चौड़ी सड़क पर आकर
खत्म होती गली के मुहाने पर चाय की गुमटी थी। वो बच्चा यहां उदास सा बैठा था।
खिन्न था। बारह-तेरह साल की उम्र में ही उसके कंधों पर नई ज़िम्मेदारी आ गई थी।
दादा के साथ काम में हाथ बंटाने की। चाय देना, गिलास साफ करना, दादा की अनुपस्थिति
में चाय बनाना। अम्मा का इंतकाल तीन दिन पहले हुआ। अम्मा ही दादा के साथ चाय की उस
गुमटी में हाथ बंटाती थी। अंतिम दिन तक वो अपनी चाय की गुमटी पर डटी रही। तबियत
ढीली चल रही थी। मई की इस बरसाती रात में अचानक और बिगड़ गई। बिना देरी किए
उन्होंने दुनिया से कूच कर दिया। अम्मा चली गई तो फर्क बस इतना पड़ा कि चाय की
दुकान पर दादा का हाथ बंटाने के लिए बड़े पोते को नियुक्त कर दिया गया। तीनों
बच्चों में सबसे बड़ा होने के नाते ये जिम्मेदारी उसे ही मिलनी तय थी। ज़िंदगी के
कैनवस पर ये उसका प्रमोशन था या डिमोशन। गली के छोर पर चाय की दुकान के बगल में
दोनों छोर पर उसके दो छोटे भाई बहन क्रिकेट खेल रहे थे। छोटी बहन गेंद फेंकती,
उससे बड़ा भाई बल्ले से गेंद को हवा में उछालता। उन्हें क्रिकेट खेलता देख बच्चे
के चेहरे पर मुस्कान आ जाती। और फिर उतनी ही तेज़ी से लौट भी जाती। सड़क पर ढुलकती गेंद में जैसे उसकी हसरतें भी
ढुलकती जा रही हों। वो ख़ुश नहीं था। परिवार में मिली इस नई भूमिका को स्वीकार
नहीं करना चाहता था। लेकिन यहां न कि गुंजाइश नहीं थी।
उसकी उदासी चाय की
भाप में मिलकर मई की इस सुबह को और गरमा रही थी। तभी ठंडी हवा के झोंके की तरह वो
तीन लड़कियां वहां से गुजरीं। वो भी बारह-तेरह की उम्र की ही थीं। सफेद रंग के
सलवार-कुर्ते की यूनिफॉर्म पहने स्कूल जा रही थीं। बीच में चल रही लड़की
आत्मविश्वास से लबरेज थी। गली जिस सड़क पर आकर खत्म होती है। वहीं बाईं छोर पर
उसके पिता जूस का ठेला लगाते हैं। वो अक्सर ही पिता की मदद करती। सुबह ठेले को
तैयार करती। उसके पहियों के नीचे ईंट टिकाती। बोरियों में बंद मौसमियों को निकालकर
ठेले पर सजाती। जूस निकालने की मशीन को साफ करती। पिता की मदद के लिए एक-एक मौसमी छील-छील
कर रखती जाती। माहिर की तरह वो मौसमी के सख्त छिलके उतार कर रखती। ये सब करते हुए
उसके चेहरे पर आत्मविश्वास झलकता। वो बेहद मज़बूत लड़की थी। पिता की मदद कर रही
थी। ये सब करते हुए वो उन तमाम बातों को भी ख़ारिज कर रही थी कि बेटा ही बाप का
हाथ बंटाता है, बेटी जिम्मेदारी होती है। बेटी अपने पिता का हाथ बंटा रही थी। छोटी
सी उम्र में घर की जिम्मेदारी संभाल रही थी। जूस के ठेले पर ज्यादातर अजनबी पुरुष
ही आकर रुकते। वो उन सब के बीच पूरी तन्मयता से अपने काम को अंजाम देती। चेहरे पर
कोई शिकन नहीं। गली से गुजरते हुए तेज़ चाल, चेहरे पर आत्मविश्वास, जिसमें खुशी की
एक लकीर भी खिंची थी, अपने पीछे वो सुखद एहसास छोड़ गई।
इसी सड़क पर जूस के ठेले से पहले ही बस स्टैंड है। जिसके बगल में
कूड़े का ढेर पड़ा रहता है। यहां यात्री इंतज़ार नहीं करते। बस थके-मांदे लोग
बैठकर सुस्ताते हैं। बारह-तेरह की उम्र के ही दो बच्चे झूमते हुए बस स्टैंड पर आ
बैठे। उनकी चाल से पता चल रहा था वो नशे के झोंके में हैं। बेहद खराब हालत में।
कपड़े चीथड़ों जैसे। आंखें नशे में बुझी हुई। जीवन का न्यूनतम सौंदर्य़ भी नहीं झलक
रहा था उनमें। उनमें से एक ने अपनी जेब से एक पन्नी निकाली। उसमें ब्रेड पकौड़े के
दो टुकड़े थे। दूसरे बच्चे ने अपनी जेब से लाल रंग का एक चमकता हुआ पाउच निकाला। इस
पाउच को देखकर समझा जा सकता था कि ये बिलकुल नया है। इसमें वाइटनर था। ब्रेड
पकौड़े के उपर उन्होंने वाइटनर लगाया, फोल्ड किया और खा लिया। उन दोनों की ओर किसी
की नज़र नहीं थी, न उनकी नज़र किसी की ओर। जैसे वो इस दुनिया में होके भी नहीं
हैं। या वो हैं ही क्यों। वो देखना भी नहीं चाहते थे इस समाज को। न समाज देख रहा
था इनकी ओर। खुद में खोने के लिए उन्हें नशा सिखा दिया गया था।
21वीं सदी के भारत के एक महानगर की सड़क का ये बेहद आम दृश्य। हर कोई
अपनी अलग कहानी में लिपटा हुआ। अपनी दिक्कतों से जूझता हुआ। सड़क बढ़ती हुई। सड़क
के साथ लोग बढ़ते हुए। उनकी कहानियां बढ़ती हुईं। एक दूसरे से होड़ लेती हुईं। एक
दूसरे को छूती हुईं। कभी मुस्कुराती हुईं। कभी दनदनाती हुईं। लेकिन बच्चे। बच्चों
की कहानियां एक सी ही होनी चाहिए। सिर्फ मुस्कुराती हुईं। ये तस्वीर कब बदलेगी।