उत्तराखंड आपदा को
एक साल होने को आए। कुदरत का ऐसा खौफनाक खेल इससे पहले शायद ही किसी ने देखा हो।
देश के अलग-अलग हिस्सों से आए लोग। केदरानाथ को पूजने के लिए। बाबा केदार के दर्शन
के लिए कठिन-दुर्गम रास्ते कय कर पहुंचे श्रद्धालु। किसी को पता न था कि पहाड़ों
के उपर कुदरत कौन सा चक्रव्यूह रच रही है। कौन सा बादल फट पड़ेगा और अपने साथ
तबाही का सैलाब ले आएगा। पहाड़ों के बीच बड़ी खामोशी से कौन सी झील बुनती चली गई
और विस्फोट की तरह उन हजारों श्रद्धालुओं पर टूट पड़ेगी। जो अभी बाबा केदार की
पूजा के लिए आरती का थाल सजा रहे थे। जो केदार मंदिर के बाहर नंदी को गेंदा फूलों
से सजा रहे थे। बारिशें तो कई दिनों से हो रही थीं। लेकिन उन बारिशों में एक
खतरनाक धुन छिपी थी। ये शायद ही कोई भांप सका था। पूरी केदारघाटी अपने श्रद्धालुओं
की श्रद्धा से ओतप्रोत पसरी हुई थी। सब जन अपने अपने कामों में जुटे थे। फूलवाले,
होटलवाले, चायवाले, घोड़ेवाले। किसी को मालूम नहीं चला कि मंदाकिनी बस हरहरा के
गिरने वाली है। किसी सैलाब की तरह अपने साथ सबकुछ बहा ले जाने पर अमादा। विनाश की
लीला अपने साथ लेकर उतरेगी मंदाकिनी और चारों तरफ हाहाकार मच जाएगा।
हाहाकार मच चुका था।
पहाड़ों से मलबा उतर रहा था। मंदाकिनी उतर रही थी। बादल फट रहा था। झील टूट रही
थी। सबकुछ एक साथ। किसी के पास भागने का मौका न था। कुदरत के आगे समूची मानवता
बेबस थी। मंदाकिनी के शोर में लोगों की चीखें दबी जा रही थीं। छोटे बच्चों के हाथ
उनके मां-बाप से छूट गए थे। कुदरत के करीब रहनेवाले स्थानीय लोग, दूसरे पहाड़ों पर
चढ़ इस विनाशलीला से बचने की कोशिश कर रहे थे। कुछ कामयाब भी हुए। लेकिन पहाड़ों
को न जानने समझनेवाले लोगों के पास इतना मौका न था। कौन किधर जा रहा था,कौन कहां गिर रहा था, कौन कहां बह रहा था। कुछ होश
नहीं था। मंदिर के आगे शव बिछ गए। गेंदा फूल से सजे नंदी शवों से घिर गए। जान
छिपाने के लिए लोग मंदिर के अंदर जा छिपे लोग शवों में तब्दील हो गए। मंदाकिनी की
तेज़ प्रलयकारी धारा में लोग बहते चले गए। एक औरत ने अपने पूरे परिवार को बहते
देखा। एक बाप ने अपने इकलौते बेटे को बहते देखा। एक मां ने अपनी तीन बेटियों को
बहते देखा। कल्पना से इतर कुदरत अपने आप में घटित हो रही थी। और उसके साथ जो हो
रहा था उसके बारे में अब बातें ही की जा सकती हैं। रामबाड़ा डूब गया था। घोड़ा पड़ाव
डूब गया था। केदारघाटी से शुरू हुई कुदरत की विनाशलीला का दायरा यहीं तक नहीं
सीमित था। पूरा उत्तराखंड कांप गया था। बदरीनाथ की सड़कें उधड़ चुकी थीं। ऋषिकेश
में गंगा की लहरें तूफान मचा रही थीं। मंदाकिनी, अलकनंदा, भागीरथी के रास्ते में
जो-जो आया सब ध्वस्त हुआ। बताया गया कि उस रोज गुस्सैल हुई नदियां अपने पुराने
रास्तों पर लौट आईं थीं। जहां वो कभी पहले बहा करती थीं। नदियों के रास्ते बदलने
का इल्म किसी को न था। उन रास्तों पर अब
नई इमारतें उगा दी गई थीं। नए होटल बना दिए गए थे। लोगों ने नदियों के बिस्तर पर
अपना घर बना लिया था। इसलिए ये तबाही और उग्र हो गई। और भयावह। पांच हज़ार से
ज्यादा लोग उत्तराखंड में आई तबाही का शिकार हुए। उत्तराखंड के सैंकड़ों गांव इस
तबाही में उजड़ गए। यात्रियों की मौतों के बीच उनके दुख पर ठीक से बात भी नहीं की
जा सकी। उनके जख्म अब भी रिस रहे हैं। उस तबाही की दास्तान सुनाने के लिए कुदरत ने
