यहां गूंजते हैं स्त्रियों की मुक्ति के स्वर, बे-परदा, बे-शरम,जो बनाती है अपनी राह, कंकड़-पत्थर जोड़ जोड़,जो टूटती है तो फिर खुद को समेटती है, जो दिन में भी सपने देखती हैं और रातों को भी बेधड़क सड़कों पर निकल घूमना चाहती हैं, अपना अधिकार मांगती हैं। जो पुकारती है, सब लड़कियों को, कि दोस्तों जियो अपनी तरह, जियो ज़िंदगी की तरह
16 November 2010
रिहाई मुबारक
कुछ लोग पर्वत से होते हैं, अडिग, निर्भय। आंग सांग सू ची, मणिपुर की इरोम शर्मिला...इन नामों को सुनकर सहम भी जाती हूं,फक्र भी होता है, प्रेरणा भी मिलती है। ये जीतेजागते लोग दरअसल ज़िंदगी हैं। इनकी नज़रबंदी, इनकी भूख हड़ताल, ज़िंदगी की असली जद्दोजहद है, कहां हम थोड़ी-थोड़ी बातों के लिए घबराते हैं,अपनी छोटी-छोटी मुश्किलों के पहाड़ में दबे रह जाते हैं। ये हिम्मत देती हैं, हमें, हमारे हौसले को।
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3 comments:
जी हाँ!
हमको भी हौसला मिल गया आपकी पोस्ट से!
आंग सान सू ची को मुक्ति की बधाई! स्वतंत्रता के लिये हर दुख सहने और जान देने को तैयार बैठे ऐसे लोग समाज के लिये आदर्श हैं!
आंग सान सू ची को मुक्ति की बधाई ... ऐसे लोगों से बहुत प्रेरणा मिलती है ..
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