डायरी की धूल झाड़कर बीते दिनों की एक और कविता.....
हर रोज शाम ढलती
दिन से पूछती
तू कल आएगा न
हर रोज दिन ढलता
शाम से कहता
मैं कल आऊंगा फिर
हर रोज गगन देख
मन कहता
चल उड़ चलें कहीं
और दिमाग़ बोलता
थोड़ी देर ठहर
ये अंजानी डगर
जी ले
और मन घुमड़ता
ये दिमाग़ क्यों है?
2 comments:
ये कविता सुंदर है
पहली बार आया इस ब्लॉग पर। पर यहां दी गई कविताएं मुझे कह रही हैं कि बार-बार आओ।
मौत पर लिखी गईं कविताएं वाकई बेहद अर्थपूर्ण हैं। अक्सर किसी कवि की ऐसी कविताएं उसकी मौत के बाद ही हाथ लगती हैं, पता नहीं क्यों?
और डायरी की धूल से निकली यह कविता भी प्यारी है। दिन और शाम की तरह ही हम सभी अपने-अपने काम में उलझे हैं और आपसी भेंट-मुलाकात बस चैटिंग और टेलीफोनिक ही रह गई है।
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