स्कूटर के छोटे पहियों पर आज़ादी की ऊंची उड़ान
वो भी क्या दिन थे। हालांकि हर वक़्त, हर उम्र का, अपना मज़ा होता है, पर फिर भी स्कूटर के पहियों पर सवार होकर मानो मेरे पंख उग आए हों, ज़िंदगी की उड़ान भरने का वो सफ़र अब तक के अपने जीवन में मुझे सबसे ज्यादा रसीला लगता है। हवा का चोखा स्वाद, सचमुच चोखी ज़िंदगी।
मुझसे पहले मेरी छोटी बहन को वाहन मिल गया था। उसके पास स्कूटी थी। मैं मम्मी-पापा से अपने लिये इतना बड़ा गिफ्ट मांगने में संकोच करती रह गयी। मेरी बहन मुझ जैसी नहीं थी। पहले उसकी गाड़ी पर सवारी की (यार हम स्कूटर, स्कूटी को भी गाड़ी ही कहते थे, गाड़ी का मतलब सिर्फ चार पहिया वाहन हमारे मुताबिक नहीं होता था, लखनऊ की बात कर रहे हैं)।
उससे भी पहले गाड़ी का स्वाद लगा था सहेलियों के साथ। ग्रेजुएशन के थर्ड इयर के साथ ही कम्प्यूटर सीखना चालू किया था। कम्प्यूटर तो कम सीखा, दोस्ती-यारी-घुमक्कड़ी ज्यादा सीखी और वो ज़िंदगी की कमाई थी, कम्प्यूटर से ज्यादा काम आई।
दो दोस्तें थी हमारी। एक का नाम नहीं लिख रही, उसके पास मोपेड थी। पहले उसी की सवारी की। वो ड्राइव करती, उसके पीछे मैं और मेरे पीछे तूलिका। हमारी ड्राइवर तो हट्टी-कट्टी थी लेकिन उसकी सुकड़ी मोपेड पर हम दो सुकड़ी लकड़ियां (तब, अब नहीं) एडजस्ट कर लेतीं और जहां से हमारी सवारी गुजरती, हमारे कहकहे गूंजते, लोगों की निगाहें घूमती।
आज़ादी का स्वाद ज़ुबान पर लग चुका था। अब खुद की गाड़ी की जरूरत महसूस होने लगी थी। पहले तूलिका ने स्कूटी खरीदी। रॉयल ब्लू कलर। मेरे पास दो विकल्प हो गये, पर पीछे बैठने के। उसकी सनी पर भी हमने सड़कों की खूब खाक छानी। बेवजह टहले, पेट्रोल फूंका, ज़िंदगी जी।
उसके बाद मेरी छोटी बहन जी को स्कूटी मिली, जिसे मैंने भी खूब चलाया। लेकिन कसर तब पूरी हुई जब मेरे पास मेरा मिनी स्कूटर आ गया। गेयर वाला (बड़ी बात लगी थी तब)। एलएमएल पल्स। उसे चलाने में पहले तो बड़ी मुश्किल आई। एक बार को लगा नहीं चला पाउंगी और आंसू बहाए। फिर हिम्मत जुटाई, भाई और पापा ने सिखाने में मदद की और जब गेयर्स के साथ हथेलियों की सेटिंग हो गई, ब्रेक ने मेरे पांवों के दबाव को चुपचाप स्वीकार कर लेना सीख लिया, तो अब लगाम मेरे हाथ में थी।
मैं और तूलिका तो शहर के एक छोर पर रहते थे, हमारी दूसरी सहेली दूसरे छोर पर। और हम बस ड्राइव करने के लिये अपने यहां से उसके घर निकल पड़ते थे। ज़िंदगी जैसे पिकनिक का दूसरा नाम हो गई थी। जाड़ों की ठंडी शाम जब ढल जाती, हम घर के लिये निकलते और घर के रास्ते में पड़नेवाली एक कोल्ड ड्रिंक शॉप पर रुकते। वहां फ्रूट बियर पीते। थी तो वो कोल्ड ड्रिंक ही लेकिन उसके साथ जुड़ा बियर शब्द उसके स्वाद को लज़ीज़ और नशीला बना देता। तब अपन के लिये यही बहुत था। फिर दांत किटकिटाते और ठंडी भाप उगलते हुए हम एक दूसरे से विदा लेते और अपने घर की ओर बढ़ लेते।
(बहुत से लोगों को हमारी ये आज़ादी पसंद न आई थी, न आई है, न आएगी)
