लग जाने दो मुझे ठोकर
वो चोट मेरी अपनी होगी
उंगलियां पकड़-पकड़ चलने से
मेरा वज़ूद टूटता है
कदम गिर-गिरकर
फिर उठेंगे, फिर चलेंगे
और
मेरी वो राह अपनी होगी
मुझे ले लेने दो
मेरे हिस्से का दर्द
साथ निभाओ तो
साथी बनकर
जीवन मेरा
मैं जियूं जी भरकर
वो ज़िंदगी
मेरी अपनी होगी
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बहेलिया
रात की कराह पर बांवरा बहेलिया
ले चला सूर्य को हांकता बहेलिया
सरिता की धार पर प्यासा बहेलिया
ग़ुम गए किनारों को ढूंढ़ता बहेलिया
मंदिरों की बाड़ी पर घूमता बहेलिया
देख रहा भूख को नाचता बहेलिया
बंगलों की दहलीज़ पर फिरकता बहेलिया
रोटियों के दर्द को पुचकारता बहेलिया
धुंध के छलावों पर लौटता बहेलिया
ले चला नींद को दुलारता बहेलिया
3 comments:
bhut sundar kavitaye. likhati rhe.
बहेलिया ने दिल बहलाया . बहुत खूब सभी पंक्ति मस्त . पहली कविता को परिमार्जन की जरूरत है पता नही क्यों अलगाववाद नज़र आया . आत्मविश्वास बढेगा उनका जो अकेले सफर पर हैं . आता रहूँगा.
बहुत अच्छी कविताएं। क्या आत्मविश्वास है!
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