09 June 2016

असली प्रेम, असल सिनेमा








सैराट, मसान, दशरथ मांझी ये असली प्रेम कहानियों का सिनेमा है। असली प्रेम कहानियां हैं। जिनके लिए आज भी हमारे दिलों में ख़ास जगह है। ऐसी कहानियां जो हमारी सुप्त कोमल भावनाओं को कुरेदने का हौसला रखती हैं। तूफान से लड़ते दिये की तर्ज पर जो हमारे दिलों में भी प्रेम की लौ जगाए रखती हैं। ये तीन फिल्में महज उदाहरण हैं। इन फिल्मों में कोई बड़ी स्टार कास्ट नहीं। लेकिन उम्दा कलाकार हैं। जिनका अभिनय हमें सच्चे प्रेम की पगडंडियों से बावस्ता कराता है। ऐसे चेहरे जो हमसे मेल खाते हैं। ऐसे लोग जो हमारे बीच रहते हैं। जो हम हो सकते हैं या हमारे जैसा कोई भी हो सकता है। जिसकी साधारण सी प्रेम कहानी असाधारण होती है।


इन फिल्मों में कोई शाहरुख़ ख़ान-काजोल सा दिलवाला नहीं। जो सात समंदर पार हसीन वादियों में लाखों-करोड़ों रुपये की शूटिंग करता है। कोई कटरीना कैफ सी दिलरुबा नहीं, जो हमारे बीच की नहीं लगती। कोई सलमान सा फिल्मी मतवाला नहीं, जिनकी फिल्में सौ करोड़ क्लब का हिस्सा होती हैं।

मसान का हीरो शमशान घाट पर चिता फूंकने वाले वाराणसी के परिवार का लड़का है। जो खुद से कथित ऊंची जाति की लड़की से प्रेम करता है। इस बात से डरता भी है। लड़की को जब उसकी जाति पता चलती है तो पहले पहल वो असहज हो जाती है, कि घरवाले नहीं मानेंगे। फिर प्रेम में पगी घर से भागने को तैयार हो जाती है। कुछ ऐसी ही कहानी मराठी फिल्मकार नागराज मंजुले की फिल्म सैराट की भी है। जहां लड़की एक बड़े रसूखदार परिवार से ताल्लुक रखती है। लड़का मछुआरे के परिवार से। जाति और समाज की सरहदों से बाहर निकल जाता है उन दोनों का प्रेम। दोनों घर से भाग जाते हैं। पश्चिम उत्तर प्रदेश में सैराट सरीखे तमाम प्रेमी प्रेमिका मिलेंगे। जाति-बिरादरी की सीमाओं को लांघते हुए जो घर की दहलीजें पीछे छोड़ जाते हैं। जिनके पीछे पंचायतें बैठती हैं। ऊल जलूल फैसले सुनाए जाते हैं। लड़की के घरवालों को समाज की प्रताड़ना सहनी पड़ती है। हत्याएं हो जाती हैं। कई ही बार प्रेमी-प्रेमिका के शव बरामद होते हैं।

माउंटमैन दशरथ मांझी पर बनी फिल्म भी हकीकत और रुपहले पर्दे दोनों पर खूब असर छोड़ती है। बिहार के गया जिले के गहलौर गांव का एक गरीब मज़दूर। जो हथौड़े और छेनी की भाषा ही जानता है। समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाने पर मांझी की पत्नी ने दम तोड़ दिया। और इस प्रेमी ने पच्चीस फुट ऊंचे पहाड़ का सीना चीर कर सड़क निकाल दी। जिसकी पूरी उम्र इस सड़क को बनाने में निकल गई। कोई 22 वर्ष। पचपन किलोमीटर की दूरी उसने अकेले दम पर पंद्रह किलोमीटर में तब्दील कर दी। जैसे यह सब अविश्वसनीय हो।

मुज़फ़्फ़रनगर के वे प्रेमी जुगल, जिनके नाम पर दंगे भड़का दिए गए। या राजस्थान में प्रेम विवाह के बाद घर छोड़ कर गई रमा कुंवर। जो आठ साल बाद वापस लौटी तो घरवालों ने बीच चौराहे पर उसे जिंदा जला दिया।  वे जोड़े जो घरवालों की मर्जी के खिलाफ़ जाकर ब्याह करते हैं। कुछ साल बाद घर वाले मान भी जाते हैं।  मगर वे कुछ बरस उनके वनवास के होते हैं। हमारे बीच पलती तमाम प्रेम कहानियां अखबार के अपराध के पन्नों पर छपती हैं। कुछ क्लासिक कहानियों पर दशरथ मांझी जैसी फिल्म बन जाती है। सैराट की तो कितनी कहानियां हमारे ईर्द गिर्द पनपती हैं। कत्ल कर दी जाती हैं। कितने प्रेम प्रेमिका आवारा करार दिये जाते हैं।

ये कहानियां दरअसल हमारे समाज की बुनावट को भी उधेड़ती हैं। जिसमें बहुत भेदभाव है। सच कहने और सहने की गुंजाइश बहुत कम है। प्रेम कसमसाता है। फरेब जहां जीत जाता है। वक़्त दगाबाज़ हो जाता है। असली सिनेमा देखना भी आसान नहीं होता।

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