24 February 2014

किताबों की बातें


इस बार पुस्तक मेले का इंतज़ार ऐसे कर रही थी जैसे कॉलेज के दिनों में लड़के-लड़कियां वेलेनटाइन डे का इंतज़ार करते हैं। मैंने तय कर लिया था इस बार किताबें जरूर खरीदूंगी। दरअसल किताबें खरीदे हुए भी ज़माना बीत गया था। पत्र-पत्रिकाओं के साहित्यिक कोनों में ही जिज्ञासा शांत कर ली थी। एक पूरी किताब पढ़े हुए दो-चार साल गुजर गए। दरअसल हर रोज खबरों की दुनिया में कांटछांट करते रहने की वजह से भी शायद ऐसा रहा हो। दरअसल ये....दरअसल वो....हैं तो ये सब बहानेबाज़ियां हीं। इसलिए इस बार मैंने पहले ही महीने के आखिर में खत्म होती तनख्वाह में से बजट भी आवंटित कर लिया था।
सचमुच किताबें खरीदने में हम कितनी गरीबी दिखाते हैं। किताबें हमें महंगी लगती हैं जबकि उन्हीं पैसों को चाट-बर्गर खरीदने में ख़ुशी-ख़ुशी उड़ा देते हैं। ये भी हिंदी जगत की ग़रीबी ही है।

पुस्तक मेला देखने के लिए हमने शनिवार-रविवार का दिन नहीं चुना। साप्ताहंत में कुछ ज्यादा ही भीड़ हो जाती है। यानी मुश्किल हो जाती है। हम गुरूवार को यहां पहुंचे।
पहले हॉल नंबर 14। यहां गैर हिंदी भाषी राज्यों के ज्यादातर स्टॉल्स थे। एक चक्कर पूरा कर हॉल नंबर 18 में गए। यहां किताबों की पूरी दुनिया बसी थी। इतनी किताबों में से अपने लिए चंद किताबें छांट पाना सचमुच बहुत मुश्किल काम है। ऐसा नहीं कि आप कुछ भी ले आओ फिर उसे पढ़ न पाओ। किताबों के पन्ने पलट-पलट कर कुछ शब्द पढ़ती, क्या ये मेरी रूचि पर खरी उतरती हैं। किताबें खरीदने से पहले बहुत समझ न रखनेवाले लोग भी कितने जजमेंटल हो जाते हैं। मैं तो बहुत थोड़ा जानती हूं। शुरू में तो मुझे कुछ समझ नहीं आया। कौन सी किताब लूं। कुछ बहुत अच्छी लग रही थीं, महंगी भी, खरीद भी सकती थी, मगर वो मुझे कितनी समझ-पसंद आएगी,पता नहीं। कई किताबों के पन्ने उलटे। कई स्टॉल्स के चक्कर लगाए। इच्छा तो चुल्लू में समंदर भर लेने की थी। बहुत अच्छा लग रहा था। चारों ओर किताबों की ख़ुशबू थी। नई किताब की अपनी ही अलग ख़ुश्बू होती है। पुरानी किताबों की अपनी महक। किताबों के पन्ने पलटने की सरसरी सी धुन थी। पेज नंबर 79 पर एक वाक्य पढ़ा, 96 पर दूसरा....क्या इससे किसी किताब के बारे में कोई राय तय की जा सकती थी। बिलकुल नहीं।
अलग-अलग स्टॉल्स, मेज़ों पर, ताखों पर, आलमारियों में....किताबें बुला रही थीं। ये लिखना भी अच्छा लग रहा है कि किताबें गा रही थीं, गुनगुना रही थीं। कई स्टॉल्स पर बाहर खड़े लोग भी, आइये, यहां किताबें आपको अच्छी लगेंगी, एक बार आकर देख लीजिए...।
 ये किताबों का मेला है। चारों ओर किताबें ही किताबें हैं। ले लो, चुन लो, पढ़ लो। कौन सी किताब आपके पास आएगी।
पुरानी बात कई-कई बार कही गई है कि किताबें अपना पाठक चुन ही लेती हैं। एक किस्से का भी जिक्र याद आ रहा है। कोई बेहद महत्वपूर्ण किताब, जिसकी कुछ ही प्रतियां छपीं थीं, एक शख्स अनजाने में उसे कबाड़ीवाले को बेच देता है। कबाड़ में से झांकती उस किताब पर किसी ज्ञानी की नजर पड़ गई, वो उस किताब को किसी मोती की तरह समंदर से चुन कर लाया जैसे। माफ कीजिएगा कि मैं उस किताब का नाम नहीं बता पा रही, बस किस्सा याद रह गया है मुझे। और ऐसे तय हुआ कि एक अच्छी किताब अपने लिए अच्छा पाठक ढूंढ़ ही लेती है। मुझे ऐसा लगता है कि शायद मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ हो। रूसी साहित्य से पहले मैंने कुछ ही किताबें पढ़ीं थीं। हालांकि यूपी बोर्ड में हिंदी के स्लैबस में बहुत सारा बेहतरीन साहित्य हमें पढ़ाया गया। बहुत सारी कहानियां हमने पढ़ीं। परीक्षा की किताबों में उनके उत्तर लिखे। जिनके बारे में बहुत बाद में और जानने को मिला। किताबों की दुनिया में प्रवेश जिस शख्स के ज़रिये हुआ उसे मैं नहीं जानती थी। दोस्तों की मंडली में किताबें एक से दूसरे में सर्कुलेट होतीं। मेरा नंबर तीसरा होता। पुनरुत्थान, पूर्वबेला, मां, हिरोशिमा के फूल-वियतनाम को प्यार, बौड़म समेत कई अदभुत किताबें पढ़ने को मिलीं। रूसी साहित्य का अकूत भंडार खुला। जो शख्स वो किताबें मुहैया कराता था उससे एक बार ही मिलने का मौका मिला जब परीक्षा के चक्कर में एक किताब मैं तय वक़्त पर लौटा नहीं सकी थी। तब से किताबों का चस्का लगा।

