30 October 2008

"खाली वक़्त हो तभी पढ़ें"

खाली दिमाग़ शैतान का घर होता है और शैतान का घर तो उसका होता ही है। आजकल खाली बैठे-बैठे दिमाग़ भी खाली ही रहता है। खालीपन पर ही ख्याल भी आए। मेरी एक महीने की छुट्टी इतनी सता रही हैं कि तारीखें पता नहीं रहती और दिन याद करने के लिए कोई मौका याद करना पड़ता है। जो बेरोज़गार हैं या जिनकी नौकरी चली गई है उनकी तकलीफ का तो अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता। इन दिनों एक और सज्जन से मुलाक़ात होती रही जो बीमारी की वजह से नौकरी मुक्त हैं हालांकि ज़िंदगी में वो काफी व्यस्त हैं और एक दोस्त का ख्याल आया जिसकी नौकरी एक दुर्घटनावश चली गई, उसने दीपावली पर मुझे शुभकामनाएं भेजी। सारे खाली ख्यालों की मैंने निम्न पंक्तियों में खाल उधेड़ दी।
अब चेतावनी- खाली वक़्त हो तभी पढ़ें।


मेरे लिए
कोई सोम-मंगल-बुध नहीं होता
मेरे लिए
महीने की पहली तारीख हो
या आखिरी
क्यों फर्क नहीं पड़ता
मेरी रात कई टुकड़ों में होती है
दोपहर-शाम
नींद जब भी आ जाती है
मेरे लिए
सपने, दुख देते हैं
ख्वाहिशें, मुश्किलें
घर, काटता है
सड़कें,भटकाती हैं
दोस्त,सवाल पूछते हैं
मां, मायूस होती है
मैं शांत रहता हूं भरसक
कम से कम
कोशिश तो करता हूं पूरी

23 comments:

P.N. Subramanian said...

खाली था सो पढ़ लिया. लगा यह तो मेरा ही बायोडाटा है. आभार.

Hari Joshi said...

ज्‍यों-ज्‍यों पढ़ता गया, त्‍यों-त्‍यों दर्द बढ़ता गया।
चांदनी आई चली गई, अंधेरा घिरता चला गया।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

chaliye kabhi n kabhi khalipan door ho hi jaayega aapka

Manish Kumar said...

baahri shanti andar ke jhanjhawaat ko kab tak sah payegi?

Udan Tashtari said...

बहुत गहरी रचना...खाली तो था मगर भरा भरा सा हो गया हूँ पढ़कर.

सोतड़ू said...

बढ़िया

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर अभिव्यक्ति!

Arvind Mishra said...

बढियां

Smart Indian said...

सुंदर, सम-सामयिक और ...दुखद भी!
"खाली से मत नफरत करना, खाली सब संसार."

डॉ .अनुराग said...

बहुत खूब...खास तौर से आपकी कविता ....सच में ....सीधे साधे शब्द ओर कितनी सरल तरीके से सब कुछ कह गये

Haritha P Singh said...

nice one

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Aadarsh Rathore said...

लाजवाब
अभिवक्तिकरण की खूबसूरती का चरम है यह रचना

राजन said...
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राजन said...
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राजन said...

खाली वक्त तो नहीं था, फिर भी इसे पढ़ ही लिया. अगर तमाम चुभते हुए सवालों और नज़रों के बीच अपनी इच्छा के विरुद्ध खाली बैठने (काम पर ना जाने) की बात हो तो मुझे लगता हैं अपने परिचित दायरे में सुशील और मैं दोनों इस दर्द तो समझते हैं. यह समय हमारे साथ साल से ऊपर ही रहा. बेरोजगार आदमी और अविवाहित लड़की का दर्द एक से होते हैं. जैसे-जैसे समय बीतता जाता हैं, समझौते करने की मात्रा और गति दोनो ही बढ़ने लगती हैं. खैर, तुम्हारी बेरोज़गारी तो कुछ ही दिनों की हैं - बीत जायेगी. कथ्य के स्तर पर कविता अच्छी है.

दिगम्बर नासवा said...

सीधे शब्दों मैं कही सच्ची बात

राज भाटिय़ा said...

एक महीने की छुट्टी ओर फ़िर भी खाली...? अरे कही घुम आओ
आगे आप की कविता पढ कर एक अलग सा दर्द महसुस हुआ, उन लोगो का जो बेचारे काम ना मिलने की वजह से ....आप ने बहुत ही गहरी बात कह दी अपनी इस छोटी सी कविता मै.
धन्यवाद

मीत said...

yeh aapki sabse hasin rachna hai....
bahut acha lagi...
bahut se logo ki haqeeqat bayan kar di aapne

sushilnayal said...
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admin said...

बेरोजगारी का आलम ऐसा ही होता है।
जीवन के बेहद करीब ले जाती कविता है।

Ek ziddi dhun said...

hum nitthalon ke liye khali waqt talash pana sabse mushkil hota hai.

neelima garg said...

interesting.....

Bahadur Patel said...

achchhe vichar hai.