उस घर के बारे में आपको बताना चाहती हूं जिसका होना सिर्फ एक घर का
होना भर नहीं है। कुछ ईंट और ढेर सारी मिट्टी से बना वो स्मृतियों का घर है।
जिसमें तरह-तरह की स्मृतियां तैरती हैं। उन स्मृतियों के बारे में विस्तार से बात
की जानी चाहिए।
आज दो कमरे का घर लाखों रुपयों से खरीदनेवाले, हर महीने घर की मोटी
ईएमआई के कुचक्र में फंसे, ताज़िंदगी एक बैंक के कर्ज़दार हो गए लोगों को जरूर
जाना चाहिए ऐसे घरों के बारे में, जो महज एक घर भर नहीं थे। आज के आठ बाई आठ के
दो कमरों के मकान, ज़रा सी रसोई जिसमें पांच किलो आटा और पांच किलो चावल से ज्यादा
राशन नहीं रखा जा सकता, एक सर्विस बालकनी जिसमें एक वाशिंग मशीन ही रह सकती है, एक
और बालकनी कपड़े सुखाने के लिए, जहां कबूतर अपना शानदार आशियाना बनाते हैं, कम जगह
में ज्यादा की तरकीबें आजमानेवाले इन घरों में दरवाजा खोलो
तो पहले किचन फिर ड्राइंगरूम...। ठुंसम-ठुंसाई से बने हुए इन घरों के बारे में मैं
ज्यादा बात नहीं करना चाहती। क्योंकि इनमें कुछ भी ज्यादा नहीं होता।
स्मृतियों में बसे उस घर की बसावट बहुत सुंदर है। खेतों के बीच बना
मिट्टी का वो मार्ग जहां खत्म होता है वहां से शुरू करती हूं क्योंकि उसके आगे कुछ
नहीं दिखता और उससे आगे हमें जाना भी नहीं है बल्कि पीछे की ओर आना है। तो जहां वो
मिट्टी का मार्ग शुरु होता है उससे पहले ही एक बड़े से मैदाननुमा जगह के एक ओर, एक
जैसे दो या तीन छोटे मगर खुले हुए घर हैं। उन घरों के आगे एक छोटा सा मंदिर है।
ईंट का बना हुआ मंदिर जिस पर सीमेंट की चादर नहीं चढ़ायी गई, यहां हनुमान जी रहते
हैं। मंदिर के ठीक सामने एक बड़ा तालाब है। और तालाब के उस पार हमारा ये घर। मंदिर
से तालाब को पारकर उस घर तक जाने के लिए एक छोटा सा पगडंडी नुमा रास्ता है। कोई
तीन-चार सौ मीटर लंबी पंगडंडी। मंदिर से बायीं तरफ पीछे की ओर तो खेत हैं, जिसके
बीच में एक-दो छोटे-छोटे मिट्टी के घर भी बने हैं। मंदिर से बाएं होकर आगे पंगडंडी
की ओर बढ़ते हैं। पंगडंडी की शुरुआत जहां से होती है वहीं ठीक बगल में एक ऊंचा सा
टीला है। इस टीले पर एक कब्र है। गांव के कुछ लोग हर रात नियमपूर्वक कब्र पर दीये
जलाते हैं। सफेद रंग की कब्र किसी पीर फकीर की है। इस शांत टीले पर बच्चे खेलते
हैं। कब्र और मंदिर बिलकुल आसपास हैं। मानो रात में जब सब सो जाते हों तो ये आपस
में बतियाते भी हों। कुछ हालचाल लेते हों। पीर बाबा पूछते होंगे, हनुमन आज कितने
भक्त आए, कैसा दिन गुजरा। हनुमान जी हालचाल लेते होंगे आज दीया सही समय पर जला तो
दिया गया।
खैर अभी हम अपने घर तक नहीं पहुंचे। टीले को पीछे छोड़ पगडंडी पर आगे
बढ़ते ही दायीं तरफ पूरी गोलाई में तालाब
रहता है। जो दरअसल पगडंडी के दोनों तरफ फैला है। पगडंडी के नीचे ठीक बीच में तालाब
के पानी को रोकने के लिए दरवाजा सा बना हुआ है। तालाब का दायीं तरफ का बड़ा हिस्सा