सिर्फ बाहर की सहेलियां ही नहीं मोहल्ले की लड़कियां और अपनी कज़िन सिस्टर को भी हमने ज़िंदगी का ये स्वाद चखाया था, जो रुढ़िवादी परिवारों में पल रही लड़कियों के लिये सचमुच मायने रखता था। हर बात पर रोकटोक झेलनेवाले, हर काम के लिये पापा-भाई का मुंह देखनेवाले, हर जरूरत के लिये दूसरों की बाट जोहनेवाली लड़कियों के लिये ये आज़ादी मायने रखती थी।
मैं कहूंगी, मानो चिड़िया के अंडों से निकले चूजे अब उड़ना सीख रहे थे, उनके छोटे-छोटे पर उगते दीख रहे थे, पहले डाली-डाली और फिर पेड़ों पर फुदकते-फुदकते एक दिन वो आसमान में गोता लगाना सीख लेते हैं। हम भी उसी दौर से गुजर रहे थे।
अब कॉलेज का कोई फॉर्म भरना हो, किसी कॉम्पटीशन के लिये अप्लाई करना हो तो भाई की गुजारिश नहीं करनी पड़ती। हम खुद जाते। ये हमारे लिये तो बड़ा परिवर्तन था। फिर दिमाग़ में भविष्य की कुलबुलाहट भी जन्म लेने लगी थी। आगे क्या करेंगे। करियर। नौकरी। मैं तो घर की चारदीवारी के अंदर क़ैद ज़िंदगी जीने के लिये बिलकुल भी तैयार नहीं थी। आनेवाली ज़िंदगी की मेरी सारी सुबहें-शामें रसोई में पकता देखना मेरे लिये मौत के दंड जैसा लगता। तो ये तय था कुछ करना है। ये वही वक़्त था जब मेरे घरवालों ने मेरी शादी की बातें छेड़नी शुरू कर दी थीं, हालांकि उनके लिये भी अभी ये बाते हीं थी।
तभी मैंने अपने लिये पत्रकारिता की पढ़ाई चुनी, जो उस वक़्त, मेरे आसपास के लोगों के लिये नई बात थी।
घरवालों का नज़रिया भी हम दोनों बहनों के प्रति बदलने लगा था। पहले लड़कियों को चाय बनाने का ऑर्डर ही दिया जाता था अब प्लंबर बुलाने, हार्डवेयर की दुकान पर जाकर सामान लाने सरीखे और भी काम कहे जाने लगे थे। अच्छा लगता था। हमारे अंदर आये परिवर्तन ने, घरवालों के माइंडसेट को भी बदला था।
मम्मी अब डॉक्टर के पास जाने के लिये भाई को नहीं बोलती, हमारे पीछे पड़तीं। पापा अपनी दवाइयां लाने के लिये भाई को नहीं बोलते, हमें बोलते। इन सबका श्रेय जाता है उस एक किक को, जो अपने स्कूटर पर मार हम फर्र उड़ जाते। स्कूटर-स्कूटी से हमें सचमुच आज़ादी मिली।
ज़िंदगी की पिकनिक खत्म होने लगी थी। नौकरी हासिल करने की मुश्किल भरी चुनौती सामने थी। मैं पहले यूनिवर्सिटी जाती फिर एक टुच्ची सी जगह पर दो-तीन घंटे की नौकरी पर। पैसे तो नहीं मिलते, अनुभव जरूर हासिल होता। नौकरी के लिये भी अपने स्कूटर पर सवार होकर इधर-उधर के खूब धक्के खाये। इंटरव्यू दिये।
दरअसल मेरे हिसाब से ड्राइविंग से आपके पास विकल्प तो बढ़ते ही हैं, मानसिक दृढ़ता भी बढ़ती है, सड़क पर दौड़ती गाड़ियों को ओवरटेक करने के साथ आप ज़िंदगी को ओवरटेक करना भी सीखते हैं। आगे बढ़ना सीखते हैं। मुश्किलों से जूझना सीखते हैं।
मैं अपने मां-बाप को छोड़कर शायद ही कभी-कहीं हफ्ते-दो-हफ्ते रही होऊं। अब मैंने तय किया था कि दिल्ली जाऊंगी, मैंने एक टीवी चैनल में इंटर्नशिप करने का मौका जुगाड़ा था। तब तक लखनऊ से बाहर की दुनिया देखी भी नहीं थी। जब ट्रेन की खिड़की से दिखते रात के अंधेरे को सूरज की किरणें धो रही थीं और उजली सुबह में मुझे दिल्ली की चौड़ी सड़कें और लंबे फ्लाइओवर दिख रहे थे, मैं डर गई। जो दिल्ली मेरे सपनों में बसती थी उसने पहले-पहल मुझे डरा दिया। लगा ये तो कोई भव्य शहर है, न्यूयॉर्क,पेरिस जैसा। मेरी उम्मीद से ठीक उलट, मेरे ज़ेहन में तो दिल्ली लखनऊ का ही एक बड़ा संस्करण होना था। बड़ा किलोमीटर के स्केल पर। दिल्ली में अपनी शुरुआत भी भयावह हुई। अपने डर पर काबू पाने की कोशिश करते-करते मेरे हालात बदले। करियर बनने लगा था, ज़िंदगी भी।
