19 April 2008

बचाओ-"तितली"


धरती की कल्पना कीजिए जब तितलियां नहीं रहेंगी। शायद ये अकल्पनीय हैं। क्योंकि कल्पना करना तो हम तितलियों से ही सीखते हैं। हम धरती से रंग भी चुरा रहे हैं। जो तितलियों के रूप में हमारे सामने हैं। अपने ख़ूबसूरत चटकीले पंखों के साथ फूलों के ईर्द-गिर्द मंडराती तितली कभी-कभार दिखती है तो उस क्षण में हमारा मन भी ख़ूबसूरत हो जाता है। मैंने ऐसा महसूस किया है। लेकिन अब तितली इतनी कम दिखती है कि इसे तितली का न दिखना ही कहेंगे। शहरों में तितलियों के लिए कोई जगह नहीं बची। धरती से अपने पंखों को, रंगों को, सुंदर कल्पनाओं को, समेट कर तितलियां चुपचाप विदाई ले रही हैं। तितलियां भी लुप्त हो रही हैं। केरल के अंदरूनी, दूरदराज इलाकों और पूर्वोत्तर राज्यों के कई क्षेत्रों में एक समय तितलियों की करीब 2,000 प्रजातियां थी और आज इनमें लगभग 400 प्रजातियां साज-सज्जा के अंतर्राष्ट्रीय कारोबार में खत्म हो चुकी हैं। कीटनाशकों का बढ़ता इस्तेमाल भी तितलियों के लुप्त होने की एक वजह है। साज-सज्जा के लिए तितलियों का शिकार किया जाता है। इन्हें मार कर सुखा दिया जाता है। जबकि हमारे देश में इस पर प्रतिबंध भी है। थाईलैंड इस कारोबार का केंद्र है। एक तितली के लिए पांच-पांच सौ रूपये तक में बिक जाती है। तितलियों के शिकार पर एक फिल्म भी बनी है, ‘वन्स देअर वाज़ अ पर्पल बटरफ्लाई’ । धरती के जंगल-बुक से तितलियों का पन्ना भी खाली हो जाए। इससे पहले इन्हें 'बचाओ'।









2 comments:

Udan Tashtari said...

इस दिशा में जागरुक एवं सार्थक पहल की आवश्यक्ता है. आभार इस आलेख के माध्यम से यह मुद्दा उठाने के लिये.

Manas Path said...

मुद्दा उठाने के लिए चन्यवाद.