पुस्तक मेले में पहले भी जा चुकी हूं। चूंकि इस बार कोई चार-पांच साल बाद गई थी, जैसे एक लंबी नींद टूटने के बाद गई थी। इसलिए बहुत अच्छा लगा। इसके लिए शुक्रिया मित्र राजेश डोबरियाल का। राजकमल प्रकाशन से जब उन्होंने पेपरबैक संस्करण से किताबें चुननी शुरू कीं तो मुझे भी हौसला मिला। जनचेतना, गार्गी प्रकाशन से कुछ किताबें चुनीं। बहुत सारी पढ़ी हुई किताबें भी दिखीं। उन्हें देखकर अच्छा लगा। गार्गी प्रकाशन में तो मुझे बहुत अच्छा लगा। टॉफी से सस्ती किताबें। दो रुपये-तीन रुपये की किताबें। भले ही वो तीन-चार-पांच पन्ने की हों पर वो एक पूरी बात थीं। दस रुपये बीस रुपये की किताबें। महंगीवाली भी थीं। लेकिन अगर किसी चीज-किसी बात को लोकप्रिय बनाना हो, ज्यादा लोगों तक पहुंचाना हो, तो ये भी एक अच्छा आइडिया है। वैसे भी हमारे देश में फालतू बातों पर बहुत पैसे फूंक दिए जाते हैं। असल बात पर सरकार की जेब खाली रहती है। व्यक्ति के तौर पर हमारा भी यही हाल है। यहां गार्गी प्रकाशन से ही खरीदी गई सुल्ताना का सपनाका जिक्र जरूर करूंगी। रुकय्या शखावत हुसैन की एक कहानी है ये जिसका अनुवाद आशु वर्मा ने किया है। बीसवीं सदी की शुरुआत की कहानी है ये। औरतों के हक़ के पक्ष में इतनी खूबसरत कहानी आप सब जरूर पढ़िये।

