
आह!, मीठा सा स्वाद, आम का, इस मौसम की इस आंधी में आम भी तो टूटते हैं, ये स्वाद, ये रोमांच, हवा की ये बेलगाम दौड़ इतना सबकुछ महसूस करने का वक़्त कहां चला गया?
कल आंधी आयी थी, छुट्टी का दिन था, इसीलिए ये सब देखने-सुनने-अनुभव करने का मौका मिला। सोचने का मौका मिला। किचन के एग्ज़ाज्ट फैन के पंख तेज़ी से घूमने लगे थे और तभी आंधी की आवाज़ कहूं या ध्वनि सुनायी दी। अच्छा लगा था।
मैंने अपने कमरे की छत पर आर्टिफिशियल चांद-सितारे चिपका रखे हैं। रात में उनकी चमक देखकर लगता है सचमुच के तारे दिखते तो कितना अच्छा होता। यहां न छत है, न वक़्त।
हालांकि वक़्त का इतना रोना अच्छा नहीं, नींद के घंटे कम कर पाती, तो वक़्त आ जाता। पर क्या करुं, ये भी नहीं होता।
कल डिस्कवरी पर एक प्रोग्राम भी आ रहा था, जब आंधी आ रही थी उसी वक़्त।
इंसान की बनायी गई मशीनें, इंसान से ज्यादा ताकतवर हो जाएंगी। मशीनों से लड़ने के लिए इंसान के दिमाग़ में मशीनों को फिट कर, उसे ज्यादा ताकतवर बनाए जाने पर प्रोग्राम था। साइबर्ग...यानी आधा इंसान, आधी मशीन। सोचा, अच्छा है हम इस वक़्त में जी रहे हैं आनेवाला वक़्त तो और खतरनाक होगा। यहां आंधी, चांद-तारों की बात तो की जा रही है, आनेवाले कल में सिर्फ मशीनें ही होंगी। यहां “आई रोबोट” फिल्म देखने का सुझाव भी देती हूं।
यहां स्कूल के कोर्स में पढ़ी गई एक अंग्रेजी कविता भी याद आ रही है, लूसी ग्रे की। जिसमें वो प्रकृति की बेटी होती है शायद। कविता पूरी याद नहीं, अगर मिल जाती तो यहां जरूर चिपका देती।