लो अब ज़िद्द बांधकर बैठ गया मन
कहता है सारंगी दे दो
मुझको मीरा बन जाने दो
या पर्वत पर चढ़ जाने दो
सागर को मथ लेने दो
और अचानक रूठ गया मन
नहीं मुझे उड़ जाने दो
अंबर में बस जाने दो
या ख़ुश्बू बन छा जाने दो
जाने कहां दुबक गया मन
अंधेरे में डूब गया मन
डरते-डरते टूट गया मन
धीरे-धीरे पंख पसारे
आसमां में उड़ चला मन
3 comments:
बहुत उम्दा, लिखते रहें.
bahut accha likha hai
बहुत सुन्दर ! इसी तरह लिखती रहें।
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