पानी से भरा-पूरा रहता है। और बायीं ओर का हिस्सा सूखा सा रहता है। बरसात के दिनों
में ये दरवाजा खोल दिया जाता है ताकि लबालब हुए तालाब का पानी और विस्तार ले सके।
बारिश के दिनों में तालाब के बायीं ओर का हिस्सा भी भरा-पूरा रहता है। बल्कि तब तो
पानी पगडंडी के उपर हिलोरें मारने लग जाता है। क्या पता पगडंडी तब नाराज़ हो जाती
हो। गर्मियों में तो कितनी चौड़ी रहती है बारिश में उसके किनारे सिकुड़ से जाते
हैं। तब तालाब उसे डराता है।
ये पगडंडी खत्म होती है उस बड़े से घर के दालान पर। जिसमें जंगली घास को
फुरसत से पसरने का पसरने का पूरा मौका रहता है। वो इधर-उधर छितरायीं रहती हैं,
कहीं-कहीं गुट बनाकर जमा हो जाती हैं, तो हरी-भरी लगती हैं। दालान को छूते तालाब
में जलकुंभियों ने डेरा जमाया हुआ है। जलकुंभियों के गहरे गुलाबी रंग के फूल बड़े
सुंदर लगते हैं। पानी के फूल ये, पानी का मोह जगाते हैं।
अब हम सामने खड़े होकर उस घर को देख सकते हैं। एक बड़े संयुक्त परिवार
के हिसाब से बना एक बड़ा सा घर। जिसकी छतों पर खपरैल लगी थीं। जहां मेहमानों के
ठहराने की पूरी व्यवस्था थी। जहां हवा के गुजरने की भरपूर जगह थी। रोशनी घर के हर
कोने में छितरा सकती थी। पानी का पूरा इंतज़ाम था। ये एक ही आबाद घर था यहां,
और हां अकेला बिलकुल
नहीं।
घर के अंदर आपको ले चलें इससे पहले बाहर की तस्वीर को थोड़ा और स्पष्ट
करने की कोशिश करते हैं। घर के ठीक सामने तालाब है। घर के बाएं हिस्से पर उजड़े हुए
मिट्टी के दो छोटे से घर हैं, जिनकी बाहरी दीवारें ढही चुकी हैं, बरसों से वहां
कोई गया न हो जैसे। घर के दायें हिस्से पर थोड़ा नीचे खेत है। खेत में बीचोंबीच एक
आम का छोटा सा पेड़ लहलहाता है। अभी नौजवान है ये, इस पर लटकती कच्ची अमिया देखी
जा सकती हैं। खेत को पार करेंगे तो बड़े
पेड़ों के झुरमुट के बीच एक कुआं है। कुएं तक पहुंचने के लिए आप घर को भी पार कर
गए तो वापस लौट आइये। और फिर हम घर के सामने खड़े हो जाते हैं।
ये एक बड़ा और भव्य घर है। मिट्टी का बना है। जिसमें ईंटों का भी
बखूबी इस्तेमाल हुआ है। सबसे पहले तो बाहर का हिस्सा है आयताकार। दो-दो मीटर की
दूरी पर चार पिलर हैं जिन्हें पकड़कर छोटे बच्चे चारों तरफ घूमते हैं। ज़मीन पर ईंटें बिछी हैं, जो बिलकुल मिट्टी में
धंसी हुईं है और बाहर से नहीं दिखायी पड़ती। इसके दोनों छोर पर दो कमरे हैं। खेत
की तरफ का कमरा बैठक है। इसमें दाखिल होते हैं। इसके दूसरे छोर पर भी एक किवाड़ है
जो खेत की तरफ खुलता है। किवाड़ खोल देने पर भरपूर ताजी हवा अंदर आती है। सुबह की
नम, दोपहरी की गर्म, शाम की ठंडी हवा कमरे का किवाड़ खुलने के इंतज़ार में रहती हो
जैसे। यहां कोई गणित के भारी भरकम प्रमेय हल करने के लिए बैठता है, कोई
कहानियां-कविताएं पढ़ने, ये कमरा एक रचनात्मक ऊर्जा देता है। बैठक में लकड़ी का
बना ऊंचा सा पलंग रखा है कोई चार बाई छह फीट का। सफेद पट्टियों से बुना हुआ।
