यहां गूंजते हैं स्त्रियों की मुक्ति के स्वर, बे-परदा, बे-शरम,जो बनाती है अपनी राह, कंकड़-पत्थर जोड़ जोड़,जो टूटती है तो फिर खुद को समेटती है, जो दिन में भी सपने देखती हैं और रातों को भी बेधड़क सड़कों पर निकल घूमना चाहती हैं, अपना अधिकार मांगती हैं। जो पुकारती है, सब लड़कियों को, कि दोस्तों जियो अपनी तरह, जियो ज़िंदगी की तरह
14 July 2008
किसी भी बात पर अपना निजी अंतिम फैसला सुनाने से पहले एक फिर सोच जरूर लेना चाहिए। जल्दबाज़ी कई बार आत्मघात सरीखी हो जाती है। मैंने भी कुछ ऐसा ही किया। मोहल्ले पर असद जी की कविताओं पर की गई अपनी टिप्पणी पर बहुत शर्मिंदा हुई। अगर मेरे पास अधिकार होता तो मैं अपनी बकवास टिप्पणी को वापस ले लेती। उस टिप्पणी के बाद साहित्य में रुचि रखनेवाले अपने कुछ साथियों से भी बात की। शर्मींदगी और बढ़ गई। असद ज़ैदी जी से बात करने के बाद कुछ राहत जरूर महसूस हुई। और फिर कविताएं तो सांप्रदायिक नहीं हो सकती। अच्छा तो यही है कि हम सांप्रदायिकता के ताने बाने से निकलकर भविष्य के लिए कुछ बेहतर सोचे। हिंदू-मुस्लिम-सिख-इसाई के फसाद में कभी किसी का भला हुआ क्या। कश्मीर हमारे सामने है।
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1 comment:
वर्षा जी
चलिये आपने स्वीकार तो किया. यह एक बेहतरीन मानवीय gesture है. इस के लिये तह-ए-दिल से मेरा आभार और साधुवाद स्वीकारें.
साम्प्रदायिकता एक कड़वी सच्चाई की तरह मौजूद है हमारे अभागे देश में और उसे हवा देने वाले मौक़े खोद-खोद लाने की सतत जुगत में लगे रह्ते हैं.
अच्छे साहित्य ने हमेशा इन शक्तियों का प्रतिरोध ही किया है.
बहरहाल आपका शुक्रिया.
मौक़ा मिले तो हमारे कबाड़ख़ाने में इसी से सम्बन्धित एक पोस्ट देखें :
http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/07/blog-post_13.html
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