यहां गूंजते हैं स्त्रियों की मुक्ति के स्वर, बे-परदा, बे-शरम,जो बनाती है अपनी राह, कंकड़-पत्थर जोड़ जोड़,जो टूटती है तो फिर खुद को समेटती है, जो दिन में भी सपने देखती हैं और रातों को भी बेधड़क सड़कों पर निकल घूमना चाहती हैं, अपना अधिकार मांगती हैं। जो पुकारती है, सब लड़कियों को, कि दोस्तों जियो अपनी तरह, जियो ज़िंदगी की तरह
03 January 2011
तुम उनकी साज़िशों को खत्म कर दोगे
तुम प्रवंचना की उनकी कुटिल
चालों का अंत कर दोगे
हत्याएं करने-करवाने की
ठंडी फांसियां देने-दिलवाने की
चुपचाप ज़हर घोलने-घुलवाने की
कारागार की नाटकीय कोठरियों में
मानवता को गलाने-गलवाने की
यानी, उनकी एक-एक साज़िश को
तुम खत्म कर दोगे
हमेशा-हमेशा के लिए
मैं तुम्हारा ही पता लगाने के लिए
घूमता फिर रहा हूं
सारा-सारा दिन, सारी-सारी रात
आगामी युगों के मुक्ति सैनिक
कहां हो तुम?
{विनायक सेन, फिर शंकर गुहा नियोगी के बारे में जानकारियां जुटाते-जुटाते बाबा नागार्जुन की कविता पढ़ने को मिल गई... }
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5 comments:
accha laga padhna , abhar aapka
वर्षा जी, इस महान रचना को हम तक पहुंचाने का आभार।
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डा0 अरविंद मिश्र: एक व्यक्ति, एक आंदोलन।
एक फोन और सारी समस्याओं से मुक्ति।
बाबा की एक कविता कल ही कहीं सुनी ... औफ .. क्या लिखा है ...
इस रचना को हम तक पहुँचाने का आभार.
bahut sundar prastuti ...aapka aabhar
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