पट्टियां ढीली होकर बीच में से थोड़ी झूल सी भी गई हैं। प्लास्टिक के तारों से
बुना हुआ लकड़ी का पुराने वक्त का सोफा भी रखा है। दीवारों पर एक तरफ बारासिंगा की
सींगें लटकी हुईं हैं। दादाओं के शिकार की निशानियां। दूसरी तरफ की दीवार पर एक
बड़ी सी ब्लैक एंड व्हाइट फोटो फ्रेम कराकर रखी है। स्टूडियो में खिंचवाई हुई उस
ज़माने की जब इक्का दुक्का फोटो ही हुआ करती थीं। दीवारों में ही आलमारी बनी हुई
थी वहां कुछ और सजावटी वस्तुएं थीं। इसके ठीक दूसरे छोर का कमरा बिलकुल उलट था।
गलती से दरवाजा छोड़ दिया गया तो बदबू उठने लगती थी। यहां मुर्गी-बकरी पालन का
व्यवसाय किया गया था। उनकी गंदगी और उनके होने की खास गंध यहां जमा थी। घर के बगल
में खेतों की ओर गायें भी बंधी हैं। जिनकी खूब खातिरदारी की जाती है।
चलिये इस बाहरी हिस्से से अब घर के अंदर की ओर दाखिल होते हैं। ठीक
बीचोंबीच एक बड़ा सा लकड़ी का किवाड़ है। जिसे खोलते ही एक मिट्टी से लीपे कमरे
में प्रवेश करेंगे आप। जिसके दोनों तरफ दो चारपाइयां रखी थीं। ये मेहमानों को
टिकाने का कमरा था। यहां ज्यादा कुछ नहीं था। जब गर्मी की छुट्टियों में सारा
परिवार इकट्ठा होता तो यहां की चारपाइयों पर लोग जमते और गप्पें मारते। चारपाई पर
अगर सुसता लिये हों तो आगे बढ़िये दूसरा दरवाजा है जो घर के अंदर खुलता है।
बीचों-बीच बड़ा सा आंगन। इतना बड़ा जितने में दिल्ली-गाजियाबाद में दो कमरे के
फ्लैट बनते हैं। आयताकार आंगन के चारों तरफ बड़े-बड़े कमरे। इन कमरों में मिट्टी
और गोबर से लीपाई-पोताई होती थी। इसलिए इनकी खास गंध थी। आंगन और कमरों के बीच में
कोई पांच फुट की चौड़ाई में वर्गाकार जगह। जो आंगन और कमरों को अलग करती थी। ये
जगह हर वक़्त चहकती रहती थी। कोई बैठा गपियाता। कोई सिलाई-बुनाई करता। घर की औरतों
की चिल्लाहट, उनके लोकगीत, उनकी हंसी-ठिठोली, बच्चों के भागते कदमों की थप-थप,
आदमियों का गुस्सा, दादियों की कहानियां....यहां सबकुछ गूंजता। कमरों में तो लोग
सिर्फ रात में सोने जाते। बाकी सारा वक़्त यहीं गुजरता।
यहां भी बीच-बीच में ईंटों के पिलर बने थे और फिर बीचोंबीच आंगन। आंगन
के एक छोर पर तुलसी का पौधा। मिट्टी और सीमेंट से जिसके लिए तीनफुट ऊंचा घेरा
बनाया गया था। इसी में पतली और ऊंची बल्ली में नारंगी पताका भी फहराती। जो बताती
कि इस घर में आस्थावान लोग रहते हैं। बीचोंबीच एक हैंडपंप। जो नहाने, बर्तन धुलने
के काम में आता था। फुदकती चिड़ियां यहां खूब गुनगुनाती। किस्म-किस्म की चिड़ियां
दिखती यहां। गौरैया, कोयल, नीलकंठ। हर वक़्त चहचहाता आंगन। कौआ अगर मुंडेर पर
बैठकर कांव-कांव करता तो महिलाएं मेहमान के आने का इंतज़ार करतीं, अटकलें लगातीं,
कौन सा मेहमान आ सकता है। अगर भूला-भटका कोई दूरदराज का रिश्तेदार आ जाए तो कौए की
कांव-कांव सफल हो जाती। आंगन में गेहूं धुलकर सुखाया जाता और फिर दिन भर की