इस निर्माण की शुरुआत मेरे स्कूटर के साथ ही हुई थी। स्कूटर चलाते हुए मेरी पीठ पर उगे अदृश्य पंखों ने उड़ना सिखाया था।
राह में आनेवाली मुश्किलों से निपटने के लिये ब्रेक,क्लच,गेयर का इस्तेमाल करना सिखाया था।
वो भी क्या दिन थे। हालांकि हर वक़्त, हर उम्र का, अपना मज़ा होता है, पर फिर भी स्कूटर के पहियों पर सवार होकर मानो मेरे पंख उग आए हों, ज़िंदगी की उड़ान भरने का वो सफ़र अब तक के अपने जीवन में मुझे सबसे ज्यादा रसीला लगता है। हवा का चोखा स्वाद, सचमुच चोखी ज़िंदगी।
मुझसे पहले मेरी छोटी बहन को वाहन मिल गया था। उसके पास स्कूटी थी। मैं मम्मी-पापा से अपने लिये इतना बड़ा गिफ्ट मांगने में संकोच करती रह गयी। मेरी बहन मुझ जैसी नहीं थी। पहले उसकी गाड़ी पर सवारी की (यार हम स्कूटर, स्कूटी को भी गाड़ी ही कहते थे, गाड़ी का मतलब सिर्फ चार पहिया वाहन हमारे मुताबिक नहीं होता था, लखनऊ की बात कर रहे हैं)।
उससे भी पहले गाड़ी का स्वाद लगा था सहेलियों के साथ। ग्रेजुएशन के थर्ड इयर के साथ ही कम्प्यूटर सीखना चालू किया था। कम्प्यूटर तो कम सीखा, दोस्ती-यारी-घुमक्कड़ी ज्यादा सीखी और वो ज़िंदगी की कमाई थी, कम्प्यूटर से ज्यादा काम आई।
दो दोस्तें थी हमारी। एक का नाम नहीं लिख रही, उसके पास मोपेड थी। पहले उसी की सवारी की। वो ड्राइव करती, उसके पीछे मैं और मेरे पीछे तूलिका। हमारी ड्राइवर तो हट्टी-कट्टी थी लेकिन उसकी सुकड़ी मोपेड पर हम दो सुकड़ी लकड़ियां (तब, अब नहीं) एडजस्ट कर लेतीं और जहां से हमारी सवारी गुजरती, हमारे कहकहे गूंजते, लोगों की निगाहें घूमती।
आज़ादी का स्वाद ज़ुबान पर लग चुका था। अब खुद की गाड़ी की जरूरत महसूस होने लगी थी। पहले तूलिका ने स्कूटी खरीदी। रॉयल ब्लू कलर। मेरे पास दो विकल्प हो गये, पर पीछे बैठने के। उसकी सनी पर भी हमने सड़कों की खूब खाक छानी। बेवजह टहले, पेट्रोल फूंका, ज़िंदगी जी।
उसके बाद मेरी छोटी बहन जी को स्कूटी मिली, जिसे मैंने भी खूब चलाया। लेकिन कसर तब पूरी हुई जब मेरे पास मेरा मिनी स्कूटर आ गया। गेयर वाला (बड़ी बात लगी थी तब)। एलएमएल पल्स। उसे चलाने में पहले तो बड़ी मुश्किल आई। एक बार को लगा नहीं चला पाउंगी और आंसू बहाए। फिर हिम्मत जुटाई, भाई और पापा ने सिखाने में मदद की और जब गेयर्स के साथ हथेलियों की सेटिंग हो गई, ब्रेक ने मेरे पांवों के दबाव को चुपचाप स्वीकार कर लेना सीख लिया, तो अब लगाम मेरे हाथ में थी।