पुस्तक मेले में बड़े प्रकाशकों की स्थिति अलग होती है, छोटे-नए प्रकाशकों की स्थिति अलग। होनी ही है। साहित्य जगत के माहिर लोग छोटे प्रकाशकों का मज़ाक भी खूब उड़ाते हैं। वहां एक कोने में एक पुराना साथी भी मिला। नौकरी छोड़ जो किताबों की दुनिया में चला गया है। एक प्रकाशन शुरू किया। अपनी भी दो किताबें दिखायीं। मीडिया शोध पर थीं। खबरिया चैनलों का मोह छोड़ पाना आसान नहीं। मगर उसे शाबाशी देती हूं उसने कर दिखाया। नौकरी छोड़ने की हिम्मत कुछ ही कर पाते हैं। यहां बहुत सारे वो लोग भी याद आ रहे हैं जो नए प्रकाशक या नए लेखक का स्वागत नहीं करते। खिल्ली उड़ाने, मुंह बिचकाने से नहीं चूकते।


पुस्तक मेला इसलिए भी ख़ास है क्योंकि पुस्तकें आसानी से मिलती नहीं। मैं जहां रहती हूं चारों तरफ बाज़ार ही बाज़ार है। मॉल ही मॉल। ब्रांड ही ब्रांड है। सस्ता, महंगा, और महंगा....हर तरह का बाज़ार। लेकिन किताब की एक भी अच्छी दुकान नहीं। मेरी वायलिन का तार एक बार टूट गया तो वाद्ययंत्रों की एक भी दुकान नहीं मिली। नोएडा के एक बड़े बाजार में एक बेहद छोटी सी दुकान ढूंढ़ी जिसका दुकानदार वहां था नहीं, खबर दी जाने पर बहुत देर बाद लौटा, इससे पता चलता है कि उसकी दुकान कितनी चलती होगी।  जो बाज़ार बड़ा होता गया वो सिर्फ कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, गैजेट्स, गाड़ियां, रेस्तरां, मैकडॉनल्ड, पिज्जा हट जैसी चीजें ही शामिल हैं। छोटे-मोटे किताबों के स्टॉल तो मिलते हैं। उनमें ज्यादातर पत्रिकाएं होती हैं, कुछ अंग्रेजी उपन्यास। किताबघर तो बमुश्किल मिलते हैं। अच्छी लाइब्रेरी भी आसानी से उपलब्ध नहीं। ऐसा क्यों नहीं होता कि जहां बड़े-बड़े बाज़ार हो वहां एक अच्छी लाइब्रेरी भी हो। एक अच्छी किताबों की दुकान। सरकार सब्सिडी देकर इसे बढ़ावा भी दे सकती है। जैसे मेरा ख्याली पुलाव है एक ऐसी जगह बनाने का, जिसमें किताबें हों, चाय-कॉफी सर्व की जाए, अच्छा म्यूज़िक, अच्छा साहित्य, साफसुथरी जगह। पुराने कॉफीहाउस भी याद आ रहे हैं।  उन्हें बेहतर क्यों नहीं बनाया जा रहा।

अब ये तो प्रकाशक ही बेहतर बताएंगे मगर पुस्तक मेले में लोगों की अच्छी मौजूदगी होती है, किताबें भी खूब खरीदी जाती हैं, लोगों पर ये इल्जाम भी पूरा सही नहीं कि वो किताबों पर खर्च नहीं करते। पुस्तक मेले में शनिवार-रविवार को उमड़ती भीड़ क्या ये नहीं बताती कि हमें किताबों से प्यार है। सचमुच। हम किताबें पढ़ना चाहते हैं। किताबें हमारी दोस्त हैं। किताबें देखते-पढ़ते-समझते-ढूंढ़ते-ढूंढ़ते हम दोनों के पांव बुरी तरह थक गए। हॉल से बाहर निकल हमने कॉफी पी। पुस्तक मेले से मैं एक पोस्टर लेकर आई। अपने कमरे के दरवाजे पर इसे चस्पा कर दिया है। इसमें नाज़िम हिकमत की कविता दर्ज है....
पेड़ों पर गाते जा रहे हैं परिंदे
उनके पंखों में उड़ने की प्यास है..



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