15 September 2008

चले जा रहे हैं...चले जा रहे हैं





हम (यानी भारतीय) संख्या में इतने ज्यादा है, हर चीज बांट-बांटकर खानी ही पड़ती है। रोटी भी, दुख भी, दर्द भी, ख़ुशी भी और वक़्त भी। अगर किसी सरकारी दफ्तर या बैंक जैसी जगह जाते हैं तो हम एक लंबी कतार में घंटों खड़े रहते हैं, इंतज़ार करते हैं, करना पड़ता है (इसमें बिना कतार के घुस जानेवाले और कोई चक्कर चलाकर अंदर ही अंदर काम करा लेनेवालों की बड़ी संख्या को घटाना भी है)। च्च्च...च्च्चचचचचच। हर कोई बेचारा महसूस करता है, पर एक अरब से ज्यादा आबादी वाले देश में ये कोई समस्या नहीं, आम बात है, हमारी आदत है। बस स्टैंड पर भीड़, सड़क पर भीड़, peack hour में तो भीड़ ही भीड़। सड़क पर रेंगती चलती गाड़ियां, एक दूसरे को हॉर्न बजाकर परेशान करते ड्राइवर, भीड़ को कोसते, जबकि वो खुद भीड़ का हिस्सा ही तो हैं। हमें डॉक्टर के पास जाना हो तो बीमारों की लंबी कतार, घंटों इंतज़ार, घर में ही डिसप्रिन-विसप्रिन खाकर हर बीमारी को टाले जाने की हद तक टालते हैं। शनिवार-रविवार हमसब मॉल में जाते हैं, शॉपिंग करें न करें मस्ती खूब होती है और मॉल ठसाठस भरा हुआ। वहां भी कतार में लगकर एंट्री होती है। खरीदारी करने से ज्यादा वक़्त बिल चुकाने के लिए कतार में लगकर जाया होता है। अगर कहीं ऑफर-सॉफर मिल रहा तो बैंड बज गया बीड़ू। फिर तो लोग टूट पड़ेंगे, जाने कहां छिपे रहते थे, अचानक इतने ज्यादा लोग दिखने लगते हैं। इसका मतलब ये नहीं कि हम सिर्फ मॉल में ही जाते हैं, हम सोम-मंगल बाज़ार में भी ऐसे ही टहलते हैं, धक्कमधुक्की करते हुए। अब गलती से कहीं जाना पड़ गया तो दो-तीन घंटे तो हम बस के इंतज़ार में भीड़ को बनाते हैं, कई बसों को छोड़ना होता है किसी बस में बड़ी मुश्किल से दो सीट मिल पाती है, और एक ठंडी आह!!!! ट्रेन में तो दो-तीन महीने पहले रिजर्वेशन करा लो तभी ठीक है बाकि प्लेटफॉर्म पर तो भिड़ना-भिड़ाना होगा ही। प्लेन में उड़ने वालों की संख्या भी कम नहीं। हम किसी बड़े रेस्तरां में जाते हैं और वेटर को आवाज़ लगाते रह जाते हैं, गुस्साते हैं, सौंफ चबाते हैं। हमारे चलने के लिए ज़मीन कम पड़ गई है, रहने के लिए घर। बहुमंज़िला इमारतें खड़ी होती जा रही हैं, एक-एक कमरे का फ्लैट लाखों में बिक रहा है, तीन कमरे वाले फ्लैट तो करोड़पति ही ले सकते हैं। फिर भी हम मजे से जी रहे हैं। क्या करें जीना ही पड़ेगा। अब कतार का रोना लेकर जीना तो नहीं छोड़ सकते। महंगाई की तरह हम भी संख्याबल में बढ़ते ही जा रहे हैं। जा रहे हैं। हम चले जा रहे हैं, चले जा रहे हैं....... (आज का दिन कतारों में ही गुजरा, इसीलिए ये दुखांत, फोटू गूगल से साभार)

9 comments:

सोतड़ू said...

अच्छा हुआ कि लोगों का ज़्यादा वक़्त बाहर बीतता है.... भागते-दौड़ते, लड़ते-भिड़ते, इंतज़ार करते-लाइन तोड़ते हुए.... वरना और कितने होते- अंदाज़ है...
ज़रा सोचिए....सब लोग दो साल तक अंदर रहें और फिर एक समारोह में सब बाहर निकलें- एक साथ... पता चलेगा कि पूरा देश ही रेलवे स्टेशन बन गया है.... बाहर निकलते ही भीड़ दिखेगी जो भीड़ को गाली दे रही होगी.... ख़ुद को भीड़ न मानते हुए...

Udan Tashtari said...

सही है..अच्छा आलेख!

Arshia Ali said...

सही कहा आपने। हम सबको इस समस्या के बारे में सोचना ही होगा।

मीत said...

sach mein zindagi ki sachchai yahi hai...
kulmilakar hamara jeewan yahi hai...
umda lekh

रंजू भाटिया said...

चलते चलो :) अच्छा लगा इसको पढ़ना

Mun said...

arey barish...tumne to kamal kar diya! kataar..kataar..kataar...yad aa gayi mujhe bhi lambi katarein.

Ek ziddi dhun said...

kataar ne kaatar kar diya

अमित said...

डीडीए के मकान के लिए इन दिनों काफी लंबी कतार लगी रही... शायद ये लेख वहीं से प्रेरित था. लेकिन मुझसे पूछ लेती.. हाथों हाथ जमा हो जाता किसी भी बैंक में.. एक तो मेरे घर के पास के एचडीएफसी बैंक में ही जमा हो रहे थे फॉर्म.. बगैर इस बात का भेद किए कि डेढ़ लाख रुपये एचडीएफसी से फाइनेंस करवाया गया है.. या कोई कहीं और से डीडी बनाकर जमा करवा रहा है. खैर फॉर्म तो जमा हो गए . उम्मीद करो कि नाम आ जाए लॉटरी में

सुधीर राघव said...

वर्षा जी काफी अच्छा लेख है। एक और बात जिसके लिए मैं धन्यवाद देना चाहूंगा। आपने जो वर्ड वैरीफिकेशन हटाने का तरीका बताया वह कारगर रहा।