18 April 2014

ये चुनाव का मौसम है



कम से कम पिछले छह महीने से हर सुबह हम खीझ रहे हैं। आज मोदी ने ये कह दिया। केजरीवाल समझता क्या है खुद को। मोदी-केजरीवाल, मोदी-केजरीवाल। तेज बहसाबहसी। एक आदमी गुस्से से आग बबूला हो जाता है। ज्यादा ज्ञानी लोग ज्यादा तर्क देते हैं। किताबें कम पढ़नेवाले लोग अनुभव आधारित बातें कहते हैं। जुबानी जंग से हर रोज सुबह की शुरुआत होती है। आप चाहे न चाहे इस शगल में शामिल हो ही जाते हैं। घर से दफ्तर तय कर आएं कि आज कोई बहस नहीं करेंगे। मुंह बंद ही रखेंगे। लेकिन ऐसी बातें कही जा रही होती हैं कि आप खुद को रोक नहीं पाते और बीच बहस में कूद ही पड़ते हैं। इस समय दो ही धड़े हैं। मोदी धड़ा और केजरीवाल धड़ा। मोदी के खेमे में ज्यादा लोग हैं। केजरीवाल के खेमे में कम लेकिन बुद्धिजीवी लोग हैं। बहस में कोई पीछे नहीं। जैसे चूल्हे पर रखे उबलकर गिरने ही वाले दूध के भगोने पर आंच दौड़कर बंद या धीमा किया जा जाता है, वैसे ही बहस में शामिल होनेवालों के खौलते खून को किसी मजेदार बात से धीमा करना पड़ता है। इक्के-दुक्के कांग्रेसी इस समय चुप्पी साधे हैं। वो अपने मौन का मतलब बखूबी जानते हैं। अंत में सब झींककर कहते हैं भाड़ में जाए, जिसकी भी सरकार बने हमें कौन पूछता है। क्या कांग्रेस, क्या बीजेपी। हम तो वहीं के वहीं हैं। महीने के आखिर में खत्म हो चुकी तनख्वाह और आनेवाली तनख्वाह के बीच झूलते हुए। हमारा क्या। 

लेकिन अभी बहस का दूसरा दौर उठेगा और फिर ये सब फुंफकार पड़ेंगे। अरे मोदी-मोदी, अरे केजरीवाल-केजरीवाल। कांग्रेस-बीजेपी में फर्क ही क्या है। गुजरात का सच क्या है। केजरीवाल की सोच को कोई नहीं पकड़ सकता। हंसी-ठठ्ठे में बहसें कभी धीमे कभी तेज़ी से आगे बढ़ती रहती हैं। सब अफसोस जताते हैं कहां पेट्रोल,प्याज और महंगाई की बात करनी थी। एफडीआई की बात करनी थी। लेकिन चुनाव के ऐन पहले बात बस हिंदू-मुसलमान की हो रही है। ब्राह्मण,ठाकुर,दलित वोट की हो रही है। एनडीटीवी वाले रवीश किसी ऐसे गांव की रपट ले आए जहां बीएसपी के ही झंडे लगे हैं। फिर मोदी की लहर कैसे हुई। ये टीवी पर बनायी गई लहर है, बहस का नया एजेंडा। 

नेता बड़ी-बड़ी रैलियां कर रहे हैं, सभाएं कर रहे हैं। हजारों की संख्या में पब्लिक जुटा रहे हैं। आज नेता जी का मन कुछ चुलबुला हो रहा है तो रैलियों में शेर और लकड़बग्घे की कहानी सुना रहे हैं। अरे क्या शेर-लकड़बग्घा सुनाने के लिए इतनी भीड़ जमायी। इतना पैसा बहाया। कोई टॉफी खिला रहा है कोई गुब्बारे की हवा निकाल रहा है। कुछ द्वितीय श्रेणी वाले नेता कुत्ते-बिल्ली पर भी उतर आए हैं। उनका अपना अलग राग-अलाप है। 

इस चुनाव में तो ट्विटर ने भी खूब खेल कर दिया। कोई मर गया ट्विटर पर लिख दिया रिप(रेस्ट इन पीस)। हुआ यूं कि एक बार किसी गलत खबर पर रिप कर दिया। फिर तो एक के बाद एक कई रिप हो गए। जीते जी एक इंसान को इतने रिप मिल गए, बाकी तो...। दिग्विजय सिंह तो ट्विटर के मामले में मास्टर हैं। अटलबिहारी वाजपेयी सशरीर तो नहीं लेकिन प्रसंगवश इस चुनाव में शामिल ही रहे। बीजेपी जहां कमजोर पड़ी अटल जी की याद हो आई। कांग्रेस भी उन्हें नहीं भूली। राजनाथ सिंह ने तो अटलबिहारी वाजपेयी के अंगवस्त्र ले लिये। जैसे महाभारत में कर्ण को कवच-कुंडल मिले। 

शुक्र है कि इसी चुनाव में हमारे एनडी तिवारी बाप बन गए। उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। बाकी तो एक से बढ़कर एक पलटूबाज सामने आए। सब एक दूसरे धड़े के नेता खींच रहे थे। और सिर्फ नेता ही नहीं गुंडेटाइप वालों की चांदी भी तो इसी समय में होती है। क्या साधु क्या शैतान। इस समय तो सब चुनाव के लड़ाके हैं। जिसको जिधर मौका मिला भग लिया। कांग्रेस के एक उम्मीदवार को तो बीजेपी ने ऐन चुनाव से ठीक पहले लपक लिया। सबसे बड़ा पलटू कौन।

हंसी-चिरौरी के बीच ये चुनाव बहुत रुलानेवाला भी रह। क्या मुज़फ़्फ़रनगर को इस चुनाव के लिए ही जलाया गया। हम 16वीं लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे लेकिन घूम-फिर कर वहीं आ गए जहां से चले थे। हिंदू-हिंदू, मुसलमान-मुसलमान।


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