प्रजातंत्र से हमारा अभिप्राय उस सरकार से है जो गधों की होती है और गधों के भले के लिए गधों के द्वारा ही चलाई जाती है। जनता की सेवा करने के इच्छुक गधों की तादाद इतनी ज्यादा होती है कि सरकार बनाने के लिए चुनाव कराया जाता है। इन चुनावों में लाखों रुपयों का खर्च आता है। खर्च के अतिरिक्त शराब, गुंडागर्दी और काले धन का प्रयोग भी बदस्तूर किया जाता है। चुनाव आमतौर पर हर पांच वर्ष बाद होते हैं। चुनाव जीतने के बाद गधा लोग नेता कहलाते हैं। वे टोपी पहनते हैं, सरकारी मोटरों पर चलते हैं, शानदार कोठियों में रहते हैं, भ्रष्ट अधिकारियों की मदद से आए चुनाव के लिए पैसा इकट्ठा करते हैं और बाकी वक़्त में देश के लिए कानून बनाते हैं, सरकार चलाते हैं। जिस दल में ज्यादा गधे होते हैं वही दल सरकार बनाती है और इसी कारण कभी-कभी ऐसी नाज़ुक स्थिति आ जाती है कि दलबदल करने के संदर्भ में एक-एक गधे की कीमत पंद्रह लाख रुपये तक (अब इसे करोड़ में भी गिना जा सकता है)पहुंच जाती है। इतनी भारी रकम के सामने गधा दलबदल न करे तो और क्या करे?
(रवींद्रनाथ त्यागी की रचना)
3 comments:
बहुत सही लिखा है आपने। आज प्रजातंत्र का यही हाल है।
बिल्कुल सही, आज प्रजातंत्र में गठबंधन नहीं ठगबंधन चल रहा है
बहुत बढिया.बिल्कुल सही, आभार इस प्रस्तुति का.
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