मुंशी प्रेमचंद की कहानियां आज के समय की कसौटी पर भी उतनी ही खरी उतरती हैं, जितना वे अपने रचनाकाल के दौरान रहीं थीं। उनकी कहानियों के किरदार आज के से ही लगते हैं। कफन मुंशी प्रेमचंद की ऐसी ही एक कहानी है, जो आज भी झकझोर देती है। कफन के तीन मुख्य किरदार हैं। बुधिया, माधव और घीसू। वह कैसी रात रही होगी जब बुधिया प्रसव की पीड़ा से चीख रही होगी, और कितने ढीठ, निर्दयी माधव और घीसू, जिन्हें बुधिया से ज्यादा उन आलुओं की चिंता थी जो बुझी हुई आग की राख में लिपटे हुए थे। भूख की कैसी पराकाष्ठा रचते हैं मुंशी प्रेमचंद, कि एक औरत की जान की फिक्र न होकर, दो निपट निखट्टुओं को भुने आलुओं की चिंता सता रही थी। जाड़े की रात में मिट्टी के उस झोपड़ के अंदर चीख रही बुधिया का दर्द भी अगर दो घड़ी के लिए उतरता होगा तो अपने पति माधव और ससुर घीसू की खुसरफुसर सुनकर उसका और ज़ोर से चीखने का जी चाहता होगा। कैसे व्यक्ति के साथ बांध दिया गया होगा उसके मां बाप ने उसे, क्या कुछ पड़ताल न की होगी माधव के बारे में। पूरे गांव में जिनके आलस और निर्ल्लजता के किस्से मशहूर हैं। जिनकी झोपड़ी में दो बर्तन भी ठीक से नहीं, जिसके पास तन ढकने के कपड़े तक की कोई जुगत नहीं, उसे भी बुधिया जैसी मेहनती लड़की ब्याह दी गई। बुधिया प्रसव पीड़ा से न मरती तो यह सोचकर और मर रही होगी कि जिसने उसे दो कपड़े तन ढंकने के लिए ठीक से नहीं दिए, उसके बच्चे को वह पैदा क्यों कर रही है। बुधिया के आने से इन बाप बेटों का तो भला हो गया, लेकिन बुधिया की किस्मत फूटी समझो। अगर इस कहानी को आज के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो भी किसी बुधिया का ब्याह कोई मां-बाप किसी माधव से यूं ही कर सकता है। कि लड़की है तो ब्याहना है। अच्छा होता कि बुधिया ने किसी से प्रेम कर लिया होता, कम से कम अपना देखा भाला लड़का तो मिलता। जाड़े की उस निर्दयी रात में बुधिया चीखते-चीखते, हाथ पैर पटकते-पटकते इस दुनिया से विदा हो गई। पति और ससुर इतने कमबख्त कि गांववालों से कफन के लिए मांगे पैसों को भी शराबखाने में लुटा दिया। कफन के पैसे को नशे में उड़ा दिया। रे बुधिया, अच्छा होता कि तो प्रसव पीड़ा के बीच से उठकर, अपनी चारपाई छोड़कर, उस झोपड़ी से बाहर निकलती, हो सकता तो दोनों बाप बेटों को उसी बुझे अलाव में झोंकते हुए अपने प्राण त्यागती।
ऐसी बुधिया आज के इस समय में भी होंगी, हो सकता है कि नाम-स्वरूप,परिवेश-पहनावा बदल गया हो, आज भी जिसके घरवाले को उससे ज्यादा अपनी मौजमस्ती की चिंता होगी। ऐसे मां-बाप भी बहुतेरे मिल जाएंगे, जो अपनी लड़की को किसी से भी ब्याहकर मुक्त होने का रास्ता ढूंढ़ रहे हों। लेकिन हम अगर ऐसा समाज बना सकें जिसमें सारी की सारी बुधियाएं ऐसे लड़कों को ठुकरा सकें, शादी से पहले ही नहीं, शादी के बाद भी, और समाज उन्हें बेहतर ज़िंदगी जीने दे। इस कहानी में भूख को जिस तरह दर्शाया गया है, वह भी चिन्हित करनेवाला है। कि कफ़न के पैसों से पूड़ी सब्जी खाते हुए घीसू-माधव की आत्मा तृप्त होती है, इस भूख की वेदना कितनी गहरी होगी कि मौत से ज्यादा आलुओं के हड़पे जाने की चिंता सताती हो।
(आर्टिकल दैनिक ट्रिब्यून के क्लासिक किरदार कॉलम में प्रकाशित)
(आर्टिकल दैनिक ट्रिब्यून के क्लासिक किरदार कॉलम में प्रकाशित)
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