यहां गूंजते हैं स्त्रियों की मुक्ति के स्वर, बे-परदा, बे-शरम,जो बनाती है अपनी राह, कंकड़-पत्थर जोड़ जोड़,जो टूटती है तो फिर खुद को समेटती है, जो दिन में भी सपने देखती हैं और रातों को भी बेधड़क सड़कों पर निकल घूमना चाहती हैं, अपना अधिकार मांगती हैं। जो पुकारती है, सब लड़कियों को, कि दोस्तों जियो अपनी तरह, जियो ज़िंदगी की तरह
17 August 2011
बरसात का एक दिन, साढ़े १२ बजे
बरसात का एक दिन था ये, बरसात की किसी रात से बेहतर, सुंदर। बादलों ने जैसे शहर को घेर लिया था। सूरज को क़ैद कर लिया था। पंछी अपने पंख फुलाकर खिड़कियों, छत, रेलिंग, खिड़की पर टंगे एसी जैसी जगहों पर छिपे फिर रहे थे। कपड़े सूख नहीं रहे थे, कमरों में एक खिड़की से दूसरी खिड़की पर रस्सी बांधनी पड़ी। हर चीज से नमी की बू आ रही थी। मौसम ठंडा था, चाय-कॉफी का ख्याल बार-बार आता। कॉफी की खुश्बू ज्यादा अच्छी लगती और चाय पीने में, अरे अदरकवाली चाय।
धूप का इंतज़ार बिलकुल न था, जबकि हर चीज पानी से चिप-चिप कर रही थी। गैलरी में भी पानी भर गया था, टहलने की जगह न थी। बारिश की बौछारें कभी-कभी आतीं और फिर बादल आराम फरमाने लग जाते। ये ऐसा मौसम था, जिसमें एक अच्छी चाय पी सकती थी, एक अच्छी किताब पढी जा सकती थी, एक अच्छी फिल्म देखी जा सकती थी, किसी यार-दोस्त से फोन पर गप्प मारी जा सकती थी, पड़ोसियों से यूं-हीं इधर-उधर की बातें की जा सकती थीं या खुद भी कुछ लिखने का जी चाहता।
ये बरसात का एक सुखद दिन था। जो दरअसल मुश्किल से नसीब होता है। वरना इस वक़्त तो दफ़्तर में होना था और दुनियाभर की ख़बरों को तोड़ना-मरोड़ना था। किसी की हत्या, किसी के बलात्कार की ख़बर को सटीक शब्दों में बताना था। कुछ सही स्लग, कुछ सही हेडलाइन के बारे में सोचते हुए न्यूज़रूम की आर्टिफिशियल लाइट्स जो आंखों को कुछ सालों में खराब करने के लिए बहुत से ज्यादा काफी थीं वहीं एक केबिन की कांच से बाहर का छोटा सा टुकड़ा दिख जाता, दरअसल दिखती तो सिर्फ एक दीवार थी, लेकिन दो दीवारों के बीच की खाली जगह में मौसम का कुछ-कुछ अनुमान लग जाता, बारिश की बूंदें देखने की कोशिश होती, या धूप का थोड़ा-बहुत पता चल जाता। लेकिन इस कांच से देखकर भी साफ-साफ मौसम का अनुमान नहीं लगाया जा सकता, शायद मौसम विज्ञानी भी ऐसी किसी कांच के पार से मौसम का अनुमान लगाते होंगे, जो कभी सही नहीं होतीं।
लेकिन न्यूज़रूम की इस कांच के पार से अगर अच्छे मौसम का ज़रा भी अनुमान लगता तो जी चाहता फट बाहर भागकर जाएं, कुछ लम्हों के लिए सही, मौसम को अपनी निगाहों में भर लें, बारिश को अपने सीने में संजो लें, कुछ बूंदें हथेलियों से छूकर, उसका एहसास अपने साथ लेकर आ जाएं।
लेकिन एक खड़ूस टाइप के व्यक्ति हमारी निगहबानी के लिए तैनात थे, उनका काम था हमसे काम लेना, ज़्यादा से ज़्यादा, वैसे वो उसी से काम ले पाते थे जो काम करते थे, जो काम नहीं करते, वो उनसे काम नहीं ले पाते थे। इसलिए उनपर गुस्सा आता, क्योंकि कई बार वो सचमुच क्रूर हो जाते।
बीमारी की वजह से ही सही, बरसात का ये दिन जिसमें रात से कुछ ही ज्यादा उजाला है बस, अंधेरे से थोड़ा ही कम अंधेरा है बस, बड़ा अच्छा लगता है। खिड़की से नज़र आता है, कबूतर पंख फुलाए बैठे हैं, बेटी बारिश में जाने की जिद कर रही है, उसे बुखार है।
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8 comments:
सुन्दर प्रस्तुति
वह दिन खुदा करे कि तुझे आजमायें हम.''
बरसात की खूबसूरती का दैनिक जीवन के साथ तालमेल बैठाता हुआ आलेख, आपने बहुत ही सुंदर ढंग से मनोभावों को अभिव्यक्त किया है. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
दिलचस्प विवरण है। क्या आजकल की पीढी बरसात में चाय के साथ पकौडे नहीं खाती? बेटी को छतरी लेकर माँ की निगरानी में छत, चबूतरे या बालकनी आदि पर तो चलने दिया जा सकता है शायद ...
बरसात के आनंद में किशोरी अमोनकर का मालकौंस लगाकर आपके घर में चाय पकोड़े खाने का मन हो रहा है.. अच्छा लिखा। आपकी भाषा में टीवी की भाषा का असर आ रहा है जो अच्छी बात नहीं।
-प्रमोद कौंसवाल
achha likha hai aape...
http://teri-galatfahmi.blogspot.com/
बरसात का ऐसा दिन हो और चाय के साथ पकोडे मिल जायें जो कोई और बना कर दे तो क्या मजा हो । हाथ में एक बढिया सी किताब हो । आप की बेटी को बुखार ना हो । उसके साथ थोडा बारिश का मजा भी लिया जा सकता है । सुंदर लेख ।
आनंद आ गया. मुझे बरसात के दिन बड़े भाते हैं दूसरी और मेरी बेटी बहुत चिढती है. वह फ्लेट में रहती है. कपडे सुझाने की जगह नहीं है. उसे कपड़ों को धूप दिखाने का फोबिया है. सरकारी मकान होने से दीवारों में सीलन है.
पोस्ट अच्छा लगा । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है ।
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