मैं और तूलिका तो शहर के एक छोर पर रहते थे, हमारी दूसरी सहेली दूसरे छोर पर। और हम बस ड्राइव करने के लिये अपने यहां से उसके घर निकल पड़ते थे। ज़िंदगी जैसे पिकनिक का दूसरा नाम हो गई थी। जाड़ों की ठंडी शाम जब ढल जाती, हम घर के लिये निकलते और घर के रास्ते में पड़नेवाली एक कोल्ड ड्रिंक शॉप पर रुकते। वहां फ्रूट बियर पीते। थी तो वो कोल्ड ड्रिंक ही लेकिन उसके साथ जुड़ा बियर शब्द उसके स्वाद को लज़ीज़ और नशीला बना देता। तब अपन के लिये यही बहुत था। फिर दांत किटकिटाते और ठंडी भाप उगलते हुए हम एक दूसरे से विदा लेते और अपने घर की ओर बढ़ लेते।
(बहुत से लोगों को हमारी ये आज़ादी पसंद न आई थी, न आई है, न आएगी)
सिर्फ बाहर की सहेलियां ही नहीं मोहल्ले की लड़कियां और अपनी कज़िन सिस्टर को भी हमने ज़िंदगी का ये स्वाद चखाया था, जो रुढ़िवादी परिवारों में पल रही लड़कियों के लिये सचमुच मायने रखता था। हर बात पर रोकटोक झेलनेवाले, हर काम के लिये पापा-भाई का मुंह देखनेवाले, हर जरूरत के लिये दूसरों की बाट जोहनेवाली लड़कियों के लिये ये आज़ादी मायने रखती थी।
मैं कहूंगी, मानो चिड़िया के अंडों से निकले चूजे अब उड़ना सीख रहे थे, उनके छोटे-छोटे पर उगते दीख रहे थे, पहले डाली-डाली और फिर पेड़ों पर फुदकते-फुदकते एक दिन वो आसमान में गोता लगाना सीख लेते हैं। हम भी उसी दौर से गुजर रहे थे।
अब कॉलेज का कोई फॉर्म भरना हो, किसी कॉम्पटीशन के लिये अप्लाई करना हो तो भाई की गुजारिश नहीं करनी पड़ती। हम खुद जाते। ये हमारे लिये तो बड़ा परिवर्तन था। फिर दिमाग़ में भविष्य की कुलबुलाहट भी जन्म लेने लगी थी। आगे क्या करेंगे। करियर। नौकरी। मैं तो घर की चारदीवारी के अंदर क़ैद ज़िंदगी जीने के लिये बिलकुल भी तैयार नहीं थी। आनेवाली ज़िंदगी की मेरी सारी सुबहें-शामें रसोई में पकता देखना मेरे लिये मौत के दंड जैसा लगता। तो ये तय था कुछ करना है। ये वही वक़्त था जब मेरे घरवालों ने मेरी शादी की बातें छेड़नी शुरू कर दी थीं, हालांकि उनके लिये भी अभी ये बाते हीं थी।
तभी मैंने अपने लिये पत्रकारिता की पढ़ाई चुनी, जो उस वक़्त, मेरे आसपास के लोगों के लिये नई बात थी।
घरवालों का नज़रिया भी हम दोनों बहनों के प्रति बदलने लगा था। पहले लड़कियों को चाय बनाने का ऑर्डर ही दिया जाता था अब प्लंबर बुलाने, हार्डवेयर की दुकान पर जाकर सामान लाने सरीखे और भी काम कहे जाने लगे थे। अच्छा लगता था। हमारे अंदर आये परिवर्तन ने, घरवालों के माइंडसेट को भी बदला था।
मम्मी अब डॉक्टर के पास जाने के लिये भाई को नहीं बोलती, हमारे पीछे पड़तीं। पापा अपनी दवाइयां लाने के लिये भाई को नहीं बोलते, हमें बोलते। इन सबका श्रेय जाता है उस एक किक को, जो अपने स्कूटर पर मार हम फर्र उड़ जाते। स्कूटर-स्कूटी से हमें सचमुच आज़ादी मिली।
ज़िंदगी की पिकनिक खत्म होने लगी थी। नौकरी हासिल करने की मुश्किल भरी चुनौती सामने थी। मैं पहले यूनिवर्सिटी जाती फिर एक टुच्ची सी जगह पर दो-तीन घंटे की नौकरी पर। पैसे तो नहीं मिलते, अनुभव जरूर हासिल होता। नौकरी के लिये भी अपने स्कूटर पर सवार होकर इधर-उधर के खूब धक्के खाये। इंटरव्यू दिये।
दरअसल मेरे हिसाब से ड्राइविंग से आपके पास विकल्प तो बढ़ते ही हैं, मानसिक दृढ़ता भी बढ़ती है, सड़क पर दौड़ती गाड़ियों को ओवरटेक करने के साथ आप ज़िंदगी को ओवरटेक करना भी सीखते हैं। आगे बढ़ना सीखते हैं। मुश्किलों से जूझना सीखते हैं।
