08 March 2007

रफीक़

वो चालीस दिनों से नियमपूर्वक नगरनिगम के ऑफिस जाता।  धरने पर बैठता, चीखता, नारे लगाता। सप्ताह में एक बार जब कमाई का वक्त आता,  सड़क पर हाट लगती तो कमाई जितनी होती उससे ज़्यादा ठेकेदार हफ्तावसूली के नाम पर लूट ले जाते। हर बार हाथ माथे पर जाकर रुक जाता, माथा हाथ पर टिक जाता। दो बच्चों की पढ़ाई, बहन का कॉलेज और ज़रुरतों के आगे अपना मन मार लेती बीवी की ख़्वाहिशें। रफीक ठेकेदारों को वो सबकुछ देने को तैयार था जो तय है। लेकिन ठेकेदार की जेब भरने के लिए अपनी ज़रुरतों को हर हफ्ते मरता नहीं देख पा रहा था। रफीक और उसके साथियों ने फैसला किया कि अब अपना उत्पीड़न नहीं होने देंगे। अब आवाज़ उठाएंगे। उम्मीद थी एक बार नहीं, दूसरी बार नहीं, तीसरी बार भी नहीं लेकिन कभी तो सरकार आवाज़ सुनेगी। कभी तो मांग पूरी होगी। ठेकेदार के ख़िलाफ़ रफीक और उसके साथी कलेक्ट्रेट जाते। कपड़े पर अपनी मांगें छपवा रखी थी, पेड़ पर उसे टांग देते और धरना शुरु हो जाता। तीन हफ्ते से ज़्यादा वक़्त बीत गया। कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई। तय हुआ कि पीछे नहीं हटना है। मांगे पूरी करवाने के लिए अब दो लोग अनशन पर बैठ गए। नगरनिगम के आयुक्त से मिले। सरकार के बाशिंदों तक जाकर अपनी तकलीफ बताते रहे। लेकिन आम आदमी की तकलीफ सरकार के लिए रोज़ का रोना थी। रफीक सोचता ये कैसा लोकतंत्र है। यहां चालीस दिनों से हम धरना दे रहे हैं लेकिन सुनने वाला कोई नहीं। न अधिकारी, न नेता, न पुलिस। एक व्यक्ति ज़्यादती किए जा रहा है सब जानते हैं लेकिन कोई कुछ नहीं बोलता। सारे दुकानदारों का आक्रोश चरम पर था। एक मीटिंग बुलाई गई, एक और फैसला लिया गया। गरीबों की बैठक का फैसला। आत्मदाह का फैसला। तय हुआ कि रफीक और उसका एक और साथी आत्मदाह करेंगे। शायद तब एयरकंडीशन चैंबर में बैठे नेताओं-अधिकारियों तक उनकी आवाज़ पहुंचे। शायद तब बच्चों की पढ़ाई न रुके। बहन कम से कम अपना कॉलेज पूरा कर सके। त्यौहार पर बीवी को नए डिजायन वाले सोने के टॉप्स न सही एक सूती साड़ी तो दे दी जाए। ये विरोध का चालीसवां दिन था और अंतिम दिन भी। तय कार्यक्रम के मुताबिक रफीक और उसके साथी एक बार फिर अपनी मांगों को लेकर नगरनिगम पहंचे। तय फैसले पर काम करने से पहले एक बार फिर अधिकारियों से बातचीत की। क्यों नहीं वे ठेकेदारों की मनमानी पर अंकुश लगाते हैं, तहबाज़ारी के नाम पर ठेकेदार उनका ख़ून चूसना बंद करें। तमाम बातें वो कहते रहे, अधिकारी सुनते रहे, बात बनती न देख आखिर रफीक और उसके साथी ने अपने फैसले को कारगर कर दिखाया। बदन पर मिट्टी का तेल डाल कर एक तीली जलाई और खुद को आग के हवाले कर दिया। अब सबकुछ बदल गया। अधिकारी चीख रहे थे, पुलिस मुस्तैद, नेताजी वादे कर रहे थे। आग की लपटों ने रफीक के साथी को तो बख्श दिया लेकिन रफीक नहीं रहा। रफीक, उसकी मांगें, उसकी ज़िम्मेदारियां, उसका परिवार, बच्चे-बहन-बीवी सब कुछ स्वाहा। रफीक की बीवी रोई तो। लेकिन ज़्यादा नहीं। वो ये तय कर रही थी कि अब घर कैसे चलेगा। चूल्हा कैसे जलेगा। उसने फैसला किया कि बाप की छोड़ी दुकान बेटा संभालेगा। वो तहबाज़ारी जो उसके बाप ने देने से मना कर दी थी, वो उसके लिए नहीं मना करेगी। क्योंकि अब वो जानती थी कि ताकत ही बोलती है, ताकत ही करती है, वो ताकतवर नहीं इसलिए उन्हें वो सब करना होगा जो उनसे कहा जा रहा है। जो कमज़ोर हैं उन्हें ताकतवर की बात सुननी होगी। रफीक की बीवी ने तय किया कि अब तक घर के अंदर चूल्हा-चौका करती थी अब दूसरे घरों के भी बर्तन मांज दिया करेगी। चूल्हा-बर्तन करेगी और बेटी इस काम में उसकी मदद करेगी। वो भी घर-घर जाकर चूल्हा बर्तन करेगी। रफीक के साथियों के गुस्से के बाद सरकार ने एक लाख रुपया मुआवज़ा दिया। तय किया कि कुछ पैसों से ननद की शादी की बात चलाएगी। कुछ बेटी के ब्याह के लिए पोस्टऑफिस में जमा करा देगी और कुछ रोज़ की ज़रुरतों में थोड़ा-थोड़ा कर खत्म हो जाएंगे। पहले रफीक फैसले कर रहा था और अब उसकी बीवी। एक बार ये भी ख्याल आया कि रफीक का अंतिम फैसला वो भी क्यों न ले ले। रात भर सोचा कि पूरे घर को आग की भेंट चढ़ा दूं। एक और आत्मदाह। फिर मासूम बच्चों के चेहरे की ओर देखा, जिन्हें अभी ज़िंदगी देखनी है। ननद की ओर देखा जो कॉलेज पूरा कर अच्छी नौकरी करना चाहती है। खुद को शीशे में देखा। ग़रीबी से सपनों पर तो कोई फर्क नहीं पड़ता।  उसने कई सपने देखे थे खुद के लिए। उसने रफीक की तरह आत्मदाह का अंतिम फैसला नहीं लिया। रफीक की बेवा अब घर-घर जाकर झाडू-बर्तन करती है, बेटी साथ होती है। बेटा दुकान अच्छी तरह संभालने लगा।
अब सब कुछ शांत है। किसी को याद नहीं रफीक कौन था। उसकी मांगें क्या थीं। रफीक के साथी अब भी अपनी हाट में बैठते हैं। ठेकेदार अब भी मनमानी तहबाज़ारी वसूलते हैं। अब वो चुपचाप ठेकेदार को पैसे दे देते हैं। अब वो इस पर आक्रोशित भी नहीं होते, दुखी भी नहीं होते। अब इनके लिए ये सब सामान्य है। यही ज़िंदगी है।

1 comment:

dhurvirodhi said...

सब भूल जाते हैं
रफीकों को कोई याद नहीं रखता.
इस व्यथा ने मेरा मन छू लिया है