पहरेदारी। चिड़िया ताक में रहती, दाना-दाना चुगने को बेकरार होती। महिलाएं चिड़िया
उड़ातीं और वो उनकी आंख चुराकर फुदक-फुदककर आती। लुकाछिपी का ये खेल पूरी दोपहरी
चलता।
आंगन के सामनेवाले हिस्से में एक तरफ रसोई जमती। मिट्टी के चूल्हे बने
थे। जिनमें फूंक मारने के लिए लोहे की एक लंबी सी धौंकनी रखी थी। लकड़ियों पर आग
सुलगाने के लिए पूरी सांस खींचकर धौंकनी में फूंक मारती। एक छोटी सी चिंगारी
फड़फड़ाती। बड़ी तेज़ी से दूसरी लंबी फूंक ताकि चिंगारी कमज़ोर पड़े इससे पहले लौ
बन जाए, चूल्हे की लकड़ियां सुलगने लगें। जो ये काम पहली बार करेंगे उन्हें बहुत
दम साधना पड़ेगा। चूल्हे की आग जलाना अनाड़ी के लिए मुश्किल है। चूल्हे पर सेंकी
गई रोटियों की ख़ुशबू और स्वाद दोनों ही अलग होते हैं। गांव के पानी का भोजन बहुत
स्वादिष्ट बनता है। आग और पानी दोनों की ख़ुश्बू गांव की तश्तरी में होती है।
लेकिन इसकी बहुत कीमत भी चुकानी पड़ती है। सुलगती लकड़ियों से निकलती राख फेफड़ों
को धीरे-धीरे अपने कब्जे में ले लेती। एक समय में टीबी ने बहुत ज़िंदगियां लीं।
गांवों में इस समय गैस तो नहीं पहुंची थी, मिट्टी के तेल वाले स्टोव खूब इस्तेमाल
होने लगे थे। यहीं रसोई में लकड़ी की आलमारी थी जिसमें लोहे की जालियां लगीं थीं।
इन आलमारियों में अंचार के बड़े-बड़े मर्तबान रखे थे। तेल-घी के डब्बे रखे थे।
नीचे की तरफ कांच के कप और केतली जमाकर रखी गईं थीं। रसोई के ठीक पीछे एक बडी सी
मिट्टी की खोह नुमा ऊंचा सा कमरा था। ये अनाज रखने की जगह थी। इसमें अंदर ही
मिट्टी की सीढ़ियों सा भी कुछ बना था जो अब टूट चुका था। वहां उपर भी अनाज रखा
जाता था।
चार भाइयों का घर था ये। जो अब बुजुर्ग हो चुके थे। उनके आठ बेटे और छह
बेटियां और उन सभी के नन्हेमुन्हे बच्चे। जो गर्मी की छुट्टियों, या किसी मौके पर
गांव आते। बड़े अदभुत और अचंभित भाव से इस बड़े घर को देखते। अनाज रखनेवाली इस जगह
को उन्होंने भूतिया घोषित किया था। बात न सुनने वाले बच्चों को महिलाएं इसी कमरे
में छोड़ने का डर दिखाती। बच्चे वहां बाहर से झांक-झांककर भाग निकलते। अनाज घर के
अलावा कुल दस कमरों से घिरा हुआ आंगन था। कमरों के अंदर का डिजायन तकरीबन एक जैसा
था। सभी कमरों में उपर की ओर मचान सी बनी थी। जिसमें ढेर सारा सामान रखा था।
बड़े-बड़े लोहे के बक्से रखे थे। घर का कबाड़ भी इन्हीं मचानों में रखा था। दीवारों
में आलमारियां थीं। छोटी-मोटी चीजें इन्हीं आलमारियों पर रखी जातीं। कमरे में एक
दीवार से दूसरे दीवार तक रस्सी खींच दी थी। इस पर कपड़े लटका दिये जाते। कुछ
पुरानी आलमारियां भी रखी थीं। अब परिवार के सभी सदस्य तो यहां रहते नहीं थे तो
कोने पर एक टूट रहे कमरे में झूला टांग दिया गया था यहां बच्चे खेलते, झूला झूलते।
कमरों की बाहरी मिट्टी की दीवारों में ही आइने जड़े हुए थे। जगह-जगह कई आइने थे जो
वक्त के साथ धुंधले पड़ चुके थे। बाल बनाकर, बिंदी-सिंदूर लगाकर महिलाएं इन जड़े
