी राह, कंकड़-पत्थर जोड़ जोड़,जो टूटती है
तो फिर खुद को समेटती है, जो दिन में भी सपने देखती हैं और रातों को भी बेधड़क सड़कों पर निकल घूमना चाहती हैं, अपना अधिकार मांगती हैं। जो पुकारती है, सब लड़कियों को, कि दोस्तों जियो अपनी तरह, जियो ज़िंदगी की तरह
02 April 2007
गुलमोहर, पलाश, अमलताश, हरश्रृंगार, अशोक के फूल ज़िंदगी... किसी शायर की महकती ग़ज़लों की तरह कितनी मशगूल बबूल, कैक्टस, नागफनी, सूखे वृक्ष, उड़ती धूल ज़िंदगी... किसी मज़दूर की पसलियों की तरह कितनी मज़बूर
3 comments:
सुन्दर रचना..पढ कर दिल में फूल खिल उठे..
लिखते रहिये.. हम पढने आते रहेंगे
बढिया रचना !
मेरा नजरिया...
थोडे कांटे,थोडी खुशबू,कई रंग,सुन्दर फूल
जिन्दगी....
जैसे गुलाब का फूल
:)
अच्छा प्रयास, जारी रखें.
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