जब ज़िंदगी किसी
शिल्प में न ढल सकीं
कविताएं कैसे ढलेंगी
पूछती हूं खुद से
अनमनी, अधूरी, बिखरी
शब्दों के पैमाने पर
कैसे नापूं
पतझड़, अंधड़,
उमड़ता समंदर
बेचैनियों को,
उमड़ती लहरों को
किन लफ्जों में
समेटूं
जो सुबहें सूरज उगने
पर न हों
जो रातें टुकड़ों
में आती हों
उजाले का सुबह से
नाता न हो
रात सूरज को ढांक कर
हो
एक जलती लौ में
प्रवेश कर
चले जाएं किन्हीं
रास्तों पर
किन्हीं बस्तियों
में
जिनका पता...नहीं
पता..
जहां सवाल नहीं जवाब
हों
अब ऐसे अबूझ को कैसे
लिखें
खड़कने लगे चुप खड़े
दरवाजे
धूप-हवा-पानी सब
होने लगें एक दूसरे
में मगन
उड़ने लगे धूल हर
तरफ
दीखता जब कुछ नहीं
आए ऐसा अंधड़
कुदरत की इस बेचैनी
को किन शब्दों में
ढालें
कोई इंद्रधनुष ले
आएं
तड़पते मन को कस कर
बांधें
बिखरे शब्दों, बिखरी
कविताओं के लिए
कोई बिखरा शिल्प
तलाशें
उस छल का क्या करे
जिससे छली जाती है हर रोज
घर में, मन में
अपनी ही आंखों में
होती है तिरस्कृत
उतरती चली जाती है
अंतर्मन की सीढ़ियों से
दिल के कोनों में कहीं बसी
गहरी उदास झील किनारे
चुप बैठती बड़ी देर वहां
मन का मौन टूटता नहीं
आंखों से अंदर ही अंदर
झर-झर बह गए आंसू
भरती जाती झील लबालब
तूफान उमड़ने को होता है
पर उमड़ता नहीं
खुद से हारी हार
बड़ी खतरनाक
दिल टूटता है
अब मगर रोता नहीं
लौट आएगी जल्दी ही
हां मालूम है
कोई नहीं कर रहा इंतज़ार
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