हुए आइनों में खुद को एक बार देख लेतीं, निहार लेतीं, कभी खुद की निगाहों से, कभी
अपनी पतियों की निगाहों से। हर आइने के बगल में दीवार पर ही एक छोटी सी आलमारी भी
बनी थी। जिसमें कंघी, तेल, काजल की डिबिया, सिंदूर की डिबिया रखी थी। कुछ
आलमारियों में दीये रखे गए थे। कांच की शीशियों में तेलभरकर उसके ढक्कन पर बत्ती
निकालकर बड़े दीयों का जुगाड़ किया गया था। मिट्टी के दीयों के उपर कजरौटा रखा था।
दीया जलता, उसकी लौ कजरौटे में जमा होती और काजल बनता। यही काजल उनकी आंखों की
घेरेबंदी करता, छोटे बच्चों के माथे पर नज़र का टीका बन जाता। रात में रोशनी के
लिए आंगन के दोनों कोनों पर दो बड़े लालटेन भी लटके थे।
पुराने जमाने में मां-बाप की मौजूदगी में पति अपनी पत्नियों की ओर नजर
उठाकर देखते भी नहीं। उनसे बातें सिर्फ बंद कमरों में रात ढले होतीं, दिन में जैसे
अजनबी बन जाते हों। पतियों के खाना खाते समय पत्नियां पंखा झुलातीं, यही वो वक़्त
होता जब वो अपने मन की कोई बात कह पाती हों। चाहे सासु मां की शिकायत, अपने लिये
नई साड़ी या बच्चों के लिए कॉपी-पेंसिल लाने की बात।
समय-समय पर मिट्टी और गोबर से कमरों और पूरे घर की लिपाई की जाती। घर
के बायें हिस्से की ओर एक कमरे में जमीन पर चक्की बनी हुई थी। दोपहर में सारा काम
निपटाकर घर की महिलाएं उसमें अनाज पीसती थीं। उनकी मदद के लिए बाहर से गरीब घरों
की महिलाएं भी आतीं। अनाज पीसने का काम खासी मेहनत का था। दोनों बाजुओं से पूरी
ताक़त लगाते हुए पत्थर की बनी चक्की दो महिलाएं मिलकर घुमातीं। वो आमने-सामने
बैठतीं। अनाज पिसाई के काम के समय वो अपने लोक गीत गातीं। एक दूसरे को चिढ़ातीं।
सहेलियों को चिढ़ाने के लिए भी खूब गीत बने थे। यही उनका मनोरंजन का समय भी होता। चक्की वाला ये कमरा अहाते में खुलता। एक बड़ा खुला सा अहाता, बोलते
समय जिसमें से अ को हटा दिया जाता और सिर्फ हाता पुकारा जाता। इसमें अमरूद, आम के
कई पेड़ लगे हुए थे। बीचों-बीच आठ बाई छ की लंबाई चौड़ाईवाली सीमेंट से बनी पक्की
फर्श थी। जिसके चारों ओर एक ईंट की सीमेंट जड़कर मेड़ सी बना दी गई थी। ये जगह कपड़े
धुलने के लिए थी। घर की महिलाएं, माएं-चाचियां-बुआएं यहां कपड़े धोतीं। आश्चर्य
होता है कि कपड़े धोने के लिए इतनी बेहतरीन व्यवस्था। हाता वो जगह थी जहां एक ओर
पुरानी तकनीक का शौचालय भी बना हुआ था। जिसकी बदबू का भभका वहां जाने से हर किसी
को रोकता। ईंट की दीवार से घिरा हुआ शौचालय था ये। कपड़े धुलने की जगह से थोड़ा सा
आगे। वहां कोई जाना नहीं चाहता था। सब खुले में ही शौच जाते। महिलाएं शाम ढलने के
बाद। लेकिन शहरों में पले-बढ़े बच्चे जब गांव आते तो मजबूरी में नाक बंदकर इसी जगह
का इस्तेमाल करते। हाते में हवा खूब चलती। ये घर का एक स्वतंत्र हिस्सा था। अब ये
बताने पर दुख होगा कि आज के वक्त में आबादी के लिहाज से हम जितना बढ़ चले हैं, ऐसे