मैं अपने मां-बाप को छोड़कर शायद ही कभी-कहीं हफ्ते-दो-हफ्ते रही होऊं। अब मैंने तय किया था कि दिल्ली जाऊंगी, मैंने एक टीवी चैनल में इंटर्नशिप करने का मौका जुगाड़ा था। तब तक लखनऊ से बाहर की दुनिया देखी भी नहीं थी। जब ट्रेन की खिड़की से दिखते रात के अंधेरे को सूरज की किरणें धो रही थीं और उजली सुबह में मुझे दिल्ली की चौड़ी सड़कें और लंबे फ्लाइओवर दिख रहे थे, मैं डर गई। जो दिल्ली मेरे सपनों में बसती थी उसने पहले-पहल मुझे डरा दिया। लगा ये तो कोई भव्य शहर है, न्यूयॉर्क,पेरिस जैसा। मेरी उम्मीद से ठीक उलट, मेरे ज़ेहन में तो दिल्ली लखनऊ का ही एक बड़ा संस्करण होना था। बड़ा किलोमीटर के स्केल पर। दिल्ली में अपनी शुरुआत भी भयावह हुई। अपने डर पर काबू पाने की कोशिश करते-करते मेरे हालात बदले। करियर बनने लगा था, ज़िंदगी भी।
इस निर्माण की शुरुआत मेरे स्कूटर के साथ ही हुई थी। स्कूटर चलाते हुए मेरी पीठ पर उगे अदृश्य पंखों ने उड़ना सिखाया था।
राह में आनेवाली मुश्किलों से निपटने के लिये ब्रेक,क्लच,गेयर का इस्तेमाल करना सिखाया था।
10 comments:
दरअसल मेरे हिसाब से ड्राइविंग से आपके पास विकल्प तो बढ़ते ही हैं, मानसिक दृढ़ता भी बढ़ती है, सड़क पर दौड़ती गाड़ियों को ओवरटेक करने के साथ आप ज़िंदगी को ओवरटेक करना भी सीखते हैं। आगे बढ़ना सीखते हैं। मुश्किलों से जूझना सीखते हैं।
Bahut hi sahi kaha aapne....
bada hi aananddayi laga aapka yah sansmaran...bahut bahut majedar...
वर्षा जी, आपने लाजवाब कर दिया। लगा जैसे अपने मन की ही बातें पढ रही हूं।
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जिसपर हमको है नाज़, उसका जन्मदिवस है आज।
कोमा में पडी़ बलात्कार पीडिता को चाहिए मृत्यु का अधिकार।
स्मरण-संस्मरण बेहतर लगा । स्कूटर ड्राइविंग के बहाने आपने बहुत सी बातें कीं । आभार ।
हमारे आगरा/फ़िरोज़ाबाद में भी इन्हें गाड़ी ही कहते थे
वो तो कुछ बरस पहले हमने उन्हें गाड़ी कहना छोड़ा.
आपकी पुरानी यादें सीधे पढ़ते हुए दिल में उतरती गयीं.
वास्तव में उस स्कूटर/स्कूटी का योगदान तो रहा
बहुत अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट....
वर्शा जी बहुत अच्छा लगा आपका ये संस्मरण शुभकामनायें
आप की पोस्ट से महसुस हुआ कि लडको की तरह लडकियां भी पर लगा कर खुले आसमान मै उडना जानती है,बहुत सुंदर
खुले आसमान में सैर का रोमांचक संस्मरण प्रभावी रहा ...
ये तुलिका कौन है ...इसी नाम की मेरी भी एक बहुत पुरानी दोस्त है ...!!
Ab to bas yaaden hi hain.
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क्या आपने लोहे को तैरते देखा है?
पुरुषों के श्रेष्ठता के 'जींस' से कैसे निपटे नारी?
जिंदगी की कई टेडी मेडी गलिया है जो अपने मुहाने बाहर निकलने पर ही खोलती है ....उनमे जाये बगैर आप उनमे घुसने से घबराते है ...ओर जाने के बाद उब जाते है ..हर सुबह अपनी हथेली में एक नया तजुर्बा लेकर आती है ....
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