यहां गूंजते हैं स्त्रियों की मुक्ति के स्वर, बे-परदा, बे-शरम,जो बनाती है अपनी राह, कंकड़-पत्थर जोड़ जोड़,जो टूटती है तो फिर खुद को समेटती है, जो दिन में भी सपने देखती हैं और रातों को भी बेधड़क सड़कों पर निकल घूमना चाहती हैं, अपना अधिकार मांगती हैं। जो पुकारती है, सब लड़कियों को, कि दोस्तों जियो अपनी तरह, जियो ज़िंदगी की तरह
30 October 2008
"खाली वक़्त हो तभी पढ़ें"
अब चेतावनी- खाली वक़्त हो तभी पढ़ें।
मेरे लिए
कोई सोम-मंगल-बुध नहीं होता
मेरे लिए
महीने की पहली तारीख हो
या आखिरी
क्यों फर्क नहीं पड़ता
मेरी रात कई टुकड़ों में होती है
दोपहर-शाम
नींद जब भी आ जाती है
मेरे लिए
सपने, दुख देते हैं
ख्वाहिशें, मुश्किलें
घर, काटता है
सड़कें,भटकाती हैं
दोस्त,सवाल पूछते हैं
मां, मायूस होती है
मैं शांत रहता हूं भरसक
कम से कम
कोशिश तो करता हूं पूरी
21 October 2008
17 October 2008
लो मैं आ गई
एक और ख्याल मुझे आया। अस्पताल के एक कमरे में छे दिन बिताना इतना मुश्किल लग रहा था, जिन्हें उम्र क़ैद जैसी सज़ा मिली होती है वो कैसे रहते होंगे जेल में। मुझे तो मालूम था मैं यहां कुछ दिनों की मेहमान हूं पर जिन्हें पता है कि सारी ज़िंदगी जेल की बंद चारदीवारी के बीच गुजरनी है, उनका अपराध, उनकी सज़ा। मुझे डॉमनिक लॉपियर की एक हज़ार सूरज किताब के कैराइल चैसमैन की याद हो आई। जिसे मृत्युदंड मिला होता है और जेल में वो ज़िंदगीभर मृत्युदंड की सज़ा को माफ करने के लिए लड़ता है, कई बार उसकी सज़ा टलती है, आखिरी बार भी, लेकिन तब कुछ सेकेंड के अंतराल का फासला बड़ा हो जाता है, उसे इलेक्ट्रिक चेयर पर मौत की नींद सुला दिया जाता है।
अस्पताल से जुड़ा एक मज़ेदार अनुभव भी है। आगंतुकों का मेरे कमरे तक आना। दरअसल अस्पताल में मिलने के लिए समय की पाबंदी थी। पर मिलने आनेवालों को समय का पता नहीं था और था भी तो तोड़ने का जुगाड़ तो निकाला ही जा सकता था। विजिटर टाइम के अलावा कमरे में सिर्फ एक अटेंडेंट ही रह सकता था। विजिटर कभी भी विजिटर टाइम पर नहीं आए। जुगाड़ भिड़ाने के लिए सिक्योरिटी गार्ड से काफी जोड़तोड़ करनी पड़ती। कुछ फैमिली टाइप लोगों को तो सिक्योरिटी ने अंदर आने भी दिया, लेकिन जिनकी शक्ल उन्हें फैमिली टाइप नहीं बता रही थी, या जो अकेले आए, उन्हें बिना मेरा हालचाल जाने बगैर लौटने का महान सुख हासिल हुआ। सिक्योरिटी गार्ड को पटा कर अंदर घुस आने में मेरी बहन जी ने महारत हासिल कर ली थी और उसी की कृपा से कुछ आगंतुक मेरा हालचाल पा लेने में और मुझे जल्दी से अच्छा हो जाने का आशीर्वाद देने में क़ामयाब भी हुए।
अब मुझे लग रहा है कि मैं कीबोर्ड पर और ज्यादा खिटखिट करती रही तो मुझे अस्पताल वापस न जाना पड़ जाए। वैसे भी बहुत लंबा टीप लिया है। तो बाय-बाय।
13 October 2008
औरतों की कवितायें (1)
औरतें
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औरतें मिट्टी के खिलौने बनाती हैं
मिट्टी के चूल्हे
और झाँपी बनाती हैं
औरतें मिट्टी से घर लीपती हैं
मिट्टी के रंग के कपडे पहनती हैं
और मिट्टी की तरह गहन होती हैं
औरतें इच्छाएं पैदा करती हैं और
ज़मीन में गाड़ देती हैं
औरतों की इच्छाएं
बहुत दिनों में फलती हैं
10 October 2008
एक निवेदन
-धीरेश
01 October 2008
बम-शम तो अब फटते रहते हैं
अमां यार जबसे हम तुम्हारे फोन का इंतज़ार कर रिये हैं। चलना है तो बताइये।
अरे वो हम टीवी देखने बैठे थे, तभी ख़बर आ गई की दिल्ली में फिर बम फूट रहे हैं, बस वही देखने लग गए।
अजी छोड़िये। ये बम-वम फूटे तो फूटे। लड़के के एडमिशन के लिए यूनिवर्सिटी के एक बाबू जी से बात करनी है। आप तो जानते ही हैं बातचीत में हम उतने चपल हैं नहीं। इसीलिए आपको बार-बार पूछ रहे हैं। तो क्या कहते हैं आप चलेंगे क्या।
हां चलते हैं, दरअसल वही ख़बरिया कि कोई तो कह रहा है कि 14-15 लोग मर गए, कोई चैनल कह रहा है कि 24-25।
अरे अब आप इन चैनलों के चक्कर में न पड़ें और न इन धमाकों के। जितना इनसे जुड़ेंगे उतना ही ये सतावेंगे। अभी 14 कह रहे हैं दस मिनट बाद 34 भी कह सकते हैं और फिर खुद ही उसमें से दस घटा के 24 पर ले आएंगे, ये सब गोलमोल करते रहते हैं और धमाकों का क्या है, आज यहां बम फूटा है कल वहां फूटेगा। आप बस तैयार हो जाइये हम आ रहे हैं।
हां बस थोड़ी देर में चलते हैं ये ख़बर देख लें ज़रा।
अरे अब आप भी। पहले साल दो साल में धमाके होते थे तो ज़रा हम भी देख लेते थे, अब तो रोज़-रोज़ बम फोड़े जा रहे हैं, अब किसके पास टाइम है सारा वक़्त टीवी से चिपके रहने का। या फिर ये सोचने का कि कहीं हम मारे जाते तो। जब मरेंगे तब मरेंगे।
हां अब देखिये बम एक जगह फूट रहा है अफवाहें सौ जगह आ रही हैं।
तभी तो कह रिये हैं, बम-शम फटना तो अब रोज की बात हो गई है।
हां चलिए हम निकलते हैं, आप बस हमारी वाली चाय तैयार रखिएगा।
ये हुई न बात।