कुछ लोगों को बख्श दिया। जो बता सकें कि हमने प्रलय को देखा था।
फिर पड़ताल की बारी
आई। उत्तराखंड में ऐसा क्यों हुआ। विकास की लालसा में पहाड़ों में धड़ाधड़ हुए
विस्फोटों में सबकुछ इतना कच्चा हो चुका था कि एक चूक पर बचने की गुंजाइश बेहद कम
थी। जानने की कोशिश हुई कि छोटी सी केदारघाटी में हजारों की संख्या में श्रद्धालु
क्यों जमा हुए। इतने सुदूर पहाड़ियों में पर्यटन की कितनी गुंजाइश रखी जानी चाहिए।
देश के किस-किस कोने से कौन-कौन से यात्री आए। उनका पता-ठिकाना क्यों नहीं रखा
गया। क्यों नहीं पर्यटकों का रजिस्ट्रेशन हुआ। कैसे नदियों के किनारे गैरकानूनी
तरीके से होटल-गेस्टहाउस बनते चले गए। संतुलित पर्यटन की बात हुई। फिर बात हुई
नदियों के किनारों को संरक्षित करने की। इको-सेंसेटिव ज़ोन बनाने की। नदियों के
रहने के लिए कुछ जगह छोड़ दी जाए। लेकिन इस सब पर बात और कार्रवाई ढीले-ढाले ढर्रे
पर ही हुई।
इको-सेंसेटिव ज़ोन
को लेकर तमाम तरह के विरोध और भ्रांतियां देखने को मिलीं। स्थानीय लोग खतरा महसूस
करने लगे। उत्तराखंड में चल रही छोटी-बड़ी बिजली योजनाओं की पड़ताल शुरू हुई। पर्यटकों
का रजिस्ट्रेशन कराया गया।
इस पूरे एक साल में
उत्तराखंड में आई आपदा पर ऐसा कुछ नहीं देखने को मिला जो सबक के तौर पर याद रखा
जाए। आपदा पर राजनीति ही देखने को मिली। उत्तराखंड आपदा में उजड़े गांवों को अबतक
नहीं पूछा गया। इसी वजह से कई गांवों ने यहां लोकसभा चुनावों में बहिष्कार भी
किया। उत्तराखंड सरकार ने केदारघाटी में पूजा दोबारा शुरू करने की जल्दबाज़ी
दिखायी। जबकि पहली चिंता वहां के रास्तों को दुरुस्त करने की होनी चाहिए थी। ताकि
दोबारा वहां कोई हादसा न हो। और अगर हो तो उससे निपटा जा सके। लेकिन वाहवाही बटोरने
के लिए सरकार की चिंता केदारनाथ में दोबारा दर्शन कराने की ही रही। खतरनाक हद तक
की स्थितियों में दोबारा पूजा चालू भी कर दी गई। यात्रा मार्ग दोबारा चालू कर दिए
गए। लेकिन वहां अब भी स्थितियां यात्रा करने योग्य नहीं हैं। वहां अब भी जगह-जगह
दबे शवों को देखा जा सकता है। उन शवों को अबतक हटाया तक नहीं गया। प्रलय और मौत के
निशान वहां जगह-जगह दिखायी दे रहे हैं और पूजा चालू है।
क्या होता अगर
उत्तराखंड में केदारयात्रा एक साल के लिए
स्थगित कर दी जाती। और स्थानीय स्तर पर दुरुस्तगी के काम पहले किये जाते।
उजड़े संपर्क मार्गों से कटे गांवों में रह रहे लोगों को पहले ठीक से बसाने का काम
किया जाता।
इस बीच केदारघाटी
में पूरे साल बर्फबारी होती रही। फरवरी, मार्च, अप्रैल, मई तक बर्फ़बारी से यहां
पांच-पांच फीट तक बर्फ़ जमी रही और है। कुदरत जैसे केदारघाटी के जख़्मों पर बर्फ़
की रुई रख रही हो।
उत्तराखंड आपदा से कुदरत से छेड़छाड़ किस हद तक खतरनाक हो सकता
है। हमने जाना कि कुछ जगह नैसर्गिक तौर पर मानवीय क्रियाकलापों से रिक्त ही रखनी
चाहिए। कुछ जगहों को उनके प्रकृतितम रूप में रहने देना चाहिए।
4 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (15-06-2014) को "बरस जाओ अब बादल राजा" (चर्चा मंच-1644) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सीखने को तैयार नहीं हम...
आप से पूरी तरह सहमत।
प्रकृति हमें सबक सिखाती हैं लेकिन हम फिर उसी राह चल देते है
बहुत बढ़िया प्रेरक प्रस्तुति
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