अहाते में दो-तीन घर तो बिल्डर लोग आसानी से बना देते। उसके उपर कई मंज़िलें भी
डाल देते। खैर..।
उस ज़माने की तकनीक, खुले-हवादार, ऊंची छतोंवाले मिट्टी के घर में
गर्मी के दिन बहुत सताते न थे। कमरों के बाहर चारपाइयां डालकर लोग आराम फ़रमाते। दोपहर
की हवा गर्म तो लगती लेकिन जलाती नहीं।
इतना किस्सा सुनाते-सुनाते अब शाम हो चुकी है तो चलिये ज़रा घर के
बाहर की तरफ चलते हैं, घर के सभी सदस्य वहीं खाट पर जम गए हैं। मिलने-मिलाने
आनेवाले भी उधर ही ठहरकर बतियाते हैं। जरा तालाब की ओर तो देखिए। छोटे बच्चों का
एक झुंड पानी में खेल रहा है। एक ओर बंशी भईया बड़ी देर से कंटिया डालकर मछली
फंसाने की कोशिश में बैठे हैं। मछली को फंसाने के लिये यहां लाल चींटों का चारा
बनाया जाता और उसे कंटिये की हुक में फंसा देते। कभी आटे की गोलियां फंसाते। एक
दिन आप भी कंटिया डालकर बैठिये तब पता चलेगा कि मछली मारना कितने धैर्य का काम है।
घंटों बैठे रहो तब जाकर कंटिये में हलचल होती। एक बड़ी मछली कांटे में फंस गई तो
बस रात का भोजन तैयार। कई बार तो मछली को आग पर भुनकर पकाया जाता और नमक मिर्च
लगाकर चट कर लिया जाता। शाकाहारी लोग माफ करें। तालाब में एक छोर पर कुछ भैंसें
आराम फ़रमा रही हैं। भैंसे गर्मी में तालाब का पानी सोख रही हैं। तालाब में पगडंडी
की तरफ कम पानी रहता है। वहीं एक-दो शिलाएं भी रखी रहती हैं। जहां लोग कपड़े भी
धोते हैं। दूसरी तरफ तालाब का पानी गहरा होता जाता है। तालाब से जुड़े भूतों के कुछ
किस्से भी चटखारे लेकर सुनाये जाते हैं। रात में एक आदमी पगडंडी से गुजरता है, उसे
रोज़ आवाज़ आती है भाई बीड़ी दे दे। वो आदमी इधर-उधर देखता है कोई नहीं दिखायी
देता। मगर दोबारा जैसे ही वो कदम आगे बढ़ाता है फिर आवाज़ आती है, बीड़ी दे दे।
आदमी ठिठककर रकता है और अपनी जेब से बीड़ी का बंडल निकालकर वहीं फेंकता है और
भागता चला जाता है। तब से किस्सा मशहूर है एक यहां एक भूत रहता है जो रात में
लोगों से बीड़ी मांगता है।
बच्चे और बूढ़ों की किस्से-कहानियों में शाम कब की चल पड़ी और रात
तारों की ओढ़नी ओढ़कर चुपके से उतर आई। गांवों की रात में जुगनू-टिड्डे और अदृश्य
से रहनेवाले तमाम छोटे-छोटे जीव गूंजने लगे। खाना पक चुका था। पहले बच्चों की कतार
निपटी, आदमियों की, औरतों ने सबसे आखिर में खाना खाया। बच्चों ने चरपाइयां लगा
दीं। उनकी जादुई और भूतों वाली कहानियां चल रही हैं। घर के बाहर दालान में रात के
सुरीले जीवों में कुछ खर्राटे भी गूंजने लगे हैं। औरतें थक के निढाल हो गईं हैं और
आंगन में ही चारपाइयां डाल के सो रही हैं। हवा रह-रह कर सबके सिराहने से गुजरती है,
सो गए लोगों को दुलारती है, नींदभरी मीठी थपकियां देती है। सामने तालाब भी उनींदा
है, अपनी जलतरंग में चुपके से जम्हाईयां लेता है। सबके सो जाने की तसल्ली करता हुआ
अलमस्त नींद में घुल जाता है।
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