20 September 2008

थोड़ा सा प्लास्टर ऑफ पेरिस और वो मुस्कान

कॉलेज के वक़्त की बात है। लखनऊ के हजरतगंज बाज़ार से गुज़र रही थी। तभी मेरी नज़र एक लैंपशेड पर पड़ी। जो दरअसल एक छोटा सा sculpture था, एक औरत का। उस औरत के चेहरे पर हल्की सी प्रसन्न मुस्कान थी, सौ फीसदी संतुष्टि का भाव जो किसी आम इंसान के चेहरे पर देखने को कम ही मिलता है (ये सारे भाव भी लिखने के साथ ही समझ में भी आ रहे हैं)। औरत की मूर्ति के ऊपर एक छोटा सा लैंपशेड बना हुआ था। बहुत ही सुंदर।
तब जेब में पॉकेटमनी के पैसे ही हुआ करते थे। डेढ़ या दौ सौ रूपये का लैंपशेड रहा होगा। मैंने उसे बहुत ग़ौर से देखा और न खरीदने का फैसलाकर घर वापस आ गई। पर बहुत देर तक वो लैंपशेड मेरे अंदर खलबली मचाता रहा। उसे खरीदने के बारे में नहीं सोच रही थी पर बहुत बेचैनी हो रही थी। घर से पैसे मांगने का सवाल ही नहीं उठता था। खरीदने का ख्याल बार-बार दिमाग़ से झटक दे रही थी, पॉकेटमनी का एक बड़ा हिस्सा खर्च करना पड़ता, तब पॉकेटमनी बहुत कीमती हुआ करती थी।
पर आखिरकार मन के आगे झुक ही गई। थोड़ी देर बाद स्कूटर उठाया, बहन को साथ लेकर उसी दुकान पर पहुंच गई। लैंपशेड लिया और ड्राइंग रूम के एक कोने में उसके लिए जगह बना दी। कुछ दिनों तक बार-बार जाकर उसे झांक भी आती। धूल का कतरा भी होता तो झट साफ करती। फिर धीरे-धीरे उससे ध्यान हटता गया। औरत की उस सुंदर मूर्ति पर धूल का कतरा क्या एक पूरी मोटी परत चढ़ गई थी। मन शायद उससे भर गया था। कई बार कुछ सेकेंड्स के लिए दिमाग कुलबुलाता भी था, इसे लेने के लिए मैं कितनी उतावली थी और अब कभी ध्यान ही नहीं जाता। उसे लेने का उतावलापन-बेचैनी और छोड़ देने की बेरुख़ी दोनों मुझे हमेशा अजीब लगते रहे, कई बार।
इस बार लखनऊ गई थी तो उस लैंपशेड का शेड उखड़ चुका था। पर प्रसन्न मुस्कान के साथ औरत की मूर्ति सलामत थी। उसकी पुरानी जगह भी छिन चुकी थी। उसे बाहर वेस्टेज वाले कोने में डाल दिया गया था। एक बार को मन किया कि उसे अपने साथ ले आऊं पर लाई नहीं। वो पुराना ख्याल फिर आया। औरत की मूर्ति वाले लैंपशेड को लाने की बेचैनी और फिर बेखयाली। अब भी प्लास्टर ऑफ पेरिस पर गढ़ा गया वो चेहरा, उस पर उकेरी गई मुस्कान मेरे ज़ेहन में समायी हुई है, अजीब भाव के साथ।
(चित्र गूगल महाराज की कृपा से)

13 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

सुन्दर एहसास।

रंजू भाटिया said...

कुछ यादे यूँ भी साथ रहती है ..:)

Ashok Pandey said...

वर्षा जी, सरल शब्‍दों में बहुत गहरी बात कही है आपने। आलेख पढ़ना अच्‍छा लगा।

Kavita Vachaknavee said...

कहन में रोचकता है. लिखती रहें!

Udan Tashtari said...

रोचक लेखन..आपकी यादों की सैर अच्छी लगी.

neelima garg said...

interesting reading......

मीत said...

कुछ कही-अनकही यादें...
ज़िन्दगी के खलिहान में यूँ ही कभी नयी सी कोपल बन कर फ़ुट आती हैं..
पर यादों का एक अपना मजा है...
सुंदर अनुभव से अवगत करने का शुक्रिया...

डॉ .अनुराग said...

इन अहसासों को शिद्दत से अपने साथ रखियेगा ...जिंदगी में कई जगह आपको मुस्काने मिलेगी...एक सच्चे दिल से लिखा गया.आपका लिखा पढ़कर बड़ा अच्छा लगा...

makrand said...

let the way life goes it s nothing to say all we are in form of pop
regards

Dr. Chandra Kumar Jain said...

मन की बातों की
सुंदर और सधी हुई
प्रस्तुति.....अभिव्यक्ति को
व्यक्ति की पहचान बना देती है.
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आपका लेखन संभावनापूर्ण है.
बधाई
डॉ.चन्द्रकुमार जैन

admin said...

कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जो अनायास ही दिल को छू जाती हैं। यह पोस्ट भी उसी तरह की ही है।

सुधीर राघव said...

मन शायद उससे भर गया था। यही वाक्य है, जिसे कोई स्वीकार नहीं करना चाहता, आपने बड़े साहस से यह बात कहकर अपनी याद को व्यापक कर सबसे साझा कर दिया। सबके जीवन में ऐसी यादें होती हैं, मगर भुलाने वाले पलट कर यह नहीं कह पाते कि मन भर गया था।

इरशाद अली said...

छोटा सा आलेख है, पढ़कर सोचा टिप्पणी दे। लेकिन देखा पहले ही मित्रों ने इतना कुछ दिया कि हमारे पास तो कुछ शेष न रहा बस कह सकते है.......आह! छोटी छोटी चीजों मे जिन्दगी के मतलब निकालने की कला सबको नही आती।