यहां गूंजते हैं स्त्रियों की मुक्ति के स्वर, बे-परदा, बे-शरम,जो बनाती है अपनी राह, कंकड़-पत्थर जोड़ जोड़,जो टूटती है तो फिर खुद को समेटती है, जो दिन में भी सपने देखती हैं और रातों को भी बेधड़क सड़कों पर निकल घूमना चाहती हैं, अपना अधिकार मांगती हैं। जो पुकारती है, सब लड़कियों को, कि दोस्तों जियो अपनी तरह, जियो ज़िंदगी की तरह
05 December 2008
चलो कुछ उम्मीद ले आएं
जो सर्जक हैं
रचते हैं जीवन की
बुनियादी शर्तें
और गाते हैं
चलो, उनसे
उम्मीदों की उम्र
सपनों की गहराई
और उड़ान की
ऊंचाई मांग लाएं
अनाज की पूलियों
की तरह
लाद कर घर लाएं
(ये कविता मैंने अपने कमरे की दीवार पर छपे पोस्टर से ली है। किसकी है ये पता नहीं। पर कविता बहुत सुंदर है, उम्मीद देती है जीने के लिए। पिछली पोस्ट को मैं जल्द से जल्द नीचे लाना चाहती थी,शायद हटा भी देती, लेकिन टिप्पणियां पोस्ट से ज्यादा सार्थक थीं इसलिए नहीं हटाई, कुछ नया डालने की जद्दोजहद में कुछ मिला नहीं, फिर इस कविता पर नज़र गई, तो सोचा यही क्यों नहीं)
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12 comments:
चलो कुछ उम्मीद ले आएं...
लगती तो जानी-पहचानी सी हैं, पर यद् नहीं इनसे कब मुलाक़ात हुई...
अच्छा किया जो आपने फ़िर से परिचित करवा दिया...
सुंदर... जारी रहे...
---मीत
कविता सुंदर हो ,जीने की उम्मीद देती हो तो फिर किसकी है क्या फर्क पड़ता है /जब कमरे यहाँ मेहमान आते है तो हम उन्हें अच्छी से अच्छी बस्तु बना कर खिलाते है मगर कुछ बाज़ार से भी तो मंगवालिया जाता है /अच्छी रचना के लिए बधाई /महत्वपूर्ण ये नहीं है के रचना किसकी है महत्वपूर्ण ये है के पोस्ट किसने की है
कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये कविता किसने लिखी है...क्योंकि जिसने भी इसे लिखा होगा ...एक खूबसूरत ख्यालों का इंसान होगा..तभी उसके ज़हन में शब्दों को इस तरह से पिरोकर ये माला बनाने का ख्याल आया होगा..
सच में बहुत सुन्दर शब्दों की रचना...
bahut hi prernadayak kavita hai..
कुछ मौसम भी ऐसा है जब उम्मीद की बारिशो की जरुरत है
kavita ka bhaaw sundar hai, chahe kisi ne bhi likhi ho!
वर्षा जी कविता भी अति सुंदर ओर, फ़ुल भी बहुत सुंदर,आप ने सही कहा की इस से पहले की पोस्ट आप जल्द से जल्द हटाना चाहती थी, ऎसा ही मेरे साथ भी हुआ था, शायद हम सब के साथ यह हुआ होगा.
धन्यवाद
कथ्य और िशल्प दोनों दृिष्ट से बेहतर है । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख िलखा है-उदूॆ की जमीन से फूटी िहंदी गजल की काव्य धारा-समय हो तो इस लेख को पढें और प्रतिकर्िया भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
ब्रिज मोहन जी ना कुछ हद तक ठीक ही कहा है. वैसे कविता वास्तव में अच्छी है. कभी कभी ऐसा करना भी पड़ता है. आपने कितने सरल हृदय से इस बात को प्रकट किया. अक्सर लोग ऐसी बातों को उजागर ही नहीं करते. आभार.,
http://mallar.wordpress.com
यह कविता कवि शशि्प्रकाश के काव्य संग्रह 'कोहेकाफ पर संगीत साधना' से ली गई है। वर्ष 2006 में शशिजी के दो काव्य संकलन परिकल्पना प्रकाशन लखनऊ से प्रकाशित हुए थे। दूसरा संग्रह 'पतझड़ का स्थापत्य' है। मेरा सुझाव है कि आप इन दोनों संग्रहों को अवश्य पढ़ें।
kavita bahut sundar hai , aur bhale aapne nahi likhi par aap ne ise phir se chapkar , man mein ek naya utsah diya hai
badhai
vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/
bahut achchha likha apane.
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